तुम्हारी ट्रेन चली जा रही है
कोइलवर पुल पर
छुक छुक करती
और एक लडका
दूर इधर नदी के पार
हाथ हिला रहा है तुम्हें
दूर से तुम्हें वह लाल झंडे सा दिख रहा होगा
और तुम चिढ रही होगी
कि तुम्हारा यह प्यारा रंग उसने क्यों हथिया लिया है
पर उसने हथियाया नहीं है यह रंग
यही उसका असली रंग है
इस व्यवस्था की शर्म में डूबकर
लाल हुआ हाथ है वह
ओर इस पूरे शर्मनाक दृश्य को
अपने क्षोभ से भिंगोता हुआ
यह रक्तिम हाथ हिला जा रहा है
इधर तट पर नावें हैं
किनारे से लगी हुयी
इन्हें कहीं जाना भी है
पता नहीं
पर तुम्हारी यह ट्रेन तो चली जा रही है
ये रक्तिम हाथ उसे रोकने को नहीं उठे हैं
वे बस हिल रहे हैं
इस खुशी में कि
तुमने इन हाथों का दर्द समझा
और शर्म से लाल तो हुयी
फिर तो फिराक को पढा ही है तुमने
हुआ है कौन किसी का उम्र भर फिर भी ....
यूं यह फिर भी तो
उम्र भर
परेशान करता ही रहेगा...
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बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
सोमवार, 29 सितंबर 2008
सफेद चाक हूं मैं - कुमार मुकुल
समय की
अंधेरी
उदास सड़कों पर
जीवन की
उष्ण, गर्म हथेली से
घिसा जाता
सफेद चाक हूं मैं
कि
क्या
कभी मिटूंगा मैं
बस
अपना
नहीं रह जाउंगा
और तब
मैं नहीं
जीवन बजेगा
कुछ देर
खाली हथेली सा
डग - डग - डग ...
अंधेरी
उदास सड़कों पर
जीवन की
उष्ण, गर्म हथेली से
घिसा जाता
सफेद चाक हूं मैं
कि
क्या
कभी मिटूंगा मैं
बस
अपना
नहीं रह जाउंगा
और तब
मैं नहीं
जीवन बजेगा
कुछ देर
खाली हथेली सा
डग - डग - डग ...
शुक्रवार, 29 अगस्त 2008
जो हलाल नहीं होता...दलाल हो जाता है - कुमार मुकुल
करीब चौदह साल पहले अपनी तीसरी अखबारी नौकरी छोड़ने के बाद मैंने यह कविता लिखी थी एक डायरी की शक्ल में। जैसा कि अक्सर होता है मेरे साथ मैं कुछ लिखकर रख देता हूं और फिर बरसों बाद उसे देखता हूं तो वह कविता, कहानी, डायरी जो लगती है उस रूप में सामने रखता हूं। कुछ कविताएं तत्काल भी आती हैं पर अधिकांश रचनाओं को इसीलिए सामने आने में दसेक साल से ज्यादा लग जाते हैं,जबतक कि मैं उनसे संतुष्ट ना हो जाउं। 2007 में जब मित्रों को यह डायरी पढाई तो सबने कहा कि इसे सामने आना चाहिए, तब अभिषेक श्रीवास्तव ने इसे एक उपयोगी कविता कह जनपथ पर डाला भी था। इधर अनिल चमडि़या ने फिर इस कविता की याद दिलाते कहा कि यार इसे कहीं छपाना चाहिए, तो छप तो यह आगे-पीछे जाएगी ही इसे फिर से पढें आप।
मेरे सामने बैठा
मोटे कद का नाटा आदमी
एक लोकतांत्रिक अखबार का
रघुवंशी संपादक है
पहले यह समाजवादी था
पर सोवियत संघ के पतन के बाद
आम आदमी का दुख
इससे देखा नहीं गया
और यह मनुष्यतावादी हो गया
घोटाले में पैसा लेने वाले संपादकों में
इसका नाम आने से रह गया है
यह खुशी इसे और मोटा कर देगी
इसी चिंता में
परेशान है यह
क्योंकि बढ़ता वजन इसे
फिल्मी हीरोइनों की तरह
