संदीप निर्भय की कविताओं में एक
तुर्शी है, खट्टा
- मीठापन जो उनकी युवा वय को लेकर सहज है। इनमें रेतीले लोक जीवन को
स्वर देने की बेचैन कोशिशें स्पष्ट हैं। एक ओर जहां वे ग्रामीण
जीवन की विडंबनाओं को दर्ज करते चलते हैं वहीं दूसरी ओर समय के साथ हो रहे बदलावों
को भी चिन्हित करते हैं –
' पर अफ़सोस जब केशर जाटणी मरी
सिवाय कोयल के
हरजस गाने वाली कोई नही थी ...'
राजस्थान की युवा कविता में आज तमाम ऐसे
युवा स्वर सामने आ रहे जो बेहिचक रोजाना की राजस्थानी बोल-चाल की शब्दावली का
सहज प्रयोग अपनी कविता में कर रहे हैं। रेवंतदान, राजेन्द्र देथा आदि युवा कवियों
में लोकभाषा को सहजता के साथ बरतने का हुनर विकसित होता दिखता है। ऐसी कोशिशें हिंदी
को ताकत प्रदान करने वाली हैं। सतीश भी राजस्थानी लोक के शब्दों का प्रयोग बेखटके
करते हैं। कहने की एक अलग शैली भी संदीप के यहां आकार लेती दिखती है –
'हे मृत्यु! तू आये
तो आना
गजबण की तरह
फिर खड़ी होकर
सिराहने मेरे
...हौले
से
कहना कान में—
'छोरे
ओ छोरे
अब चल
ईश्वर मर चुका है।'
संदीप की भाषा में जहां-तहां चमक है जो
आकर्षित करती है। इस चमक को अभी थिरना और भरपूर निगाह में बदलना है, जिसकी आशा उनसे की
जानी चाहिए –
'मेरे प्यारे गाँव! कैसे बताऊँ तुम्हें
कि मेरी सिसकियाँ
और दुनिया भर की सारी कविताएँ
एक वैश्विक महामारी के काले पत्थर पर
सिर पटक रही हैं।'
संदीप निर्भय की कुछ कविताएं -
गाँव,
गली और घर के बारे में सोचता हुआ-1
गाँव—
थार में खड़ी खेजड़ियों पर मिंमझर आ गई
होगी
रबी फ़सलें पक गई होंगी
पखेरू गीत गा रहे होंगे
किसानों,
मज़दूरों के चेहरे चमक रहे होंगे
कई छोरियाँ ब्याह दी गई होंगी
गाँव की गलियाँ
घर-बीती,
पर-बीती और बातों की बातें कर रही होंगी
सुबह—
माँ-बापू ऊँट-गाड़ा लेकर खेत चले गए
होंगे
दादी पूजा-पाठ करने के बाद
गायें दुह रही होगी
अनुमान से अधिक दूध देने पर मुस्कराई
होगी
कुछ गुनगुना रही होगी बिलावना करती हुई
समूचे घर का झाड़ू निकाल रही होगी
बच्चों को स्नान-पानी कराया होगा
उनके बाल सँवारती हुई
माथे और हथेलियों पर चाँद बनाया होगा
अब चूल्हा सुलगाया होगा पीढ़े पर बैठकर
बनाकर बाजरे की रोटी और राबड़ी
पिछ्ले वर्ष बची सांगरी का तड़का लगाया
होगा
इस बीच दादा नें दूजी चाय पी ली होगी
चुनरी का साफा पहनकर
बैठकर तिबारी में
पोते-पोतियों को खिला रहे होंगे या
सुना रहे होंगे बीसवीं सदी की बातें
चिलम पीते हुए
तीन बजे—
गायें घर के सामने खड़ी होकर रँभाती
होगी
दादी ओढ़ना सँभालती हुई
चारपाई से खड़ी होकर
उन्हें अपने-अपने खूँटों से बाँध रही
होगी
फिर नीरा-चारी और पानी पिलाकर
दुधारू गायों के लिए भिगोकर खल
बना रही होगी दुपहर की चाय
चाय पीकर दादा
पड़ोस में ही अब्दुल चाचा के घर चले गए
होंगे
बची ज़िंदगी के ढेरिये पर सपनों का सूत
कातते हुए
बना रहे होंगे बच्चे रेत पर तोता-मैना
आदि
या हँसते,
खेलते,
रेत उछालते हुए
‘क’
यानी कबूतर ‘ख’ यानी खरगोश लिख रहे होंगे
शाम—
माँ-बापू थके-हारे खेत से लौट आए होंगे
जैसे शाम होते-होते लौट आते हैं
पखेरू अपने घोंसले में
गाड़े पर से बोझा उतार लिया होगा
अँगोछे से पसीना पोंछते हुए
बैठ गये होंगे लंबी साँस लेकर चारपाई पर
छुटकी बापू के लिए
ठंडे पानी का लोटा भर ले आई होगी
माँ,
दादी और छुटकी तीनों मिलकर
निपटा लिया होगा घर का सारा काम
दादी भोजन परोस रही होगी
एक जाजम पर बैठ सभी खाना खा रहे होंगे
खाना खाने के बाद
बच्चे सो गए होंगे दादा से लोक-कथाएँ
सुनते हुए
और मैं—
देश के दक्षिण के किसी कोने के किराए के
मकान में बैठा
आधी-रात गए लिख रहा हूँ कविता
गाँव,
गली और घर के बारे में सोचता हुआ
मेरे प्यारे गाँव! कैसे बताऊँ तुम्हें
कि मेरी सिसकियाँ
और दुनिया भर की सारी कविताएँ
एक वैश्विक महामारी के काले पत्थर पर
सिर पटक रही हैं।
