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सोमवार, 15 जुलाई 2024

साइकिल मेरे पिता की सवारी थी, इसलिए मेरा आइडियल...

 साइकिल—  कुछ यादें ...

डॉ.विनय कुमार 



साइकिल के साथ बहुत सारी यादें जुड़ी हैं। साइकिल मेरे पिताजी का प्रिय वाहन है। मुझे वे दिन भी याद आ रहे जब हमारे घर में साइकिल नहीं थी और माँगने पर कई लोग देना नहीं चाहते थे। दरअसल सब इस बात से डरते थे कि उनकी साइकिल में कुछ ख़राबी आ जाएगी क्योंकि पिताजी  साइकिल बहुत तेज चलाते थे। उनकी यह तेज़ी पचासी की उम्र में भी बनी हुई है। फ़र्क़ बस यह पड़ा है कि पिछले दिनों दो बार गिरने के कारण फ़ैमिली पार्लियामेंट  ने उनके  साइकिल चालन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित कर दिया है और वह प्रस्ताव क़ानून बनकर लागू भी हो गया है। यह लिखते हुए बचपन का एक प्रसंग याद आ रहा। मेरे दाहिने कान में कई दिनों से दर्द था और (तब भी) मैं स्कूल गया हुआ था। कोई चार बजे के आसपास पिताजी आए और मुझे साइकिल पर बिठाकर ले चले। रास्ते में बताया - डॉक्टर के यहाँ चलना है, खिजरसराय। घंटा भर इंतज़ार के बाद डॉक्टर साहब ने देखा और कह दिया कि नाक-कान-गला विशेषज्ञ से मिलो। पिताजी ने फिर मुझे साइकिल पे बिठाया और गया चल पड़े। मेरे गाँव से गया की  दूरी कोई बत्तीस मील है, मगर बाबूजी की तेज़ी ! विशेषज्ञ डॉक्टर से दिखाकर रात के खाने के समय चाचाजी के घर पर, और सुबह साढ़े सात बजे अपने गाँव वापस। 

तो साइकिल मेरे लिए पिता की सवारी थी इसलिए मेरा आइडियल। जब भी किसी को पैडल मारते -घंटी बजाते सर्र से निकलते देखता मेरा मन मचल उठता।यह एक संयोग था कि मैं ग्रामीण राष्ट्रीय मेधाविता परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अपने सब डिविज़न के चयनित आवासीय स्कूल दाख़िल हुआ और घर से दूर रहकर एक नयी आज़ादी का मज़ा लेने लगा। दाख़िले के सात-आठ महीने बाद  मुझे  एक लावारिस साइकिल मिल गयी। इसके पीछे एक मज़ेदार क़िस्सा है। हुआ यह कि एक दिन हमारे हॉस्टल में एक सज्जन दिखे और फिर रोज़ दिखने लगे। दरअसल वे एक कमरे में जम चुके थे। उम्र लगभग पचास साल,  मझोला क़द, रंग गोरा और कुछ-कुछ पकी मूँछें नुकीली। उजली क़मीज़-धोती में एकदम सज्जन लगते थे। उन्हें प्रवचन का बड़ा शौक़ था।  यूँ तो जो भी  पकड में आए उसे थोड़ा सा  ज्ञान  पिला देते थे, मगर महफ़िल शाम को जमती थी हॉस्टल के गार्डेन में। शाम को वे सिर्फ़ धर्म और इतिहास पर बात करते थे, और वह भी राजस्थान के इतिहास पर। राणा सांगा और प्रताप उनके प्रिय नायक थे। उनके व्यक्तित्व के इस राजपूती रंग ने हमारे स्कूल के प्रिन्सिपल साहब और हॉस्टल के सूपरिंटेंडेंट साहब का दिल जीत लिया था। समझदार लोगों को कारण समझाने की क्या ज़रूरत ? बहरहाल, यह सिलसिला कोई दस दिनों तक चला, और एक दिन सज्जन काफ़ूर। कमरे में एक फटी हुई लुंगी और दीवार से चिपकी राणा प्रताप की एक तस्वीर। जब वे रात तक नहीं लौटे तब हमारे क्षात्र-धर्मावलम्बी गुरुओं का स्यापा चालू हुआ। सज्जन उनलोगों से कोई दो हज़ार ऐंठकर निकल चुके थे। इसी हो -हल्ले के बीच हमलोगों को एक पुरानी ख़स्ताहाल साइकिल दिखी। पता चला, उन्हीं की है। उस वक़्त तो प्रिन्सिपल साहब ने साइकिल में ताला लगवा दिया मगर अगले दिन उसे उसे यह कहते हुए मुक्त कर दिया गया कि कोई चाहे तो कैम्पस के भीतर सीख सकता है। 

