शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...कुमार मुकुल और अच्‍युतानंद मिश्र की बातचीत

कविता में आपका आना किस तरह हुआ ?

अध्ययन की जड. स्थितियों से उबिया कर मैं कविता में आ गया। पिता चाहते थे कि डाॅक्टर बनूं, राममोहन राय सेमिनरी में तीन महीने के कोचिंग के लिए मुझे भेजा गया था। वहां रोज ढड्डर का ढड्डर नोट्स लिखवाया जाता था कि आप उसका रट्टा मारें,तो तीन महीना पूरा होते ना होते मैं इस तरह की पढाई से उब गया। पिता ने समझाया कि कोचिंग पूरा कर लो, भले मेडिकल में ना बैठना। पर मन उचट गया सो मैं बोरिया-बिस्तर ले वापस आ गया। उस दौरान मेरे मिजाज में विचित्र बदलाव आ रहे थे। कोचिंग के दौरान मेरे मन में विचित्र कल्पनाएं जगने लगीं कि इस पढाई से अच्छा हो कि पटना में जाकर गुलाबों की खेती करूं। शाम गांधी मैदान में जा बैठता और चांद-तारों को निहारता रहता, दरअसल पिछले दो सालों की पढाई के दौरान मैं ज्यादातर गांव में रहा सो नदी,पेड,चांद,तारों के अलावे मुझे कुछ सूझता नहीं था। सो सहरसा जाकर वाकई सालों मैंने गुलाब के ढेरों पौधे उगाए। इस बीच जो मेरे साथी बने वे तीनों कविताएं करते थे। देखा-देखी मैं भी तुकें जोडने लगा, हालांकि आगे उनमें से कोई कविता के क्षेत्र में टिका ना रहा।

अप्रत्यक्ष रूप से पिता की भी भूमिका मेरे कवि बनने में है और मां की भी। मेरे पिता ने असहमति के बावजूद मेरे दो आरंभिक कविता संकलन छपवाए एक पर उन्होंने टिप्पणी भी लिखी। उनकी मेज पर 'मुक्तिबोध','नामवर सिंह','रामविलास शर्मा' आदि की किताबें पडी रहती थीं,अंग्रेजी के अध्यापक होने के नाते 'शेक्सपीयर' आदि को तो वे रटवाते ही रहते थे। सहरसा कोशी प्रोजेक्ट के सचिव जो पिता के मित्र थे घर के सामने रहते थे। उन्हें हम लोग सेक्रेटरी सहब कहते थे। वे अपने टेप पर 'बच्चन' की मधुशाला सुनाते थे तो आंरभिक कविताएं मैं उन्हें ही लिखकर पढाता था और वे सराहते थकते ना थे। उनमें से कोई कविता कहीं छपी नहीं या उस लायक नहीं थी पर उनकी हौसला अफजाई ने भी बढावा दिया। और मां की लाजवाब करने वाली मुहावरेबाजी के बारे में क्या कहना।

फिर मेरे पहले कविता संकलन पर 1987 में जिस तरह उस समय के दिग्गजों ''प्रभाकर माचवे'',''विष्णु प्रभाकर'',कवि ''रामविलास शर्मा'' आदि ने पत्र लिखकर उत्साहित किया उसने भी मेरा मिजाज बना दिया। माचवे जी ने तो प्रूफ की गलतियां ,पुस्तक पर अपनी राय और प्रकाशनार्थ सम्मति आदि अलग अलग लिखे थे। पर उस समय समीक्षा आदि का महात्तम मुझे पता नहीं था सो माचवे की वह सम्मति कहीं छपी नहीं। हां, ''मुकेश प्रत्यूष'' ने उस समय हिन्दुस्तान में एक समीक्षा लिख दी थी। मैं उसी से गदगद था।

बतौर कवि कविता के वर्तमान परिदृश्य को आप किस तरह देखते हैं ?

