झटपट फौरी तौर पर कवि होने की हलतलबी से भरे इस समय में प्रदीप सैनी की कविताएं हमें जीवन संघर्ष में उतरने, उसे जानने-समझने और फिर दर्ज करने का हौसला देती हैं, यह बात आश्वस्त करती है।
प्रदीप सैनी की कविताएं
मुआफ़ी
यूँ तो मुआफ़ी माँगना भी अब
मुआफ़ कर देने की तरह भरोसे के लायक नहीं रहा
फ़िर भी ये मुआफ़ी
हरगिज़ उन रिश्तों के लिए नहीं माँग रहा
जिनकी यादों का कोलाज भर हूँ मैं
और जिनसे होकर तुम तक पहुँचा हूँ
यह मुआफ़ी मैं अपने अभ्यस्त संवादों
और भाव भंगिमाओं के लिए माँग रहा हूँ
जिनमें दिख पड़ता कुछ भी नवीन
किसी पुरातन का ही संस्करण है
और इसलिए भी कि तुमसे कहने को मेरे पास
अब ऐसा सच बचा है जो किसी झूठ का ही हमशक्ल है
प्रेम में कच्चा होना ही दरअसल सच्चा होना है
मुआफ़ करना मुझे तुम
मेरे निरंतर अभ्यास ने जबकि
प्रेम को कला में बदल दिया है।
दुःख का एक ताप होगा उनके भीतर
उनके पैरों में बेड़ियाँ डाली हमने
और रास्तों में दीवारें खड़ी की
उन्हें सदा के लिए रोकना हमारे लिए आसान नहीं था
तो कहने को नए रास्ते दिए उन्हें
जो दरअसल अंतहीन अँधेरी सुरंगें थीं
हमारी नज़र उनके चमकते हुए नीले पर रही
जिससे हमारा पीलापन हरा हो सके
इस तरह उनके नीले से अपने पीले को हरा किया हमने
उनकी गति से चमक चुराकर हमने
अपनी दुनिया को रोशन किया
उनके किनारे जन्मी हमारी सभ्यताएँ
जिन सभ्यताओं ने उन्हें किनारे पर ही रखा
देवी कहा उन्हें हमने
और अपनी सभ्यता से निकलता गन्दा नाला
उनके भीतर छोड़ दिया
उनमें एक डुबकी लगाने का पुण्य लूटा
और अपने पापों से उनके घाट रंग दिए
जिसे वे ढोती रहीं उम्र-भर भीतर लिए-लिए
कितनी जगहों से होकर गुज़रीं वे
कोई जगह मगर उनकी न हुई
दुःख का एक ताप होगा उनके भीतर
वे अपने ही पानी में सूखती चली गईं
हमें अब याद नहीं पड़ता वे नदियाँ थीं या औरतें।
इलाज
मेरा फ़ोन मेरी तरह रह-रहकर अटकता था
उसके पास ज़रूरत से ज्यादा स्मृतियाँ हैं
ऐसा बताया एक फ़ोन मरम्मत करने वाले ने
इतनी कि वे उसका दिमाग ठस कर देती थीं
मैंने फ़ोन को सही करने का जतन डरते हुए पूछा था
उसने कहा कि इसे दरुस्त किया जा सकता है
बशर्ते हम मिटा दें इसकी फ़िज़ूल स्मृतियाँ
उपयोग में लाए जा सकने वाले
लगभग स्मृतिहीन फ़ोन के साथ
वापिस घर लौटकर मैं एक कॉल करता हूँ
और मनोचिकित्सक से ली हुई
अपनी अपॉइंटमेंट रद्द कर देता हूँ।
लतीफ़ा बनाकर मार डाला
ये मूर्खता इतिहास में दर्ज़ है कि उन्होंने
उसके विचारों को मारने के लिए
उसे गोली से मार दिया
गोली से मरकर वह ज़िंदा है आज भी
विचार गोली से भला कहाँ मरते हैं
मूर्ख हमेशा मूर्ख ही रहेंगे
ऐसा सोचना भी एक मूर्खता है
वे अब चालाक हैं
शातिर हैं
अब वे उसे झूठ से
मक्कारी से
प्रपंच से मार रहें हैं धीरे-धीरे
हमने अगर ऊँचा नहीं किया प्रतिरोध में अपना स्वर
बेनकाब नहीं किए उनके झूठ, मक्कारी और प्रपंच
तो आने वाला इतिहास करेगा दर्ज़ यह भी
कि गोली से नहीं मरा था विचार जो
उन्होंने उसे लतीफ़ा बनाकर मार डाला।
मुफ़्त का टिकट
हम उजालों से थके हुए और
अपने हल्केपन से बेज़ार
किसी रोमांच की तलाश में भटक रहे थे
मुफ़्त का टिकट लेकर हम
इस अंधकार में बस एक ऐसी फ़िल्म देखने आ गए
जिसका अंत टिकट के पीछे पहले से ही लिखा हुआ था
जिज्ञासा इतनी विकट थी कि हमने
यह जान लेने में एक उम्र खपा दी
कि वह अंत जो टिकट पर लिखा हुआ था
और जिसे हम बीच में भूल जाते थे
हम तक कैसे पहुँचा ?