साइकिल दस्तरस होते ही मुझे पिताजी की याद आई और मैं पिल पड़ा, और जल्द ही सीख भी गया। गर्मी की छुट्टी में जब हॉस्टल से गाँव गया और एक भाई साहब की साइकिल माँग , उस पर दस किलो गेहूँ लाद,  बाज़ार से पिसवा कर लौटा तो लगा मैं भी बड़ा हो गया हूँ। मुझे अच्छी तरह याद है कि लौटते वक़्त पिताजी मिले थे। मैंने उन्हें देखकर रफ़्तार बढ़ा दी थी। ठीक ही कहता है मनोविश्लेषण का सिद्धांत कि हर बच्चा अपने बाप जैसा होना चाहता है। मगर कहाँ हो पाता। आज भी पिता मेरे आदर्श ही हैं। मैं उनके  शारीरिक सामर्थ्य और आर्थिक-नैतिक  संयम को चाहकर भी नहीं साध पाया। मगर उनका एक वाक्य हर रफ़्तार में मेरे साथ रहा है। जिस रोज़ पहली बार साइकिल चलाते देखा था पिताजी ने, उसी शाम रात के खाने के वक़्त कहा था - आराम से चलाना, बहुत तेज नहीं।  तेज़ी के क़ायल पिता के इस वाक्य का अर्थ तब समझ में आया जब मैंने अपने पुत्र को साइकिल चलाते देखा और वह भी तेज! 

मेरी साइकल तो जल्द ही छूट गयी थी मगर अपने दादाजी पर गए पुत्र अभिज्ञान के साथ यह विरासत बनी है।आईआईटी खड्गपुर  से लेकर यूमास ऐमहर्स्ट में पीएचडी करने तक और अब हेल्थ इंस्ट्रुमेंट के रूप में। उसी की वजह से जान पाया कि आईआईटी खड्गपुर में डीन भी साइकल पर ही चलते हैं। ऐमर्हर्स्ट में भी साइकल की महिमा दिखी और स्टैन्फ़र्ड यूनिवर्सिटी में भी। केम्ब्रिज और आक्स्फ़र्ड (यूके) तो ख़ैर हैं ही प्रसिद्ध इस बात के लिए कि कैम्पस में शोर और धुआँ कम से कम हो। 

एक बड़ा ही रोचक अनुभव शांति निकेतन का भी है। कई साल पहले की बात है। शांति निकेतन में इंडियन साइकाएट्रिक सोसाइटी के ईस्टर्न ज़ोनल ब्रांच का ऐन्यूअल  कॉन्फ्रेन्स था। कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए मुख्य अतिथि का इंतज़ार था। हम जैसे उत्साही लोग बाहर खड़े थे। उम्मीद थी कि कोई सफ़ेद ऐम्बैसडर आकर और उससे सूट-बूट में सजे वाइस चांसलर साहेब परगट होंगे। ऑर्गनाइज़िंग कमिटी के लोग बार-बार घड़ी देख रहे थे और कह रहे थे - He will come on time। मैंने घड़ी देखी - ठीक पाँच, मगर वहाँ कोई गाड़ी आकर नहीं रुकी। एक साइकल ज़रूर रुकी। चालक ने साइकिल स्टैंड पर चढ़ायी, ऑटमैटिक ताला खटाक किया, जेब से रूमाल निकाल पसीना पोंछा और चढ़ गया सीढ़ियाँ। तब जाकर एक आयोजक ने पहचाना और हाथ जोड़े - वीसी साहब , नमस्कार!