एक तरह की धुंध है,हालांकि बडे पैमाने पर नये कवि लिख रहे हैं पर उस परिवर्तनकामी चेतना का अभाव दिखता है जो कविता के मानी होते हैं। पर हमारे मुल्क में और इस महाद्वीप में अभी भी जिस तरह अशिक्षा और जहालत का बोलबाला है, जैसे-जैसे लोग शिक्षित होते जाएंगे कविता का घेरा बढेगा। बाकी जमात को छोड कर खुद कवि हो जाने,होते चले जाने के कोई मानी नहीं हैं।

हिन्दी कविता में दिल्ली के कवियों की केंद्रियता के क्या खतरे हैं ?

वही जो दिल्ली केन्द्रित सत्ता के हैं , पर कोई कवि दिल्ली का नहीं होता जैसे राजनीतिज्ञ दिल्ली के नहीं होते। एक केन्द्रियता तो रहेगी ही उसे बार बार विकेन्द्रित करने की जरूरत होगी।

आठवें दशक के बाद जो पीढी आयी उसने कविता के कथ्य और शिल्प को किन अर्थों में बदला ?

मैं इस तरह दशकों में कविता को बांट कर नहीं देखता। यह बंटवारा इसलिए होता है कि उस छोटे से घेरे में आप महारथी दिखें। काहे का महारथी जब आपकी आधी से ज्यादा आबादी जहालत के घेरे में है, पहले उन्हें शिक्षित कर लें फिर उनके कवि होने का दावा और बंटवारा करें।

नहीं, मैं जानना चाहता था कि नवें दशक के कवि 'कुमार अंबुज','एकांत श्रीवास्तव','मदन कश्यप','विमल कुमार' आदि ने आठवें दशक के बरक्स कविता में कौन से नये बदलाव लाए ? ये आपसे ठीक पहले के कवि हैं।

इनमें मदन कश्यप के अलावे बाकी ने खुद को अपने समय की राजनीति से बचाव की मुद्रा में रखा। प्रकृति का वर्णन या अंतरमन के प्रसंगों को कविता में लाना जरूरी है पर यह हमें अपने समय की उठापटक से दूर करने का वायस बने यह जरूरी नहीं। विमल कुमार ने अपने पहले संग्रह के बाद राजनीति से अपना जुडाव दिखाने की कोशिश की पर वह जमीनी नहीं बन पाया।(अब 2018 में विमल जी अपने समय के मुकाबिल तनकर खडे दिखते हैं)

आज कुछ बडे प्रकाशक थोक भाव से कवियों को छाप रहे हैं कथाकारों और उपन्यासकारों को छाप रहे हैं, जैसे वे उनके दिशा-निर्देशक हों। इस तरह पीढियां बनाने के प्रकाशन की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं ?

देखिए , खुशफहमियां पालने का हक सबको है, जब नये रचनाकार ही खुशफहमियों से बाहर आने को तैयार ना हों तो प्रकाशक को क्या पडी है , वह उन्हें निर्देशित करेगा ही। वह उसके व्यापर का हिस्सा है। बाकी पीढी-पीढा प्रकाशक क्या उभारेंगे, वे अपनी गांठ सीधी करें इससे ज्यादा की उन्हें फुरसत कहां है...

''उर्वर प्रदेश'' पर जिस तरह से विवाद उठा है,उससे वर्तमान कविता और कवियों के बीच के अंतरविरोधों पर किस तरह रोशनी पडती है ?

यह एक राजनीतिक विवाद है। इसका रचनात्मकता से कोई लेना देना नहीं। पुरस्कार कोई भविष्य की गांरटी कैसे दे सकते हैं। हर राजनीतिक तमाशा एक सीमा के बाद चूकता है। उर्वर प्रदेश भी चूका अब जाकर। इस प्रदेश से बाहर हमेशा ज्यादा उर्वर कवि रहे।

आपने कविता के अतिरिक्त गद्य भी लिखा है...एक कवि के लिए गद्य लेखन को आप कितना महत्वपूर्ण मानते हैं ?

