सुदर्शन शर्मा की कविताओं में भाव पक्ष से ज्यादा उनका ज्ञान पक्ष प्रबल दिखता है। अपने ज्ञान की बदौलत वे सफलता से परकाया प्रवेश करती हैं और उसे जान-समझ कर उसके उजले-काले पक्ष को अभिव्यक्त करने की कोशिश करती हैं। अपनी इस क्षमता के बल पर परंपरा की रूढियों से टक्कर लेती उसे चुनौती देती दिखती हैं वे।
सुदर्शन शर्मा की कविताएं
डेटाबेस
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आंकड़ों में शुमार नहीं होतीं
ख़ुदक़ुशी कर चुकीं
बहुत सी औरतें
औरतें
जो ख़ुद को मार कर
सजा देती हैं बिस्तर पर
पूरे सोलह सुहाग चिन्हों के साथ
औरतें
जो जला कर मार डालती हैं ख़ुद को
रसोईघर में
और बेआवाज़ पकाती रहती हैं
सबकी फरमाइश के पकवान
औरतें
जो लांघ गई थीं कभी
खींची गई रेखाएँ सभी
प्रेम के अतिरेक में ....
और डूब मरी थीं
रवायतों के चुल्लु भर पानी में
अब भी तैरती रहती हैं
घूरती आँखों के समंदर में
सुबह से शाम तक
मुर्दा रूहों पर
तेजाब से झुलसे
चेहरे चढ़ाए औरतें
कीमत की तख्ती थामे
मण्डी में खड़ी
कलबूत औरतें
बहुत-बहुत सारी
आत्महत्यारिन औरतें
जिनकी कभी कोई गणना नहीं हुई
मुकदमे दर्ज हुए
पर सुनवाई नहीं हुई
सज़ा हुई
पर रिहाई नहीं हुई
शायद रेल की पटरी पर लेटी,
दरिया के किनारे खड़ी
या
माचिस घिसने को तैयार
औरत के पास है
इनका डेटाबेस।
देह के अनुबंधित श्रमिक
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प्रेम की ऋतु घटने से पूर्व ही
हम में से अधिकांश
मन के ऊष्ण महाद्वीप तज कर
देह के ध्रुवों की ओर कूच कर चुके होते हैं
हम,
देह के अनुबंधित श्रमिक,
मन तोड़ मेहनत कर उगाते हैं
उम्र के चंद बेस्वाद बरस
बरसों बरस में
हम इतने दूर निकल जाते हैं
कि राह में ही खो जाती हैं
सही पतों पर भेजी
मन की आधी चिठ्ठियां
बीच के सात समंदर लांघ
जब प्रेम के घटने का प्रथम संवाद लिये
पहुँचती है
कोई पाती
तो हम उसे यों देखते हैं
जैसे तेहरवीं के बाद मिली हो
किसी बेहद अज़ीज़ की वफ़ात की ख़बर
स्त्री के भीतर की कुंडी
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एक स्त्री ने भीतर से कुंडी लगाई
और भूल गयी
खोलने की विधि
या कि कुंडी के पार ही जनमी थी
एक स्त्री
उस स्त्री ने केवल कोलाहल सुना
देखा नहीं
कुछ भी,
नाक की सीध चलती रही
जैसे कि घोड़ाचश्म पहने जनमी थी वो स्त्री
जैसे कोई पुरुष जनमा था
कवच,कुंडल पहने
दस्तकों ने बेचैन किया
तो सांकल से उलझ पड़ी वो स्त्री
इस उलझन पर बड़ी गोष्ठियां होती रहीं
पोप-पादरी
क़ाज़ी -इमाम
से लेकर
आचार्य-पुरोहित
ग्रह नक्षत्र
सब एकत्रित हुए
उन्होंने कहा
करने को तो कुछ भी कर सकती है
किंतु सांकल से नहीं उलझ सकती
वो स्त्री
उस स्त्री के भीतर की सांकल पर
संस्कृतियों के मान टिके हैं
और बंद कपाट के सहारे खड़ा है
गर्वीला इतिहास
उन्होंने कहा
ईश्वर को ना पुकारे वो स्त्री
वो नहीं आयेगा
क्योंकि एक स्त्री के भीतर की बंद कुंडी
'धर्म की हानि' नहीं है
इस समय
मैं भीतर हूँ उस स्त्री के
और जंग खायी कुंडी पर डाल रही हूँ
हौसले का तेल,
मैं सिखा रही हूँ
एक स्त्री को भीतर की कुंडियां खोलना
क्या आपको आता है
किसी स्त्री के भीतर जा कर
बंद कुंडियां खोलने का हुनर?
