हिम्मत शाह से कुमार मुकुल की बातचीत
1933 में लोथल गुजरात में जन्मे और जयपुर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले हिम्मत शाह कला के क्षेत्र में विश्वविख्यात नाम है। जग्गूभाई शाह के शिष्य श्री शाह मध्यप्रदेश सरकार के कालिदास सम्मान, साहित्यकला परिषद अवार्ड, एलकेए अवार्ड, एआइएफएसीएस अवार्ड दिल्ली आदि से सम्मानित हो चुके हैं। भारत सरकार के एमेरिट्स फेलोशिप सहित कई फेलोशिप के तहत उन्होंने काम किया है। लंदन, दिल्ली, मुंबई सहित तमाम जगहों पर उनके कला कार्यों की प्रदर्शनियां लगती रही हैं। जवाहर कला केंद्र में नवंबर-दिसंबर 2017 में उनके काम को प्रदर्शित किया गया था। उसी दौरान उनसे यह बातचीत की गयी।
प्रस्तुत हैं श्री हिम्मत शाह से कुमार मुकुल की बातचीत के अंश -
कला आकलन और आब्जर्वेशन में है - हिम्मत शाह
आपका कला की ओर रूझान कैसे हुआ ? यह विचार कैसे आया कि चित्रकारी की जाए ?
ऐसा कोई विचार कर चित्रकारी की ओर नहीं गया मैं। मन खाली सा लगता तो चित्र बनाने लगा। पढने का पैसा नहीं था, तो पड़ोसी मकान में चूना करता तो मैं उसकी तगाड़ी उठा उसकी मदद करता, उसे दीवार रंगता देखता।
फिर एक दोस्त के साथ दिल्ली आ गया। इस बीच जहां- तहां रेखाएं खींचने की आदत लग चुकी थी। दिल्ली में मित्र जे स्वामीनाथन एक बार मुझे लेकर मैक्सिकन कवि ऑक्टोवियो पॉज के पास गए। पॉज नोबल से सम्मानित हो चुके हैं। उन्होंने मेरे बनाए चित्र देखे तो उसकी सराहना की। तब मुझे अंग्रेजी आती नहीं थी तो उनकी राय से अंग्रेजी के क्लास कर कामचलाने भर अंग्रेजी सीखी मैंने। पॉज ने ही पेरिस घूमने को फेलोशिप की व्यवस्था करायी। 1966 में मैं पेरिस-लंदन घूमा। पिकासो, मार्टिस, बराक का काम देखा। वहां के म्यूजियम देखे, आर्ट क्लासेज भी किये। वहां महीनों रहा मैं।
क्या मौलिकता जैसी कोई चीज होती है, या हम किसी परंपरा में विकसित होते रहते हैं?
एकदम, मौलिकता होती है। जन्म पहली मौलिक रचनात्मकता है। रचनात्मकता का संबंध दिमाग से नहीं दिल से है। मैं किसी चीज की नकल नहीं करता। अब एक फूल है तो मैं कितनी भी कोशिश करूं उसकी नकल नहीं कर सकता। इसलिए मैं प्रकृति जैसी शक्लों को आकार देने की कोशिश करता हूं। बाढ में जब कोई घर गिरता है तो वह मुझे जीवित और रचनात्मक लगता है, मैं उसे फिर अपनी रचना में लाना चाहता हूं।
एक तस्वीर में आपने लकडि़यों का ढेर जमा किया है और पीछे आकाश की पृष्ठभूमि है और एक ओर आप भी हैं। यह इंस्टालेशन बांधता है दर्शक को।
हां, एक फोटोग्राफर मित्र के साथ रेगिस्तानी निर्जन इलाके में महीनों रहा। इधर-उधर बिखरी लकडि़यों से खेलता उन्हें मनमर्जी से रखता गया। वही फिर अपना वर्क कहलाया। कुछ लोग मेरी कला को चोरी कहते हैं, कि उसने क्या किया, कुछ किया नहीं और आर्टिस्ट बन गया।
अपने देश, परंपरा के बारे में क्या सोचते हैं आप ?
यूं तो यह देश गुरू परंपरा का देश कहलाता है। पर अब सचेतनता नहीं रही। पश्चिम में लोग इतिहास सचेत हैं। वे लोग हमारी चीजों को भी बचाकर रखे हैं। पेरिस म्यूजियम देखा तो भारत की सुंदरता का पता चला। रूसो का वर्क भी अदभुत था। आज सारा विकास उनका है। हम उनका यूज करते हैं और अहंकार में रहते हैं, क्या कहते हैं, आत्मशलाघा है बस। यूं मैं परंपरा को नहीं मानता, जीवन की गति मुख्य है।
विश्व के रचनाकारों में आपको कौन प्रिय हैं और भारतीय रचनाकार...? भारतीय विचारकों में किससे प्रभावित हुए आप ?
