कविताएं लिखना और कविताओं पर लिखना दो अलग-अलगबातें हैं। कारवाँ मुकुल जी का ब्लॉग है जिसने मुझे कविता को गंभीरता से बरतना सिखाया। उन्होंने व्हाट्सप्प पर सुमित दहिया की कुछ कवितायें पढ़वायीं।
कविताएँ बहुत महत्वाकांक्षी हैं सुमित दहिया की - दूर तक पहुँचना और देर तक गूँज देना चाहती हैं। इनसे गुजरते हुए मुझे यह सहज ही लगा कि इसके पदबंधों में जबरदस्त रणन है। कवि ने एक - एक कविता को कई -कई बार लिखा है। इन पदबंधो को कविता में ठहरकर देखिए - ग़रीबी का भूगोल , ताक़तवर सरकारी जीभ , गर्मागर्म उबलता हुआ अप्रैल , व्यवस्था की पर्ची , आयुष्मान योजना के झुमके इत्यादि। इन पदबंधों से कविता की मज़बूत बनक दिखती है। युवा कवि ने इसे अपने अनुभव और श्रम से अर्जित किया है।
कवि रघुवीर सहाय की तरह सूचनाओं को कविता में बदल पाता है। ज्ञानात्मक सवेंदना को कविता में रूपांतरित कर सकने की यह योग्यता उसकी संभावनाओं को सम्बल देती है। कवि ज्ञान के कैटरपिलर को कविता की तितली में बदल सकता है।
कई कविताओं में सुमित दार्शनिकों के रोमान से कविता में रोशनी भरते हैं। वे एक तत्वदर्शी की तरह काव्यात्मक स्थापनाओं की गिरहें खोलते हैं और एक वकील की तरह निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए जिरह जारी रखते हैं -
किताबों से निरंतर फ्लाईओवर निकल रहे हैं
अत्याधुनिक उपग्रह , उपकरण ,परमाणु क्षमता वाले हथियार , रोबोट
और अर्टिफिफिशल इंटेलिजेंस जैसा बहुत कुछ निकल रहा है
हालाँकि प्रगतिशील जीवन धारा अच्छी बात है
मगर संपूर्ण मानव जाति की कीमत पर
यह स्वीकार्य नहीं
विचार जीवन के आवे में धीमी आंच पर पकता रहता है। कवि के पास वह सब है जो होना चाहिए। कुछ, जो नहीं है, वह धीरे -धीरे आकार लेगा - संजय कुमार शांडिल्य
सुमित दहिया की कविताएं
जमलो मडकम
व्यवस्था के नन्हें कदम बहुत अधिक समय तक
भूख, प्यास और गर्मी बर्दाश्त नही कर पाए
उस गरीब जाड़ में अटका सात दिन पुराना रोटी का टुकड़ा
उसे ताज़ा भोजन का स्वाद देने में नाकाफ़ी साबित हुआ
उसके केवल 12 वर्ष पुराने हाथ मिर्ची तोड़ते थे
संविधान में मौजूद 'बाल मजदूरी निषेध' करने वाले अध्याय से
जहाँ वह अपने सिर के ऊपर से विमान उड़ते देखती
लेकिन उसके लिए कहाँ कोई विमान
या स्पेशल बस आने वाली थी
उसे स्वयं ही नापना था अपनी ग़रीबी का भूगोल
ये कुछ दूसरे किस्म के लोग होते हैं साहब
किसी दूसरे रंग के कार्ड पर
सरकारी गाली, गेंहू, चावल और दाल खाने वाले
किसी और रंग की ताकतवर सरकारी जीभ
सीधा इनके मुँह में थूकती है अपने 'अध्यादेश'
वह एक सुबह निकल पड़ी थी अपने आदिवासी गिरोह के साथ
चमकदार रोशनी वाले शहरी इलाके को पार करती हुई
अपनी ग्रामीण लालटेन की तरफ
जिसकी लौ के आसपास आजीवन जलता है संघर्ष
हाँ, हाँ उसी सुबह
जब तुम अपने महंगे कप में पी रहे थे
यह गर्मागर्म उबलता हुआ 'अप्रैल'
वह निकल पड़ी थी
अपनी अंतड़ियों के व्याकरण में फैली बांझ भूख को सहन करती हुई
खाली वीरान सड़को को घूरती हुई
उसने अनेक बार हवा में अपने दांत गड़ाए थे
बेरहम किरणों से मुँह धोया था
इस बात से बिल्कुल अंजान कि यह कोरोना क्या बीमारी आई है
