साइकिल— कुछ यादें ...
डॉ.विनय कुमार
साइकिल के साथ बहुत सारी यादें जुड़ी हैं। साइकिल मेरे पिताजी का प्रिय वाहन है। मुझे वे दिन भी याद आ रहे जब हमारे घर में साइकिल नहीं थी और माँगने पर कई लोग देना नहीं चाहते थे। दरअसल सब इस बात से डरते थे कि उनकी साइकिल में कुछ ख़राबी आ जाएगी क्योंकि पिताजी साइकिल बहुत तेज चलाते थे। उनकी यह तेज़ी पचासी की उम्र में भी बनी हुई है। फ़र्क़ बस यह पड़ा है कि पिछले दिनों दो बार गिरने के कारण फ़ैमिली पार्लियामेंट ने उनके साइकिल चालन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित कर दिया है और वह प्रस्ताव क़ानून बनकर लागू भी हो गया है। यह लिखते हुए बचपन का एक प्रसंग याद आ रहा। मेरे दाहिने कान में कई दिनों से दर्द था और (तब भी) मैं स्कूल गया हुआ था। कोई चार बजे के आसपास पिताजी आए और मुझे साइकिल पर बिठाकर ले चले। रास्ते में बताया - डॉक्टर के यहाँ चलना है, खिजरसराय। घंटा भर इंतज़ार के बाद डॉक्टर साहब ने देखा और कह दिया कि नाक-कान-गला विशेषज्ञ से मिलो। पिताजी ने फिर मुझे साइकिल पे बिठाया और गया चल पड़े। मेरे गाँव से गया की दूरी कोई बत्तीस मील है, मगर बाबूजी की तेज़ी ! विशेषज्ञ डॉक्टर से दिखाकर रात के खाने के समय चाचाजी के घर पर, और सुबह साढ़े सात बजे अपने गाँव वापस।
तो साइकिल मेरे लिए पिता की सवारी थी इसलिए मेरा आइडियल। जब भी किसी को पैडल मारते -घंटी बजाते सर्र से निकलते देखता मेरा मन मचल उठता।यह एक संयोग था कि मैं ग्रामीण राष्ट्रीय मेधाविता परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अपने सब डिविज़न के चयनित आवासीय स्कूल दाख़िल हुआ और घर से दूर रहकर एक नयी आज़ादी का मज़ा लेने लगा। दाख़िले के सात-आठ महीने बाद मुझे एक लावारिस साइकिल मिल गयी। इसके पीछे एक मज़ेदार क़िस्सा है। हुआ यह कि एक दिन हमारे हॉस्टल में एक सज्जन दिखे और फिर रोज़ दिखने लगे। दरअसल वे एक कमरे में जम चुके थे। उम्र लगभग पचास साल, मझोला क़द, रंग गोरा और कुछ-कुछ पकी मूँछें नुकीली। उजली क़मीज़-धोती में एकदम सज्जन लगते थे। उन्हें प्रवचन का बड़ा शौक़ था। यूँ तो जो भी पकड में आए उसे थोड़ा सा ज्ञान पिला देते थे, मगर महफ़िल शाम को जमती थी हॉस्टल के गार्डेन में। शाम को वे सिर्फ़ धर्म और इतिहास पर बात करते थे, और वह भी राजस्थान के इतिहास पर। राणा सांगा और प्रताप उनके प्रिय नायक थे। उनके व्यक्तित्व के इस राजपूती रंग ने हमारे स्कूल के प्रिन्सिपल साहब और हॉस्टल के सूपरिंटेंडेंट साहब का दिल जीत लिया था। समझदार लोगों को कारण समझाने की क्या ज़रूरत ? बहरहाल, यह सिलसिला कोई दस दिनों तक चला, और एक दिन सज्जन काफ़ूर। कमरे में एक फटी हुई लुंगी और दीवार से चिपकी राणा प्रताप की एक तस्वीर। जब वे रात तक