केशर जाटणी 2
केशर जाटणी गुलाबी रंग का बूटेदार ओढ़ना
छींट का घेरदार घाघरा पहनकर
बांधकर सिर पर सोने का सात-भरी बोरला
आँखों में काजल या सुरमा भरकर
लेकर हाथों में नसवार की डिबिया
गाँव की गलियों में निकलती
बूढ़े उसे देखकर मूंछो पर ताँव देते थे
लड़के,
लड़कियां दण्डवत करते
और आस-पास गाँवों की सारी औरतें
उससे बातें करना अपना सौभाग्य मानती थीं
आदमी के जन्म से लेकर मरण की यात्रा तक
और तीज-त्यौहार के सारे गीत जानती
कहते हैं कि केशर जाटणी को
पाँच सौ से ज़्यादा गीत
और सौ से ज़्यादा लोककथाएँ मुख जुबानी
थी
गाँव के किसी घर में कोई मांगलिक कार्य
या देवताओं की रात जगानी
या हरजस गाना होता
केशर जाटणी को बुलावा दे भेजते
दस-दस कोसों से बुलावे आते थे
एक कहने पर ही वह
अपनें घर का काम काज बीच में छोड़ चली
जाती थी
आँगन के बीचों-बीच बैठकर केशर जाटणी
नसवार सूंघकर और रखकर ठुड्डी पर हाथ
छेड़ती जब गीतों का राग
उसके चारों ओर घेरा डालकर बैठी औरतें
उसकी राग में राग मिलाती
बगैर किसी वाद्ययंत्र के
मीठे गीत सुन-सुनकर
औरतों के ओढ़नों के फूल सजीव हो जाते
मुरझाये हुए चेहरे खिल-खिल जाते
लड़कियों की ज़वानी उफान मारती
बूढ़ो की पगड़ियाँ थिरकने लगती
पेड़-पौधों की डालियाँ लचक-लचक जाती
गुंबद पर बैठी कोयल शरमा-शरमा जाती थी
और मरे-खपे के पीछे हरजस गाती
तो उसे नरक न मिलकर
स्वर्ग के द्वार के पट खुल जाते थे
पर अफ़सोस जब केशर जाटणी मरी
सिवाय कोयल के
हरजस गाने वाली कोई नही थी
और गाँव उसके फूलों के साथ
उम्र-भर ख़जाने की पोटली गंगा में बहा
आया था।
खेत 3
किसानों के पसीने की बूँदें
गिरती है जब
प्यासी-तपती
धरती पर
तो रेत में मिलकर खेत हो जाती है।
मुस्कुराना 4
रोटी सेंकती हुई जब
उसनें पूछा
'है..
ओ..
चटनी कैसी बनीं है?'
तो मैंने कहा
'तेरी
तरह बहुत तीखी'
मेरी बात सुनकर उस वक्त
उसका मुस्कुराना
घीलोड़ी से
चटनी में घी रीताने जैसा था।
किसान की औरत 5
किसान की औरत जब
दूह रही होती है
गाय,भैंस या बकरी
तो दूध की धार
...रचती
है
दुनिया का महानतम संगीत
किसान की औरत जब
गोबर का बठळ भर
थाप रही होती है थेपड़ियाँ
तो थेपड़ियों में
...समेटती
है
दुनिया-भर की सभी औरतों का दुख
किसान की औरत जब
कर रही होती है
खेत में लावणी
तो चूड़ियों की खनखन
...लिखती
है
कवियों की पत्नियों की विरह वेदना
किसान की औरत जब
लगाती है माथे पर बिंदी
और भरती है
मांग में सिंदूर
तो धरती हो जाती है सुहागीन
किसान की औरत जब
पसीने से
लगा रही होती है आटा
तो तवे पर होता है
दुनिया-भर के सभी भूखों का रुदन
और किसान की औरत जब
सेंक रही होती है रोटी
तो रोटी की भाप
धुंवे का थाम हाथ
खड़ी हो जाती है संसद में जाकर नंगी।
यह बेटी किसकी है 6
अब जब ससुराल से बेटी आती है मायके
तो बस स्टैंड उतरकर
हाथों में थैला लिए
चली जाती है चुपचाप
गुवाड़-गली से होती हुई घर की तरफ़
गाँव नहीं पळूसता बेटी का सिर
और कहाँ पूछता है
ससुराल वालों के हाल-चाल
मेह-पाणी,खेती-बाड़ी के समाचार
भतीजे सामने दौड़कर
प्रणाम करते हुए
नहीं लेते हैं
बुआ के हाथों में से थैला
और थैले में
कहाँ खोजते हैं नींबू रस की फांक
गली के दूसरे,तीसरे मोड़ से
बगैर कुछ बोले
गुज़र जाती है सहेलियां
कुहनियां मारती हुई
कहाँ करती है हंसी-ठिठोली
घर आकर माँ-बापू को प्रणाम करती
साड़ी के पल्लू को सिर से हटाती हुई
बैठ जाती है
लम्बी सांस लेकर खटिया पर
भाई सिर पळूसकर
चला जाता है काम से कहीं बहार
और बापू ताश खेलने के लिए
चले जाते है गुवाड़ में
फिर माँ-बेटी
करती रहती है दुःख-सुख की बातें
उसे आये चार-पाँच दिन ही तो हुए
कहाँ गई है गाँव की औरतें
विदाई गीत गाती हुईं
सिवाय माँ के
बस स्टैंड तक छोड़ने के लिए
खड़ी रहती है वो मौन धारे
बस के इंतज़ार में
सिर्फ़ एक डोकरा खाँसता हुआ
किसी लड़के से पूछता है
"यह
बेटी किसकी है?"