सोमवार, 8 जुलाई 2024

हम चोर नहीं हैं

 यात्रा कथा  - यादवेन्द्र


कुछ साल पहले की बात है, मैं रेल के स्लीपर में पटना से श्रमजीवी एक्सप्रेस से मुरादाबाद जा रहा था। मेरी बर्थ किनारे वाली सीट पर नीचे थी और सामने की छह सवारियों में से दो दिल्ली में बच्चों के इलाज के लिए जाने वाले लोग थे जिनके साथ खुद बच्चे भी थे - बार बार की यात्राओं में मैं देखता रहा हूं कि लाइलाज मुश्किल बीमारियों और गाँव में कोई सुविधा न होने पर चमत्कार की आशा लेकर एम्स की ओर रुख करने वालों की संख्या बढ़ रही है। बात तब की है जब पटना में एम्स नहीं खुला था।

एक व्यक्ति करीब साठ साल का था जो अपनी घूंघट निकाले पत्नी को पहली बार दिल्ली ले जा रहा था - लगभग सोई सोई  चल रही थी उसकी पत्नी। उसकी बर्थ ऊपर की थी और बार बार की कोशिशों के बाद भी वह ऊपर चढ़ नहीं पा रही थी - दिल्ली में उसका पति बरसों से रह रहा था और कोई छोटा मोटा काम करता था।उसका पति अपनी पत्नी की यह उछाड़ पछाड़ बड़े निस्पृह भाव से देख रहा था...मदद करना तो दूर, हर बार स्त्री की कोशिश नाकाम होते देख कर दुनिया भर के ताने देता जा रहा था। दोपहर की गर्मी में उसने ठण्डा बेचने वाले से कोक की एक बोतल ली, ज़िद करने पर पत्नी ने बड़ी अनिच्छा से एक घूँट भरी और गला जलने की बात कह के परे हट गयी। बातचीत में खुलासा हुआ कि गांव में रहने वाली उसकी पत्नी को लो बी पी की शिकायत रहती है और पति उसका इलाज करवाने के लिए दिल्ली ले जा रहा था।

एक आठ दस साल के बच्चे के साथ उसका पिता जा रहा था जो उन सब में लगभग वाचाल होने की हद तक सबसे ज्यादा मुखर था .... लो बी पी की बात सुनते एक लाइन से उसने आठ दस दवाइयों के नाम धड़ल्ले से बता दिए और सामने वाले यात्री से पूछने लगा कि उसकी पत्नी कौन सी गोली खाती है। उस आदमी के गोली का नाम न बता पाने पर हिकारत और हैरानी से भरी नौजवान की प्रतिक्रिया से मैं विचलित हो गया - कई बार मैं भी तो अपनी दवाई का नाम नहीं याद रख पाता। तो क्या यह ऐसा गुनाह है जिसके लिए किसी को जलालत भुगतनी पड़े ?पूछने पर उसने बताया कि बिहार शरीफ़ में वह दवा का कारोबार करता है और एक ही साँस में नए नए सरकारी नियम के चलते इस बिजनेस में भारी मुनाफे में कैसी कमी हुई है उसका अर्थशास्त्र भी मुझे और सबको समझा गया। दूसरे बीमार बच्चे के युवावस्था में ही अधेड़ जैसे दिखाई देने वाले मां पिता बेटे की उम्र के अनुकूल शरीर और दिमाग की वृद्धि न हो पाने से दुखी और हताश थे ...गाँव से बार बार पटना आकर काफी पैसा फेंकने के बाद उन्होंने भी दिल्ली जाकर एम्स में दिखाने का हौसला किया था। करीब दस साल का बच्चा खूब सुदर्शन था पर न बोल सकता था न ही स्वयं चल फिर पाता था। अबतक डाक्टर यही बोलते रहे थे कि पंद्रह सोलह की उम्र तक आते आते बच्चे की दशा अपने आप सुधर जायेगी -- शायद दिल्ली के बड़े डाक्टरों से भी ऐसा भरोसा मिलने की आस लिए वे पटना से बाहर निकले थे , बड़बोला दवा कारोबारी उनको एम्स में दिखाने के अपने तजुर्बे और ट्रिक समझा रहा था। शाम होते होते बच्चे को लेकर बाथरूम गए माँ पिता के वहाँ से ओझल होते ही उसने बैठे हुए अन्य लोगों के बीच अपना एक्सपर्ट ओपीनियन दे दिया कि बच्चा बस कुछ दिनों का मेहमान है और सभी डाक्टर सिर्फ़ पैसे चूस रहे हैं और माँ पिता को बेवकूफ बना रहे हैं। बार बार यह भी बोलता कि बच्चे के माँ पिता जान पहचान के होते तो वह उनको असलियत बता देता और खा म खा पैसे पानी में फेेंकने से बचा लेता --- मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह उसकी इंसानियत/ सदाशयता बोल रही है या अधकचरे ज्ञान का दम्भ?