जूलियट की पाती
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यह प्रेम का संक्रमण काल है रोमियो
इस समय मुहावरों में तुम्हारी उपस्थिति घातक हो सकती है
हम दोनों के लिये
चौतरफा घात सहने को बाध्य है
शब्दकोष के खूंटे से बंधा असहाय प्रेम
प्रेम के पर्यायवाचियों में से
घड़ा,बालकनी,
दरिया,सहरा
जैसे कतिपय शब्द
निरस्त कर दिये गये हैं
वे प्रेम को आत्मघाती हमलावर कहते हैं
और सूंघते रहते हैं इसे
संस्कृति के सार्वजनिक स्थानों पर
अर्थों के लिये शब्द ढूंढते खंगाल डालते है सारा शब्दकोष
और बना देते हैं नाम को मुहावरा
मुहावरे को नाम
मैं भी खंगाल रही हूँ इन दिनों
अलमारियां, आले,गमले और गुलदान
वे मेरे हाथ की किताब,
मेरे पालतू की नस्ल
और मेरे अंतःवस्त्रों की राष्ट्रीयता से तय करेंगे
कि मुझे तुमसे प्रेम करना है
या किसी और से
मैं बालकनी का दरवाज़ा
स्थायी रूप से बंद करने की भी सोच रही हूँ
प्रेम, जैसा कि तुम्हें ज्ञात है,
शातिर होता है
शब्दकोष का खूंटा तुड़ा भाग लेता है
और चढ़ बैठता है
प्रेमिकाओं के कमरों की बालकनियों में
यह मुहावरों मे से मेरा,तुम्हारा और बालकनी का नाम निकाल लेने की कवायद भर है
वैसे मैं जानती हूँ
वे प्रेम से डरते हैं
बेहद
गोपनीय सूचनाएँ
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मुझ पर आरोप है
कि मैंने सार्वजनिक की हैं
ईश्वर से संबंधित
कुछ अति संवेदनशील
और गोपनीय सूचनाएँ
मसलन मैंने लोगों को इत्तला दी
कि अर्से से
किसी जानलेवा रोग से ग्रस्त है ईश्वर,
और अपनी आख़िरी साँस से पहले चाहता है
तमाम इबादतगाहों को
तालीमी इदारों में तब्दील करना,
जहाँ मुहैया हो
सबक आदमियत का
जाने से पहले
ईश्वर बदलना चाहता है
परिभाषा
जायज और नाजायज की,
और करना चाहता है
अदला बदली
कुछ तयशुदा किरदारों की
ईश्वर घिरा है अपने नुमाइंदों से
जो चाहते हैं
शीघ्र मर जाए ईश्वर
इस लिए बंद कर दिए गए हैं
सभी रास्ते 'उसके' घर तक,
तुम्हारे साथ साथ
वैद्यों हकीमों के लिए भी
संभव है
आरोपों के चलते
जलावतन कर दिया जाऊँ मैं,
और सिद्ध होने पर
वंचित कर दिया जाऊँ
अपने नाम और उपनाम से भी
दोस्तो!