इस तरह मुफ़्त का ये टिकट बड़ा महंगा पड़ा हमें।
एक ज़िद्दी धुन
एक टूटी हुई धुन घुमड़ती है रह-रहकर
कोई सिरा उसका कहीं नहीं मिलता
वही बेतरतीब ज़िद्दी धुन लौटती है बार-बार
कहाँ सुना था इसे कुछ याद नहीं पड़ता
ऐसे जैसे ठीक से लग नहीं रहा हो स्टेशन
बीच में ही छूट-छूट जाती हो जैसे आवाज़
मुझे पकड़ना है इस धुन को समय रहते
ये बाजा भी नित पुराना पड़ रहा है।
कितने कम हैं कवि
कवि वो जादूगर है जो
आँसू, पसीने और लहू को बदल सकता हो स्याही में
जो सपनों, हक़ीक़तों, हताशाओं और उम्मीदों को
इस स्याही में डुबोकर लिखता हो कागज़ पर
और एक कविता छपती हो आपके भीतर
लेकिन वो जादूगर कवि नहीं
जो ख़रगोश जैसे मुलायम
कबूतर जैसे फड़फ़ड़ाते
या रेशमी रुमाल जैसे चमकते शब्दों को
अपनी टोपी में डाल
उसमें से एक कविता निकाल लेता हो
जिसके प्रदर्शन को हैरत से ताकते हुए आप
ताली बजाते-बजाते लौट आते हों
ऐसी नज़रबंदी से बाहर खाली हाथ
कितने कम हैं कवि
और यह दुनिया मेरे जैसे जादूगरों से भरी पड़ी है।
हाथों-हाथ बिकती त्रासदी
तुम पानी की शुद्धता पर मुग्ध होकर
ढक्कन हटा मिटाते हो अपनी प्यास
उसके इतना पारदर्शी होने के बावजूद
तुम देख नहीं पाते हो उसमें
डूबकर मर गई गिरवी रखी हुई किसी की प्यास
पानी का बोतल में बंद होना
हमारे युग की हाथों-हाथ बिकती त्रासदी है।
घर की छाँह
[ कवि देवेश पथ सारिया के लिए ]
तुम जाओ दुनिया के किसी भी कोने
तमतमाता हुआ सूरज हो आसमान में कहीं भी
घर की छाँह हमेशा पड़ती है तुम पर
घर से दूर होने पर
कितनी दूर होता है दूर होना।
परिचय
जन्म : 28/04/1977
शिक्षा : विधि स्नातक
सृजन :
कविताएँ वागर्थ, विपाशा,
समावर्तन, सेतु, आकंठ, जनपथ, दैनिक ट्रिब्यून, दैनिक
भास्कर, दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं के अलावा अनुनाद, असुविधा, पहली
बार, अजेय, अनहद, आपका साथ, साथ फूलों का व पोषम पा ब्लॉग्स पर प्रकाशित
एवं आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के शिमला केंद्र से प्रसारित।
सम्प्रति : वकालत
पता : चैम्बर नंबर 145, कोर्ट काम्प्लेक्स, पौंटा साहिब, जिला सिरमौर, हिमाचल प्रदेश।
मोबाइल : 9418467632, 7018503601
ईमेल : sainik.pradeep@gmail.com