अँधेरा होने के बाद जब बत्ती बुझा कर सोने का उपक्रम किया जाने लगा तो बूढ़े ने नीचे की सीट हथिया ली और बीमार और ऊपर चढ़ने में अबतक नाकाम पत्नी को ऊपर जाकर सोने का फरमान सुना दिया -- हिंया चोरी चमारी के डर हो ,जा ऊपर सूत रह! फिसल कर दो बार गिरने पर भी जब वह ऊपर नहीं चढ़ सकी तो मैने साथ की दूसरी स्त्री से कहा कि हाथ लगा कर उस यात्री को सहारा दे दे। जैसे तैसे वह ऊपर पहुँची ही थी कि पूरे डिब्बे में उसके पति के खर्राटे गुंजायमान होने लगे।

सोते सोते रात में शोर शराबे से अचानक नींद टूटी -- बगल के कूपे से "पकड़ो, चोर.. चोर" का आहवान। आनन फानन में बुझी हुई लाइटें जलने लगीं और जिसको मौका मिला शोर वाले कूपे की ओर लपकता भागता हुआ दिखाई दिया। हम भी दौड़े, हमारे कूपे के सहयात्री भी दौड़े -- तभी गुलाबी रंग की शर्ट पहने एक लड़के पर सबकी नजर गयी जिसको उस कूपे में यात्रा कर रहे औरत मर्द ( गिनती में औरतें ज्यादा थीं ) बुरी तरह से पीटते जा रहे थे। दवा कारोबारी भी हो हल्ला करता हुआ वहाँ पहुँच गया और पिटते बच्चे की बुशर्ट पहचान कर सकपका गया --- उसके मुँह से "मारो साले को ...चोर को भागने मत देना" ... निकलते निकलते बीच में ठहर गया - आधा अंदर आधा बाहर। बिजली का जैसे करेंट लगा हो, उसको एकदम समझ आ गया कि पिटने वाला बच्चा कोई चोर नहीं बल्कि उसका अपना बीमार बेटा ही था। वह बेटे को पूरी तरह से घेर कर जमीन पर लेट गया अपनी अदम्य सामाजिक सक्रियता का प्रमाण देने को लालायित सारी भीड़ को जैसे काठ मार गया हो। देखते ही देखते अपना अपना चेहरा झुकाये हुए लोगबाग अपनी जगह खिसक लिये। जैसे ही अराजक शोर शराबा थोड़ा थमा, बच्चे की बिलखती हुई आवाज सुनायी दी - "हम चोर नहीं हैं, पानी प्यास लगा था उसी को लेने गए थे।" उसके बाद देर तक वह अपने पिता की गोद में दुबक कर रोता रहा और अबतक सबको ज्ञान और तजुर्बे का रौब झाइ रहे दवा कारोबारी के मुँह में बोल नहीं थे -  अपने आपको कोसने के सिवा उसके हाथ में कुछ नहीं बचा था।वह बार बार अपने माथे पर हाथ मार मार कर अफ़सोस कर रहा था कि सफ़र में भला उसको इतनी गहरी नींद क्यों सोना चाहिए था ,बच्चे को कुछ हो गया होता तो ? दर असल हुआ यह था कि प्यास लगने पर ऊपर की बर्थ से बच्चा नीचे उतरा और पिता के पास रखी पानी की बोतल टटोलने लगा। जब बोतल खाली मिली तो उस मासूम ने सोचा क्यों न जा के बाथरूम के पास लगी टोंटी से ही पानी पी ले... टोंटी में भी पानी नहीं था। लौटते हुए अंधेरे में वह अपनी बर्थ भूल गया और बगल के कूपे को अपना समझ कर सोये हुए अन्य यात्रियों को छू कर पिता को ढूँढने लगा। तभी अनजान उँगलियों की छुअन से सोया हुआ यात्री अचकचा कर उठ गया और चोरी या उठाईगिरी की आशंका से चोर चोर चिल्लाने लगा --- एक का चिल्लाना सुनकर दूसरे तीसरे भी चिल्लाने लगे। उस अफरा तफरी में बच्चे की "हम चोर नहीं हैं "की चोट खायी घबरायी आवाज़ किसी को भला कहाँ सुनायी देती।