मोरनी की तरह आँसू ढळकाती
उनके तरफ़ देखती
और साड़ी के पल्लू को
सिर पर लेती हुई चढ़ जाती है बस में।
गंगा में छोड़कर आऊंगी 7
उन दिनों मैं कोलकाता था
जिन दिनों
रामू काको कर्ज़ के मारे
खेत की झोंपड़ी में
जहर पीकर
कर ली थी आत्महत्या
उन दिनों मैं आसाम था
जिन दिनों
गली में छाणां चूगती
छोरी के साथ
हुआ था बलात्कार
गुवाड़ एकदम चुप रहा
उन दिनों मैं पुणे था
जिन दिनों
अब्दुल चाचा की गाय
अर्धरात्रि में
ले गया था कोई
खूँटें से खोलकर
उन दिनों मैं दिल्ली था
जिन दिनों
ऊँट-गाडे पर लादे सामान
रो रहे थे
कई दलित परिवार
उन दिनों मैं हिसार था
जिन दिनों
खेताराम को
अपनें बापू के ओसर के लिए
बेचना पड़ा
गाजर,बोरिया के भाव
दसेक बीघा खेत
उन दिनों मैं मारवाड़ जंक्शन था
जिन दिनों
गिर गये थे
अडाण से तीन मजदूर
गाँव नहीं गया उनके पास
जब आज मैं घर आया
तो देखता हूँ
गा रहे थे मोर शोकगीत
गाँव की जल चुकी चिता में
विधवा बुआ
चुग रही थी अस्थियाँ
मुझे देखकर बोली-
“आओ..बेटा..आओ
अब इन्हें
गंगा में छोड़कर आऊंगी
क्या तुम मेरे साथ चलोगे.?”
नारे लगाती भीड़ 8
शहर था
लोग थे
भोग था
आग थी
धुआँ था
राख थी
खून था
चीत्कार थी
आँसू थे
और नारे लगाती भीड़
नीड़ में
पनपते प्रेम को
अनाथ कर आगे बढ़ गई।
रोटी-9
पिछले कई महीनों से वह
बनाता रहा है रोटी
पर बहन की तरह
गोल-गोल रोटी बेलकर
अँगुलियों से तवे पर
घुमा-घुमाकर
फुला-फुलाकर कहाँ सेंक पाया है
जैसे-तैसे बेलकर रोटी
सेंकता जब तवे पर
कभी अधकच्ची रह जाती
कभी जल जाया करती
आज माँ की तरह उसने
बाएँ पाँव के घुटने पर
रख दी ठोड़ी और
कुछ सोचता, गुनगुनाता हुआ
गोल-गोल रोटी बेल दी है
फुला-फुलाकर सेंक दी है
और खिड़की पर चोंच मारती
गौरैया को देखते हुए
हौले-से कहा—
बापू ! अब तेरा कपूत बेटा
बेरोजगार नहीं रहा
घर की थाली में
लगावण के साथ
रोटी परोसने लायक हो गया है।
धरती के गीत 10
जीवन के हवन में जब
दे रहा होता हूँ
पसीने की बूँदें की
...आहुति
तो उस वक़्त मैं
मंत्रोच्चार नहीं करता
न ही स्मरण करता हूँ
इष्ट देवता का
और न ही लेता हूँ
पहली प्रेमिका का नाम
बल्कि बीड़ी पीता
जूती में से
रेत झाड़ता हुआ
गा रहा होता हूँ
हल की नोक पर ठहरी धरती के गीत।
मृत्यु 11
हे मृत्यु! तू आये
तो आना
गजबण की तरह
फिर खड़ी होकर
सिराहने मेरे
...हौले
से
कहना कान में—
'छोरे
ओ छोरे
अब चल
ईश्वर मर चुका है।'
संदीप निर्भय
गाँव-पूनरासर, बीकानेर (राजस्थान)
प्रकाशन-
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