जिसने उसके हाथों से मिर्च और रोटी दोनो छीन लिए
घर से कुछ किलोमीटर पहले ही लड़खड़ाते जा रहे थे उसके कदम
तुम्हे याद है, तुम्हारे हॉल की सफेद टाइलों पर
कभी तुम्हारे बच्चे ने भी रखे थे लड़खड़ाते हुए पहले कदम
वही कदम जिनसे वह सीधा तुम्हारे ह्रदय पर चलता था
मृत्यु में भी ठीक उसी भांति लड़खड़ाते हैं कदम
और अंततः लड़खड़ाते, लड़खड़ाते
नन्ही 'जमलो मडकम' ने दम तोड़ दिया
मगर उसके शव की कीमत उसके घर पहुँच गई है
एक लाख रुपये।
नोट : बारह साल की जमलो मडकम के नाम जो अपने घर कभी नही पहुँच पाई।
आयुष्मान योजना के झुमके
आधी रात से कुछ ज्यादा का समय है
अस्पताल के एक वार्ड से आवाज़ आती है
हेमलता के साथ, हेमलता के साथ
अपना बहुमत वाला मोटापा हिलाती हुई एक महिला
अपने चारों कोनों से भागती हुई
अपनी चारो उंगलियों में अंगूठियां पहने
कानो में बड़े-बड़े सोने के झुमके लटकाये
हेमलता के साथ के रूप में प्रकट होती है
डॉक्टर उसे 'व्यवस्था की पर्ची' पर दवाईयां लिखकर देता है
और जल्दी दवाईयां लाने को कहता है
लेकिन वह जागरूक अंडाकार महिला यह कहते हुए मना कर देती है
कि सुबह आयुष्मान योजना का कार्ड दिखाकर
दवाईयां अस्पताल के अंदर से ही मुफ्त मिल जाएंगी
डॉक्टर जागरूकता की ओवरडोज लेकर हैरान होते हुए कहता है
कि ये 'आयुष्मान योजना के झुमके' आपातकाल भी नहीं पहचानते
ये आपात्कालीन दवाईयां लाने में भी असमर्थ है
दुर्भाग्य है
सुबह अस्पताल का दिन निकलते ही इस बहुमुखी योजना से
ये गरीब झुमके प्राथमिकता के आधार पर लाभान्वित होंगे।
किताबों से निकलते फ्लाईओवर
किताबों से निरंतर फ्लाईओवर निकल रहे हैं
अत्याधुनिक उपग्रह, उपकरण, परमाणु क्षमता वाले हथियार, रोबोट
और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसा बहुत कुछ निकल रहा है
हालांकि प्रगतिशील जीवनधारा अच्छी बात है
मगर सम्पूर्ण मानव-जाति की कीमत पर यह स्वीकार्य नहीं
किताबों से केवल प्रेमपूर्ण और शांत इंसान नही निकल रहे
खुशियां इंसानों के चेहरे और जेहन दोनों से लगभग विलुप्त हो चुकी हैं
एक अन्य अति-महत्वपूर्ण चीज़ किताबों से नही निकल रही
किताबो से मानवीय भावनाएँ नहीं निकल रहीं
आदमी कही गहरे में विचारों से नही बल्कि भावनाओं से संचालित है
मैं तुम्हें बता दूं
आने वाली सदी भावनात्मक विज्ञान की होगी
भविष्य में पनपने वाला सबसे बड़ा व्यापार,
भावनात्मक इंटेलिजेंस का आयात-निर्यात होगा
और न केवल ह्रदय के तल पर महसूस होने वाली भावनाएँ
बल्कि बोलने, सुनने और दिखाई देने वाली भावनाएँ चाहिए होंगी।
चौथा अबॉर्शन
यह बहुत विचित्र था
वह निरंतरता का अर्थ तलाश रही थी
उसकी सभी भावनाएं इक गड्ढे में गिर रही थी
इक वैश्विक गड्ढे में
जिसमे पहले से सारी दुनिया सड़ रही थी
निरंतरता, रोशनी का जलते रहना है
प्रेम का मरते रहना
खाना खाने के बाद परिश्रम डकारना
बाप की मौत पर चंद आंसू टपकाना
सेंसेक्स औऱ निफ्टी को ऊंचाई पर बंद होते देखना
दुख में आत्मा को सिकुड़ते देखना
जीवन के ढ़ेर सारे गुमनाम हाशिए और फुलस्टॉप ढूंढना
एक तयशुदा उम्र में गणितीय कीटाणुओं का जोर मारना