नींद उचट गयी थी और मन गहरी उदासी से भरा हुआ था... लेटे लेटे सोचने लगा शम्भु मित्रा की 1956 की फ़िल्म "जागते रहो" में तमाम जलालत के बाद प्यासे राजू ( राज कपूर ) को शहर की बाहर से न दिखाई देने वाली दुनिया ने भी ऐसे ही धकियाया और चोर चोर कह के हॉका था....उसके "मेरा कसूर क्या है ?" जैसे निर्दोष और बुनियादी सवाल का जवाब भी किसी आक्रमणकारी किरदार के पास नहीं था।पर फिल्म में इतनी जद्दोजहद के बाद रात के खत्म होते होते नरगिस जैसी सुंदरी सुरीले गाने के साथ पानी पिलाने को मिल गयी थी लेकिन हमारी यात्रा के दौरान प्यासे बीमार बच्चे को दर्जनों घूसों की मार तो मिल गई पर क्षमायाचना और पानी फिर भी नहीं मिला --- मध्यरात्रि में पानी बेचने वाले भी नहीं थे।

पर सफर सिर्फ इस एक हादसे के साथ संपन्न नहीं हुआ --- ऊपर से सब कुछ सामान्य होने के करीब एक घंटे बाद अचानक उठी तेज आवाज़ ने नींद से फिर जगा दिया। अँधेरे में साफ़ साफ़ दिखाई तो नहीं पड़ रहा था पर इतना जरूर समझ आ गया कि पास में कोई स्त्री रो रही है। बत्ती जलाने पर अपने लो बी पी के इलाज को दिल्ली जाती दुखियारी स्त्री फर्श पर बैठी फूट फूट कर रो रही थी ... बच्चे की रुलाई सुनकर उस से रहा नहीं गया और वह उसको चुप कराने और चोट को सहला कर स्नेह देने के लिए नीचे उतर गयी थी और अब उस से पहले की तरह ऊपर की बर्थ पर चढ़ा नहीं जा रहा था। पति को झगझोड़ कर उसने ऊपर चढ़ा देने की बिनती की पर सहारा तो कहां मिलना था उसकी जगह उलाहना और धक्का ही मिला। नीचे सब के फैल कर सोए रहने के कारण कोई जगह बैठने को भी नहीं थी .... और उस दुखियारी बीमार से अपने आप ऊपर की बर्थ पर चढ़ा भी नहीं जा रहा था।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

पहला अध्यापक - सतीश छिम्पा

पापा युद्ध की बातें बताओ, एक मण क्या होता है….

          उम्र छोटी ही थी। शायद दस या ग्यारह वर्ष। घर में शाम का खाना खाते समय सभी परिजन एकसाथ होते थे। हथाई हुआ करती थी। यह 1999 था, और हम सब बच्चे उन दिनों शाखाओं में जाया करते थे, समझ नहीं थी, बस खेलने के ही चाव में ही उड्या.फिरता था। जय राणा प्रताप और भारत माता के नारों के ध्वन्यार्थ नहीं पता थे,  कारगिल की लड़ाई चल रही थी।  मैं दस ग्यारह बरस का रहा होऊंगा,  मगर भारतीय सेना के वीरतापूर्ण कार्यों युद्धों के बारे में जानने, सुनने और पढ़ने की मुझमे जैसे प्यास थी।  

      पिताजी और दादा जी 1962, 1965 और 1971 के युद्धों की बातें बताया करते थे। मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। लगता जैसे मैं भी फौजी ही बनूँगा। पाकिस्तान के साथ युद्ध में लड़ना ही मेरी देशभक्ति थी।  पिताजी बताते कि गंगानगर में अक्सर ब्लैक आउट किया जाता था। उस समय हमारा परिवार गंगानगर में ही रहता था। पूरा शहर अँधेरे में डूबा होता तब ऊपर कोई जहाज चलता हुआ सुनाई देता था। पलायन होते, गरीब गुरबे अपना रोज़मर्रा का सामान उठाकर अपने रिश्तेदारों के यहां या अन्य गांवों में चले जाते थे। 