गद्य कविता में फार्मेट का अंतर है , बातें तो वही होती हैं। शमशेर ने कहा है ना कि 'बात बोलेगी' , तो कविता हो या गद्य ,बातों को बोलना चाहिए, ऐसा ना हो कि उनकी वकालत की जरूरत पडे। हां,गद्य लिखने से कवि अपनी सत्ता को जान पाता है कि वह कितनी ठोस है।

फिलहाल आप किसे बड़ी संभावना के रूप में देखते हैं,कविता या आलोचना को ?

संभावना या बात जहां होगी वह बडी हो जाएगी। अपने आप में कविता या आलोचना से क्या संभावना ...!

पहले के किन कवियों ने आपके काव्य व्यक्तित्व और लेखन पर प्रभाव डाला है ?

अलग-अलग समय में अलग लोगों ने प्रभावित किया। जैसे 1987 में जब मेरा पहला कविता संकलन पिता ने छपवाया था तब मैं ''केदारनाथ सिंह'' के प्रभाव में था। उनके असर में उस संकलन में एक कविता भी लिखी थी मैंने जो संकलन का शीर्षक भी था,''समुद्र के आंसू''। आरंभ में 'तुलसी' और 'दिनकर','बच्चन' का प्रभाव था। विकास के साथ प्रभावित करने वाले कवि बदलते गये। केदारजी की कविता आज वह प्रभाव नहीं छोडती। ना दिनकर,बच्चन ही। लंबे समय से मुक्तिबोध,शमशेर,नागार्जुन,त्रिलोचन का प्रभाव है। मुक्तिबोध,शमशेर का गद्य और कविता एक ही तरह से प्रभावित करते हैं और एक हद तक रघुवीर सहाय भी। टैगोर की कविताएं बहुत प्रभावित करती हैं वैसे रिल्के के पत्रों का सर्वाधिक प्रभाव खुद पर अनुभव किया।

प्रभाव से परे मेरे ''प्रिय कवि'' अलग हैं, आलोक धन्वा,विष्णु नागर,विष्णु खरे,ऋतुराज,लीलाधर मंडलोई,मंगलेश डबराल,विजय कुमार,असद जैदी,मदन कश्यप,अनामिका,सविता सिंह,निर्मला पुतुल,वंदना देवेंद्र। बांग्ला कवि नवारूण भटटाचार्य बहुत प्रिय हैं मुझे। अपने प्रिय कवियों की कविताएं मैं लोगों केा बारहा सुनाता हूं।

लंबी कविताओं के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे ?

कविताओं को छोटी और लंबी में बांटना नहीं चाहता मैं। दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण होती हैं। बस संगठन का फर्क है। वरना लंबी कविता भी आप एक सांस में पढ जाएं और छोटी भी आपको उबा दे। कुछ लंबी कविताओं ने मुझ पर गहरा प्रभाव छोडा, जैसे आलोक धन्‍वा की ब्रूनो की बेटियां,सफेद रात,लीलाधर जगूडी की मंदिर लेन,लीलाधर मंडलोई की अमर कोली और कुमारेन्‍द्र पारसनाथ सिंह की लंबी कविताएं।

नयों में किनसे उम्मीद बंधती है ?

बहुत लोग बहुत तरह से लिख रहे हैं,उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...

 Thursday, July 8, 2010, को एक ब्‍लॉग पर पोस्‍टेड


बुधवार, 17 अक्टूबर 2018

'समुद्र के आंसू' व 'सभ्‍यता और जीवन'

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - रामविलास शर्मा {कवि}

मध्‍यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ,इन्‍दौर
रामविलास शर्मा
अध्‍यक्ष
27-4-88

प्रिय भाई मुकुल
आपका पत्र मिला। समुद्र के आंसू की प्रति भी। आद्यांत पढ़ गया हूं। आपके मन में भावनाओं का ज्‍वार है और परिवेश के प्रति सतर्क दृष्ठि भी। सामाजिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश की एक लहर भी इन कविताओं में यत्र-तत्र विद्यमान है।
प्रकृति ने आपके मन को छुआ है और उसकी सहज अभिव्‍यक्ति भी यहां मौजूद है।
आप एक संभावनाशील कवि हैं। मेरी बधाई स्‍वीकारें।
शेष शुभ।
सस्‍नेह
रामविलास शर्मा

गीतांजलि
396,तिलक नगर,इन्‍दौर-452001/म.प्र.