नहीं लौटे तब हमारे क्षात्र-धर्मावलम्बी गुरुओं का स्यापा चालू हुआ। सज्जन उनलोगों से कोई दो हज़ार ऐंठकर निकल चुके थे। इसी हो -हल्ले के बीच हमलोगों को एक पुरानी ख़स्ताहाल साइकिल दिखी। पता चला, उन्हीं की है। उस वक़्त तो प्रिन्सिपल साहब ने साइकिल में ताला लगवा दिया मगर अगले दिन उसे उसे यह कहते हुए मुक्त कर दिया गया कि कोई चाहे तो कैम्पस के भीतर सीख सकता है।
साइकिल दस्तरस होते ही मुझे पिताजी की याद आई और मैं पिल पड़ा, और जल्द ही सीख भी गया। गर्मी की छुट्टी में जब हॉस्टल से गाँव गया और एक भाई साहब की साइकिल माँग , उस पर दस किलो गेहूँ लाद, बाज़ार से पिसवा कर लौटा तो लगा मैं भी बड़ा हो गया हूँ। मुझे अच्छी तरह याद है कि लौटते वक़्त पिताजी मिले थे। मैंने उन्हें देखकर रफ़्तार बढ़ा दी थी। ठीक ही कहता है मनोविश्लेषण का सिद्धांत कि हर बच्चा अपने बाप जैसा होना चाहता है। मगर कहाँ हो पाता। आज भी पिता मेरे आदर्श ही हैं। मैं उनके शारीरिक सामर्थ्य और आर्थिक-नैतिक संयम को चाहकर भी नहीं साध पाया। मगर उनका एक वाक्य हर रफ़्तार में मेरे साथ रहा है। जिस रोज़ पहली बार साइकिल चलाते देखा था पिताजी ने, उसी शाम रात के खाने के वक़्त कहा था - आराम से चलाना, बहुत तेज नहीं। तेज़ी के क़ायल पिता के इस वाक्य का अर्थ तब समझ में आया जब मैंने अपने पुत्र को साइकिल चलाते देखा और वह भी तेज!
मेरी साइकल तो जल्द ही छूट गयी थी मगर अपने दादाजी पर गए पुत्र अभिज्ञान के साथ यह विरासत बनी है।आईआईटी खड्गपुर से लेकर यूमास ऐमहर्स्ट में पीएचडी करने तक और अब हेल्थ इंस्ट्रुमेंट के रूप में। उसी की वजह से जान पाया कि आईआईटी खड्गपुर में डीन भी साइकल पर ही चलते हैं। ऐमर्हर्स्ट में भी साइकल की महिमा दिखी और स्टैन्फ़र्ड यूनिवर्सिटी में भी। केम्ब्रिज और आक्स्फ़र्ड (यूके) तो ख़ैर हैं ही प्रसिद्ध इस बात के लिए कि कैम्पस में शोर और धुआँ कम से कम हो।
एक बड़ा ही रोचक अनुभव शांति निकेतन का भी है। कई साल पहले की बात है। शांति निकेतन में इंडियन साइकाएट्रिक सोसाइटी के ईस्टर्न ज़ोनल ब्रांच का ऐन्यूअल कॉन्फ्रेन्स था। कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए मुख्य अतिथि का इंतज़ार था। हम जैसे उत्साही लोग बाहर खड़े थे। उम्मीद थी कि कोई सफ़ेद ऐम्बैसडर आकर और उससे सूट-बूट में सजे वाइस चांसलर साहेब परगट होंगे। ऑर्गनाइज़िंग कमिटी के लोग बार-बार घड़ी देख रहे थे और कह रहे थे - He will come on time। मैंने घड़ी देखी - ठीक पाँच, मगर वहाँ कोई गाड़ी आकर नहीं रुकी। एक साइकल ज़रूर रुकी। चालक ने साइकिल स्टैंड पर चढ़ायी, ऑटमैटिक ताला खटाक किया, जेब से रूमाल निकाल पसीना पोंछा और चढ़ गया सीढ़ियाँ। तब जाकर एक आयोजक ने पहचाना और हाथ जोड़े - वीसी साहब , नमस्कार!