           मुझे पापा से युद्ध की कहानियां सुनना अच्छा लगता था। बाल मन था तो आरएसएस की शाखा में भी जाने लगा था- वहां भारतीय सेना के साथ साथ हिन्दू सांप्रदायिकों के बारे में भी सुनता रहा। यही वो समय था जब मेरे किशोर हो रहे मन में इस्लाम और मुसलमानों के लिए तात्कालिक हलका अविश्वास घर कर गया।  मेरा परिवार बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय कारसेवक भी बना था। लेकिन जब हम लोग बड़े हुए। साहित्य की राह से दर्शन और राजनीतिक चेतना के विकास की किरण भीतर आयी  तो सब कुछ बदल गया। बेचैनी प्रचंड होकर उठी और किताबें ही किताबें उतरने लगीं भीतर।

       संघ की शाखा के इतिहास बयानी को तब मैं सच समझता था जो अध्ययन और परिपक्वता के बाद दिमाग से निकल ही गया। गुरु गोविंद सिंह के इतिहास को संघी तरीके में बयान किया जाता। वे हर बार पाकिस्तान ये मुसलमान वो, हिन्दू घटा देश बटा आदी फिजूल बातें किशोरों के अपरिपक्व मन में भर देते थे।

   युद्ध कभी किसी का भला नहीं कर सकता। जब तक बहुत जरुरी ना हो, इसका नाम भी अभिशाप है। दोनों तरफ की मेहनतकश आबादी का इससे कोई लेना देना नहीं है, जिन्हें हमारा दुश्मन बनाकर खड़ा किया जा रहा है वे भी मासूम हैं। वे भी शोषित हैं, अपने पेट के दरड़े को भरने के लिए जूण हंडा रहे हैं। वे भी पीड़ित, दुखी वंचित हैं।

         फिर साहित्यिक किताबों से जो राजनीतिक राह और जीवन दर्शन मिला था वो मेरी चेतना पर जमे जाले साफ करने लग गया था और वो ही मुझे मार्क्सवाद तक लेकर गया। और फिर सब कुछ बदल गया।

        पिता जी से अब उनके जीवन संघर्षो की कहानियां सुनने लगा। वे बताया करते, कैसे पुश्तैनी गांव गुसाईंंसर, तहसील डूंगरगढ़ (बीकानेर) से अकाल की मार से बचने के लिए बुजुर्ग सपरिवार गंगानगर में आ गए और कुछ साल संघर्ष और फिर सूरतगढ़ में बसेरा स्थाई हुआ। पापा बताते कि मालू की लकड़ी की टाल पर वे एक आना मण लकड़ी तोड़ा करते थे। कैसे ट्रक पर खल्लासी बने। कैसे रिक्शा और कैसे चौकीदारी और  दिहाड़ी की, पाकिस्तान में भी कोई आना मण लकड़ी तोड़ता होगा, कोई खल्लासी या मज़दूर होगा....कोई बेरोज़गार जीवन से हारा युवक खुद को खत्म करने के असफल प्रयास में टूट चुका होगा.... कोई परिवार अकाल की मार से बचता हुआ कर रहा हॉग कभी पलायन..... वो मेरा दुश्मन तो नहीं ही है। वो तो हमदर्द है।

    .... और एक दिन जब पापा बाजार से घर लौटे तो उनके हाथ में फ़टी पुरानी एक किताब थी, "पंचतंत्र की कहानियां'........

दर्जी का बेटा .1
 
(पापा के लिए.....)