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - विष्‍णु प्रभाकर

प्रिय बन्‍धु,
आशा करता हूं आप स्‍वस्‍थ और प्रसन्‍न हैं। आपका पत्र मिला और पुस्‍तक भी। इधर मेरा स्‍वास्‍थ्‍य बहुत खराब चल रहा है आंखों में मोतिया बिन्‍द उतर रहा है इसलिए पढ़ना बहुत कष्‍टदायी हो गया है फिर भी आपकी कविताएं इधर उधर से पढ़ गया हूं। आपने आज के यथार्थ का मार्मिक चित्रण किया है। आपका उद्देश्‍य बहुत शुभ है और आपकी भाषा में भावों को अभिव्‍य‍िक्ति देने की शक्ति भी है। मुझे विश्‍वास है कि आपका भविष्‍य उज्‍जवल है।
मेरी हार्दिक शुभकामनाएं स्‍वीकार करें।
शेष शुभ
स्‍नेही
विष्‍णु प्रभाकर
28/4/88
818,कुण्‍डेवालान,अजमेरी गेट, दिल्‍ली-110006,फोन-733506

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - राजेन्‍द्र यादव
12/12/87
प्रिय अमरेन्‍द्र जी
आपका कविता संग्रह मिला। धन्‍यवाद। कविताओं में मेरी बहुत गति नहीं है,इसलिए अपनी राय को महत्‍वपर्ण नहीं मानता। अपने कुछ कवि मित्रों को दिखाकर उनकी प्रतिक्रिया जानने की प्रयास करूंगा।
आशा है , स्‍वस्‍थ सानंद हैं।
आपका
राजेन्‍द्र यादव

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - अरूण कमल

8/1/88
प्रिय मुकुल जी,
नमस्‍कार।
नये वर्ष की मंगलकामनाएं स्‍वीकार करें।
समुद्र के आंसू पुस्तिका मिली। आपके इस अनुग्रह के लिए हृदय से आभारी हूं। कविताएं मैंने पढ़ी हैं और कुछ पढ़ रहा हूं। खुशी की बात है कि आपने कविता से लौ लगायी है। इसे निरन्‍तर विकासमान रखें। कविता का क्षेत्र गहन कंटिल जटिल है-निरन्‍तर साधना से ही - होगी जय,होगी जय ।
नागार्जुन,शमशेर,त्रिलोचन,केदार,मुक्तिबोध के साथ पूर्वर्त्‍ती तथा बाद के कवियों की कविताएं पढ़ें तथा मनन करें। कविता जहां पहुंच चुकी है,हमें उसके आगे जाना है। अभी आपकी उम्र कम है, इसलिए सिर्फ सीखना ही सीखना है। वैसे, हर कवि को अंतिम क्षण तक सीखना ही है।
साथ साथ पढ़ाई पर भी ध्‍यान रखें। कवि को अपने समय का सबसे बड़ा विद्वान भी होना चाहिए।
घर में सबको यथोचित।
शुभकामनाओं और प्‍यार सहित
आपका
अरूण कमल
मखनियां कुआं रोड,पटना-80004