मेरी कलम से रखना तुम
पहचान मेरी
यदि
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किसी टूटी हुई स्त्री ने आकर
तुम्हारे कंधे पर सर रख दिया हो कभी चुपचाप
तो बेहिचक बताना
कि संसार के सबसे भरोसेमंद पुरुष हो तुम
यदि कोई रोता हुआ बच्चा
मुस्कुरा दिया हो अचानक
तुम्हें देख कर कभी
तो कह देना
कि संसार का सब से निश्छल चेहरा तुम्हारा है
यदि कोई परास्त पुरुष
तुम्हारे पास आकर टूट गया हो
और बह गया हो
फूटफूट कर
तो कहना
कि संसार के सबसे गहरे मित्र होने के पात्र हो तुम
यदि तुम्हें नहीं सूझे कभी भी, कोई भी सवाल उसके लिए
जिसके प्रेम मे हो तुम
तो समझ लेना
कि संसार के सबसे सच्चे प्रेमी हो तुम
यदि अपनी भूख से अधिक एक दाना बेचैन कर दे तुम्हें
और तुम निकल पड़ो उसके असली हकदार को ढूंढने
और ढूंढे बिना लौट न पाओ वापस थाली पर
तो मनुष्यों में सर्वाधिक मनुष्य कह देना अपने आप को
बेहिचक
स्त्री का स्त्री होना
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सभ्यताओं के विकास क्रम में
बहुत सी बातें गोपनीय रखी गयीं
स्त्री का स्त्री होना उनमें से एक बात थी
स्त्री को स्त्री बनाती सभी बातों
और घटनाओं को ढांपने के लिए
स्त्री के स्त्री होने के संदर्भ में कुछ तथ्य गढ़े गए
और उन्हें स्त्री की स्त्री होने पर अबरी की तरह चढ़ा दिया गया
ऐसा नहीं था कि स्त्री को
स्त्री बनाते तथ्य विद्रूप या भौंडे थे
वे सभी घटनाएं सुंदर और दिव्यता से भरी थीं
जाने कौन लोग थे जो सुंदरता और दिव्यता से डरते थे
निश्चय ही वे बहुत कुरूप और ईर्ष्यालु रहे होंगे
झुंड में आदमी
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आजकल मुझे जो भी आदमी मिलता है,
झुंड में मिलता है
कवि आदमी,
पागल आदमी,
अभियंता आदमी,
दुकानदार आदमी,
इनके झुंड के झुंड मुझे घेर लेते हैं
मैं किसी भी प्रकार के आदमी से मिलना चाहूं ,
आदमी अकेले में मिलने से मना कर देता है,
साफ़
मुझे बहुत से काम हैं
अकेले आदमी से
अकेले कवि से मुझे लिखवानी है एक घटनाजयी कविता,
जिसे हर घटना के बाद
बिना लय और राग बदले
सस्वर पढ़ा जा सके
पागल आदमी यदि मिले अकेले में
तो एक घुटने पर बैठ कर,
हाथ में ब्लू लिलि का गुच्छा थाम
कहना चाहूंगी,
कि इस विकट समय में
जब राजा का समूचा तंत्र
परिभाषाओं को बदलने की गुप्त नाइट ड्यूटी करके
इतनी बोझिल आंखें लिए काम पर पहुंचता है,
कि हत्या को लिख देता है सेवा
और बलात्कार दर्ज कर देता है 'प्रशासन को धन्यवाद' के खाने में,
क्या वो तैयार है
मुझसे निस्वार्थ प्रेम करने का जोखिम उठाने को?
प्रेम के मामले में पागल आदमी
मेरी एकमात्र उम्मीद है अब
मगर समस्या ये है श्रीमान
कि आदमी अब अकेले में मिलता ही कहां है?
आदमी या तो झुंड में मिल रहा है
या आदमी के अंदर झुंड मिल रहा है
बैरकों के नीचे कहीं
आदमी को झुंड बनाने के कारख़ाने जारी हैं
'आदमी को झुंड में कौन तब्दील कर रहा है?'
इस बात पर जब जब तहकीक़ात की बात चलती है
आदमियों का एक नया झुंड सामने आ खड़ा होता है
और झुंड में आदमी
झंडा, झुनझुना या झकझक
कुछ भी हो सकता है
पढ़ते पढ़ते आपके मन में मुझसे मिलने की इच्छा जो इच्छा जागी है
वो ख़ासी दिलचस्प है
मैं तो ख़ैर मुद्दत से आपसे मिलने का मुंतज़िर हूँ
तो चलिए
पहले झुंड से आदमी बनने की ओर बढ़ते हैं
शायर ने भी कहा है कहीं
'ज़िंदा रहने के लिए...