आपने पेट के गाँठ लगाकर रोटी दी जो मानव अस्तित्व का जीवन द्रव्य था।
अमृत थी आपके पसीने के बट बनी दीवार, आंगन और छत
सूरज जब आकाश में पूरे योवन पर होता है
आप  पसीने से लथपथ लगाते हो टाँके
सीलते हो वक़्त की बिवाइयों को
ये तुम्हारी की तुरपाई का ही असर है 
कि अभावों की चादर से मेरी मजबूरीयों का नंगा जिस्म पूरा ढका रहता है
ये किताबें जो तुमने थमाई थीं पापा
मुझे इस लायक ना बना सकीं कि तुम्हारे पेट मे पड़ी गाँठ खोल सकूँ, 
माँ का राजा बेटा भी कहाँ बन पाया मैं
भाई का सुख कहाँ देख पाई बड़ी बहन
कब, बन कर उम्मीद छोटे भाई का 'भाई जी', कहाँ दे पाया मैं अपने होने का हौसला
मेरी हर कोशिश
उस वक़्त दम तोड़ती है जब मैं देखता हूँ तुम्हे भरी दोपहर धूप में
सेठ के थड़े पर अपने ही जिस्म से जूझते
और लोग मुझे कहते हैं कि मैं अभद्र, असभ्य, गलीज़, लड़ाकू, बुरा और बदतमीज और लंपट हूँ
क्या जानें वे कि ज़िन्दगी के अस्तित्व पर अपमान का वार होता है तब जहरीले हो जाते हैं शब्द

तुम पूरी उम्र घर की दरारों को सीलने की कोशिश करते रहे
मेरी हर कोशिश पर हँसता रहा घर
शब्द जब हार जाते हैं तो श्रम की छाँव में बैठ
अपमान का ज़हर पीकर आत्महत्या करते हैं
पापलू, मेरी कोशिशें आपकी तरह बेथकी न रह सकीं आज चूल्हे की बेमणी के पास जो पसरी थी
उन शब्दों की लाश ही थी वो

पर कभी बताना कैसे सह गये आप बिना थके
अभावों के वारों को
सूई कतरनी के ताण कैसे खड़े रहे आप चालीस साल तक
इस टूटते बिखरते घर में---

दर्ज़ी का बेटा . 2

वक़्त की मार से
बेरंग हुए मौसम
और कीकर पर लटके चिड़िया के पंखों
को सहलाने का अब मन नहीं रहा
आते जेठ की इस सुबाह को कह दो
कि मुझे 
सूरज से डर नहीं लगता
भरी दोपहर
सेठ के थड़े पर बैठ
कपड़ों के कारी लगाता
मैं दर्ज़ी का बेटा
अलनीनो के गणित में उलझ
राजभवन का हिसाब नहीं भूलूंगा
कि पिछले हाढ़ में
मैने सिंहासन का खोळ बनाया था

सारी-सारी रात
पुराने ली'ड़ों से माथा मारता मैं
बीस रुपये पीछे
तुम्हारी शतरंज का प्यादा नहीं बनूंगा

....चलो छोड़ो ये हिसाब की बातें
....मै हिसाब मे कच्चा हूँ
जिस पर मायकोवस्की ने लिखी थी कविता

....कविता जो
 अब नाजिम की कब्र पर बैठ
अलापती है मुझ दर्ज़ी का नाम

सुनो...
मैं अब भी फोड़ता हूँ थड़े पर आँखें
क्या कोई लिखेगा
कविता।


​​परिचय
नाम - सतीश छिम्पा
जन्म- 10 अक्टूबर 1988 ई. (मम्मड़ खेड़ा, जिला सिरसा, हरयाणा)
रचनाएं :- जनपथ, संबोधन, कृति ओर,  हंस, भाषा, अभव्यक्ति, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, लोकमत , लोक सम्मत, मरुगुलशन, जागतीजोत, कथेसर, ओळख, युगपक्ष, सूरतगढ़ टाइम्स आदि में कहानी, कविता और लेख, साक्षात्कार प्रकाशित
संग्रह - डंडी स्यूं अणजाण, एंजेलिना जोली अर समेसता
(राजस्थानी कविता संग्रह)
लिखूंगा तुम्हारी कथा, लहू उबलता रहेगा (फिलिस्तीन   के मुक्ति संघर्ष के हक में], आधी रात की प्रार्थना, सुन सिकलीगर (हिंदी कविता) , वान्या अर दूजी कहाणियां (राजस्थानी कहानी संग्रह)
शीघ्र प्रकाश्य :- आवारा की डायरी (हिंदी उपन्यास)
संपादन- 
किरसा (अनियतकालीन)
कथाहस्ताक्षर (संपादित कहानी संग्रह)
भूमि (संपादक, अनियतकालीन)
मोबाइल 7378338065