मुझ पर किसी का प्रभाव नहीं। मैं बुद्ध को पसंद करता हूं। अप्प दीपों भव, महान कथन है उनका। महावीर ने, तीर्थंकर ने भी कहा कि किसी की शरण में मत जाओ। किसी का फलोवर नहीं मैं।
दॉस्तोयेवस्की, चेखोव, टाल्स्टाय, पुश्किन आदि को फिल्मों के माध्यम से जाना मैंने। दॉस्तोयेवस्की के लेखन के आगे गीता, बाईबल, कुरान सब फीके लगते हैं मुझे। अपने यहां प्रेमचंद, टैगोर बड़े लेखक हैं, गुलाबदास हैं। गांधी का तो जीवन ही मिरैकल, चमत्कार है। वॉन गॉग ग्रेट आर्टिस्ट था, उसके पत्र बहुत अच्छे लगे। पिकासो की अपनी जगह है। सदियों में पैदा होते हैं ऐसे एकाध।
आपने इंस्टालेशन, चित्रकारी,मूर्तिकारी आदि कला के तमाम क्षेत्रों में हाथ आजमाया है, पर इनमें आपको प्रिय क्या है?
टेराकोटा के काम में, मिटटी के काम में मुझे मजा आता है। फिर ब्रांज पर काम करना भी पसंद है। यूं जो भी काम मुझे अच्छा लगता है मैं करता जाता हूं। यह नहीं सोचता कि लोग क्या कहेंगे, बस करते जाता हूं।
कवि आक्टोवियो पॉज के बारे में बताएं। उनकी संगत कैसी रही।
पॉज बड़ा पोएट हैं। आदमी सिंपल और अच्छा थे। मुझे अपनी बात रखनी नहीं आती थी फिर भी वे मुझे सुनते थे। हंसते भी थे। वे बोलते थे - आई लव इंडिया, कि संभावना है तो इस मुल्क में है। पर आज जो कुछ हो रहा, मुझे तो कोई संभावना नहीं दिख रही अब।
अन्य कलाओं, भारतीय संगीत आदि के बारे में आपकी क्या रूझान है ?
जो भारतीय संगीत को नहीं जानता, वह भारत को नहीं जानता। अमीर खान, किशोरी अमोनकर, अली अकबर, फैयाज खां, ग्वालियर घराना, पटियाला घराना के संगीतकारों को सुनता रहता हूं। कुमार गंधर्व, भीमसेन जोशी, अजीत चक्रवर्ती, कौशिकी चक्रवर्ती, जोहरा बाई सबको सुनता हूं।
आज की कला, कलाकारों और जीवन के दर्शन के बारे में आप क्या सोचते हैं ?
आज अधिकतर कलाकार करियरिस्ट हैं। पर मैं सहजता को मानता हूं। साधो सहज समाधि भली, कितनी बड़ी बात है। सरहपा ने भी सहजयोग की बात की। स्मृति मुख्य है। कला आकलन में, आब्जर्वेशन में है। पश्चिम के लोग कला के कद्रदां हैं, भारत में नहीं हैं वैसे लोग।
हमें प्रकृति के रंग पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए। पूरा देखना होना चाहिए। इसके लिए साधना की जरूरत होती है। मोलोराय कहते हैं - करेज टू क्रियेट। पर आज सब फोटोछाप हो गया है, छिछली बातें हो रही, सब सतह पर तैर रहे।
कला स्वांत:सुखाय होती है। सौंदर्य वह है जो हमें अभिभूत करता है। रचनात्मकता दर्शन के आगे की चीज है, चेतनता सर्वोच्च अवस्था है। खुशी उसका बायप्रेाडक्ट है।
हर बच्च मुझे रचनात्मक लगता है। पर हम उसे दखे नहीं पाते। हमारा समाज बच्चों की क्रियाशीलता को रचनात्मकता को मार देता है। कल्पना बड़ी चीज है, पर हम बच्चे की कल्पना को मार देते हैं। अनुशासन, राष्ट्र यह सब बकवास है। स्कूल से निकलते बच्चों का शोर सुनो, उससे बड़ा संगीत क्या है? हम हिप्पोक्रेट और दिखावे के समाज की उपज हैं।
हम व्यर्थ से घिरे हैं, जीवन से व्यर्थ को हटाओ, इसके लिए बड़ी ताकत चाहिए। पर आज तो जीवन ही नहीं है। जीवन जीओ, तो विजडम मिलेगा। कृष्ण, पिकासो लाखों साल का विजडम लेकर आए थे। आंद्रे बेतें, सार्त्र, कामू ऐेसे रचनाकार हमारे यहां एक भी नहीं। रजनीश बड़ा मेधावी था। वह कहता है - फ्लाई विदाउट विंग्स, वाक विदाउट लेग।
रचना विद्रोह है, रिबेल है। कबीर विद्रोही थे, वैसा बेलाग कोई नहीं बोला। बुद्ध भी नहीं। मीरा, बुद्ध, कबीर सब तीर्थंकर थे। बुद्ध के यहां करूणा की पराकाष्ठा है, क्या बात है, है कि नहीं, क्या ....? कालिदास, लियोनार्दो दा विंची की तरह रचनात्मक कौन है ?