या फिर समाज और परिवार के डर से 'चौथा अबॉर्शन' करवाना
आखिर ये निरंतरता है क्या
वह सोच रही थी
कि किसी हसीन मर्द ने उसकी पारिवारिक परम्पराएँ अपाहिज कर दी हैं
उसके गाढ़े मादा विचार अक्सर कठोर होने वाली इंद्री से
निरंतर अंतरालों पर फेंके जाते हैं
हाँ ,वह यह भी सोच रही थी
यह कैसा वक़्त मैं इस युवा अवस्था में देख रही हूं
जब मेरे अंदर और बाहर दोनो स्थानों पर
एक साथ मृत्यु चल रही है।
चीख का आकार
लगभग एक जैसा होता है प्रत्येक चीख का आकार
चाहे वह लाखों निर्दोष कश्मीरी हिंदू पंडितों की चीख हो
चाहे वह चौरासी से निकली निर्दोष सिखों की चीख हो
फिर चाहे वह चीख निकली हो,
उन कार सेवको से भरे रेल के डिब्बे से
या फिर वह चीख निकली हो बाबरी मस्ज़िद के मलबे से
किसी भी धर्म, रंग,जाति या फिर हो चुनावी चीख
बेशक वह चीख हो कुँवारी चीख, उम्रदराज या विधवा चीख
हज़ारो चीखे इस देश की सरहदों से भी उठती है
शहीद जवानों के परिवारों की नम आंखें सदा चीखती हैं
बिछड़े प्रेमपूर्ण अतीत की यादों का कैलेंडर चीख़ता है
प्रत्येक चीख के साथ रुखसत होती है कुछ प्रतिशत मानवता
अगर कुछ बदलता है तो केवल वह मुआवजा राशि
और उन मुआवजा देने वाले चेहरों के हाव-भाव
मुआवज़ा मरहम नही बल्कि अगली चीख का निमंत्रण मात्र है।
कच्चा माल
वो एक आदमी है
जो मेरे और मेरी प्रेमिका के सामने
अपने शरीर के प्रत्येक अंग पर
दीवार घड़ी लटकाये खड़ा हुआ है
जिसके हरेक हाव-भाव से वक़्त रिस रहा है
और चेहरे पर हाँफती खामोशी बह रही है
फिर इशारों को विराम देकर अचानक बोल पड़ता है
कि अगर तुम्हारी कविता के लिए आवश्यक
कच्चा-माल तैयार हो गया हो तो
समय हो गया है
क्या मैं लाइब्रेरी बंद कर दूं
रोटियां
वो साइकिल पर जा रहा था
जिसके हैंडल के दोनों तरफ लटके
टिफिनो में रोटियां हिल रही थीं
जब मैंने उससे, उसका नाम पूछा
उसने कहा, रामसेवक
मैंने कहाँ इतनी जल्दी में कहाँ जा रहे हो रामसेवक
तेज़ी से मजबूर पैडल मारते हुए वह बोला
मुझे निश्चित स्थान पर प्रतिदिन दोपहर
एक निश्चित समय पर
ये टिफ़िन पहुँचाने होते हैं
देर होने पर मेरी रोटियां हिल जाती हैं।
नाम :- सुमित दहिया
जन्म :16.09.1988, फरीदाबाद (हरियाणा)
शिक्षा : राजनीति विज्ञान,विधि (LAW) में स्नातक और स्नातकोत्तर
भाषा-ज्ञान : हिंदी,अंग्रेजी, हरियाणवी
प्रकाशित कृतियाँ : 'मिलन का इंतजार (काव्य संग्रह-अद्वैत प्रकाशन), 'इल्तिज़ा' (ग़ज़ल संग्रह-अयन प्रकाशन) 'खुशनुमा वीरानगी' (ग़ज़ल संग्रह-अद्वैत प्रकाशन) ,खंडित मानव की कब्रगाह' (गद्य कविता संग्रह-अतुल्य प्रकाशन) और आवाज़ के स्टेशन ( काव्य संग्रह-अद्वैत प्रकाशन )
साहित्यिक ऑफ और ऑनलाइन पत्र,पत्रिकाओं में प्रकाशित:- वागर्थ (कलकत्ता), अंतरराष्ट्रीय पत्रिका आधारशिला, हिंदुस्तानी ज़बान युवा (मुम्बई), सोच-विचार (बनारस), शीतल वाणी (सहारनपुर), व्यंग्य यात्रा (दिल्ली), विभोम स्वर, राष्ट्र किंकर, अक्षर पर्व (रायपुर), समय सुरभि अनंत ( बेगूसराय ), पोएटिक आत्मा, साहित्य कुंज, जनसंदेश टाइम्स (लखनऊ), पतहर पत्रिका, प्रेरणा अंशु ( दिनेशपुर )
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