इक मुलाक़त ज़रुरी है.
पते
__________
इस समय
जब सबसे ज़रूरी है पते एकत्रित करना
हम भाषा पर खर्च हो रहे हैं
रोज़ाना
ज़रा ज़रा
भाषाएँ उद्वाचित कर ही ली जाती हैं
सभ्यता के किसी मोड़ पर
संप्रेषण के लिए ज़्यादा ज़रूरी होते हैं
पते
पते के अभाव में
लिफाफों या डायरियों में
उम्र बिता देती हैं
हाफ विडो चिठ्ठियाँ
या पहुँच जाती हैं
गलत लेटर बॉक्स में
कभी
कुछ सही लोग खोल लेते हैं गलत लिफाफे
और बांचते रहते हैं झूठ
ता उम्र
फिर एक दिन
गल कर झड़ जाती हैं
उनकी ज़ुबानें
कभी
कुछ गलत लोगों के हाथों
बंधक हो रहती हैं सही चिठ्ठियां
और फिरौती की शून्यता में
हलाक़ कर दी जाती हैं
घच्च से
चिठ्ठियों की भाषा और मजमून
सदा से तय है
पते खोजने की यात्रा पर भेजे गये
हम भाषा खोजने लगे
और पते खो बैठे
सोचो
कि जब भाषा नहीं थी
तब भी लिखी जाती थीं
चिठ्ठियाँ
और पहुँचती थीं सटीक जगह
क्योंकि तब पते
पता रहते थे।
प्रार्थनाओं से बचना
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दुखों में बचे रहना चाहते हो
तो प्रार्थनाओं से बचना
प्रार्थना रत हथेलियों के बीच से बह जाता है
एक हिस्सा जुझारूपन
एक हिस्सा जिजीविषा
प्रार्थनाएं प्रमेय हैं
जो सिद्ध करती हैं
कि तुम्हारे स्व की परिधि से बाहर स्थित है
सत्ता का अंतिम केंद्र
प्रार्थनाएं तुम्हें कातर बनाती हैं
और तुम खो बैठते हो
जन्मसिद्ध युयुत्सा,
भूल बैठते हो
गर्भ की अंधकोठी की
मूक प्रतीक्षा,
विस्मृत कर जाते हो
गर्भ भेद नीति
चरण प्रति चरण
प्रार्थनाएं रोक लेती हैं
व्यूह द्वार पर तुम्हारा रथ
और तुम चाहने लगते हो
कोई और लड़े तुम्हारी ओर से
याद रखो
तुम्हारे दुख केवल तुम्हारे हैं
आदि से अंत तक
याद रखो
जिजीविषा के समानुपातिक होते हैं दुख,
हमेशा
याद रखो
प्रार्थनाएं तीसरा चर है
यह गड़बड़ा देंगी
दुख और जिजीविषा के समस्त समीकरण,
प्रार्थनाएं
खींच लेंगी पौरुष का समस्त ओज,
एक दिन
मान लोगे तुम स्वयं को
नपुंसक,
निर्बल तुम
भेंट कर दोगे
अपना मस्तक
एक दिन
दुख को
इसीलिए
दुखों में
बचे रहना चाहते हो
तो प्रार्थनाओं से बचना
हमेशा
*जन्म*- 20 जून 1969
मूल रूप से पिंड मलौट, ज़िला मुक्तसर,पंजाब से।
फिलहाल श्रीगंगानगर (राजस्थान) में निवास
*शिक्षा* -
अंग्रेज़ी, हिंदी और शिक्षा में स्नातकोत्तर।
*वृत्ति* -अध्यापन
*पुस्तक* - 'तीसरी कविता की अनुमति नहीं' पहला और एकमात्र काव्य संग्रह बोधि प्रकाशन , जयपुर की 'दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना - 2018 के अंतर्गत प्रकाशित ।
हिंदी पंजाबी की कुछ पत्रिकाओं, कुछ सांझा संकलनों और ब्लाग्स पर कुछ रचनाएं प्रकाशित।