समुद्र के आंसू - संकलन पर सम्‍मति - डॉ.प्रभाकर माचवे

एक दिन मैंने
पूछा समुद्र से
देखा होगा तूने, बहुत कुछ
आर्य, अरब, अंग्रेजों का
उत्‍थान-पतन
सिकन्‍दर की महानता
मौर्यों का शौर्य,रोम का गौरव
गए सब मिट, तू रहा शांत
अब,इस तरह क्‍यों घबड़ाने लगा है
अमेरिका , रूस के नाम से पसीना
क्‍यों बार-बार आने लगा है
मुक्ति सुनी होगी तूने, व्‍यक्ति की
बुद्ध,ईसा,रामकृष्‍ण
सब हुए मुक्‍त
देखो तो आदमी पहुंचा कहां
वो ढूंढ चुका है, युक्ति
मानवता की मुक्ति का
अरे, रे तुम तो घबड़ा गए
एक बार, इस धराधाम की भी
मुक्ति देख लो
अच्‍छा तुम भी मुक्‍त हो जाओगे
विराट शून्‍य की सत्‍ता से
एकाकार हो जाओगे
लो,तुम भी बच्‍चों सा रोने लगे
मैंने समझा था,केवल आदमी रोता है
तुम भी, अपना आपा इस तरह खोने !(समुद्र के आंसू - कवि‍ता)

1987 में जब यह कविता लिखी थी और मेरे पहले संकलन समुद्र के आंसू में छपी तब वरिष्‍ठ कवि केदारनाथ सिंह का काफी प्रभाव था मुझ पर, इस कविता पर भी उसे देखा जा सकता है। उस समय इस पुस्‍तक को पढकर कवि आलोचक प्रभाकर माचवे ने एक पत्र लिखा था जिसमें एक जगह जहां उन्‍होंने प्रूफ की भूलें लिखीं वहीं अन्‍य कविताओं पर आलोचनात्‍मक राय भी दी। एक प्रकाशनार्थ सम्‍मति भी अलग से लिख दी थी जो उस समय छपने-छपाने की बहुत जानकारी और रूचि के अभाव के चलते कहीं छपी नहीं थी जब कि संग्रह की एक समीक्षा तब पटना से निकलने वाले दैनिक हिंदुस्‍तान में कवि मुकेश प्रत्‍यूष ने लिखी थी।
प्रकाशनार्थ सम्‍मति
श्री अमरेन्‍द्र कुमार मुकुल का प्रथम कविता संग्रह समुद्र के आंसू श्री रंजन सूरिदेव तथा डॉ कुमार विमल की अनुशंसासहित प्रकाशित हुआ है। इसमें कवि के इक्‍यावन भावोद्गार हैं। इस संग्रह के अंतिम कवर पर छपी पंक्तियां सर्वोत्‍तम हैं - 
तुझे लगे
दुनिया में सत्‍य
सर्वत्र
हार रहा है
समझो
तेरे अंदर का
झूठ
तुझको ही
कहीं मार रहा है। (सच-झूठ)
युवा बेरोजगार,खबर,चुनाव,मेरा शहर,रोल,बेचारा ग्रेजुएट,अपना गांव,सवालात में यथार्थ और व्‍यंग का अच्‍छा सम्मिश्रण है।ये रचनाएं चुभती हैं।
कवि के अगले संग्रहों में और अच्‍छी कविताओं की आशा रहेगी।
कविता न केवल वक्‍तव्‍य हेाती है,न राजनैतिक टिप्‍पणी।
तत् त्‍वम् असि जैसी रचना से आशा बंधती है - प्रभाकर माचवे / नई दिल्‍ली / 3-1-88
मां सरस्‍‍वती

मां सरस्‍वती! वरदान दो
कि हम सदा फूलें-फलें
अज्ञान सारा दूर हो
और हम आगे बढ़ें
अंधकार के आकाश को
हम पारकर उपर उठें
अहंकार के इस पाश को
हम काट कर के मुक्‍त हों
क्रोध की अग्नि हमारी
शेष होकर राख हो
प्रेम की धारा मधुर
फिर से हृदय में बह चले
मां सरस्‍वती! वरदान दो
कि हम सदा फूलें-फलें!

मां सरस्‍वती - शुद्ध गद्य है - यह कविता कैसे हुई। एक प्रार्थना मात्र है। इसे गद्य की तरह पढ़ें। क्‍या गद्य को तोड़-तोड़कर मुद्रित कर देने से ही कविता हो जाती है मात्राएं भी सब पंक्तियों की एकसी नहीं हैं:15,13,14,12 - यह पहली चार पंक्तियों की मात्राएं हैं - छन्‍द भी ठीक नहीं - डॉ.प्रभाकर माचवे/3-1-88