हलकान करता है
और टेबल पर रखे शीशे में देखता
बराबर वह
अपनी मांग संवारता दिखता है
राज्य के संपादकों में
सबसे समझदार है यह
क्योंकि वही है
जो अक्सर अपना संपादकीय खुद लिखता है
मतलब
बाकी सब अंधे हैं
जिनमें वह
राजा होने की
कोशिश करता है
राजा,
इसीलिए
गौर से देखेंगे
तो वह शेर की तरह
चेहरे से मुस्कुराता दिखता है
पर भीतर से
गुर्राता रहता है
पहले
उसके नाम में
शेर के दो पर्यायवाची थे
समाजवाद के दौर में
एक मुखर पर्यायवाची को
इसने शहीद कर दिया
पर जबसे वह मानवधतावादी हुआ है
शहीद की आत्मा
पुनर्जन्म के लिए
कुलबुलाने लगी है
जिसकी शांति के लिए उसने
अपने गोत्र के
शेर के दो पर्याय वाले मातहत को
अपना सहयोगी बना लिया है
यह अखबार
इसका साम्राज्य है
जिसमें एक मीठे पानी का झरना है
इसमें इसके नागरिकों का पानी पीना मना है
गर कोई मेमना
(यहां का हर नागरिक मेमना है)
झरने से पानी पीने की हिमाकत करता है
तो मुहाने पर बैठे शेर की आंखों में
उसके पूर्वजों का खून उतर आता है
और मेमना अक्सर हलाल हो जाता है
जो हलाल नहीं हुआ
समझो, वह दलाल हो जाता है
दलाल
कई हैं इस दफ्तर में
जिनकी कुर्सी
आगे से कुछ झुकी होती है
जिस पर दलाल
बैठा तो सीधा नज़र आता है
पर वस्तुत: वह
टिका होता है
ज़रा सी असावधानी
और दलाल
कुर्सी से नीचे...
मेरे सामने बैठा
मोटे कद का नाटा आदमी
एक लोकतांत्रिक अखबार का
रघुवंशी संपादक है
पहले यह समाजवादी था
पर सोवियत संघ के पतन के बाद
आम आदमी का दुख
इससे देखा नहीं गया
और यह मनुष्यतावादी हो गया
घोटाले में पैसा लेने वाले संपादकों में
इसका नाम आने से रह गया है
यह खुशी इसे और मोटा कर देगी
इसी चिंता में
परेशान है यह
क्योंकि बढ़ता वजन इसे
फिल्मी हीरोइनों की तरह
हलकान करता है
और टेबल पर रखे शीशे में देखता
बराबर वह
अपनी मांग संवारता दिखता है
राज्य के संपादकों में
सबसे समझदार है यह
क्योंकि वही है
जो अक्सर अपना संपादकीय खुद लिखता है
मतलब
बाकी सब अंधे हैं
जिनमें वह
राजा होने की
कोशिश करता है
राजा,
इसीलिए
गौर से देखेंगे
तो वह शेर की तरह
चेहरे से मुस्कुराता दिखता है
पर भीतर से
गुर्राता रहता है
पहले
उसके नाम में
शेर के दो पर्यायवाची थे
समाजवाद के दौर में
एक मुखर पर्यायवाची को
इसने शहीद कर दिया
पर जबसे वह मानवधतावादी हुआ है
शहीद की आत्मा
पुनर्जन्म के लिए
कुलबुलाने लगी है
जिसकी शांति के लिए उसने
अपने गोत्र के
शेर के दो पर्याय वाले मातहत को
अपना सहयोगी बना लिया है
यह अखबार
इसका साम्राज्य है
जिसमें एक मीठे पानी का झरना है
इसमें इसके नागरिकों का पानी पीना मना है
गर कोई मेमना
(यहां का हर नागरिक मेमना है)
झरने से पानी पीने की हिमाकत करता है
तो मुहाने पर बैठे शेर की आंखों में
उसके पूर्वजों का खून उतर आता है
और मेमना अक्सर हलाल हो जाता है
जो हलाल नहीं हुआ
समझो, वह दलाल हो जाता है
दलाल
कई हैं इस दफ्तर में
जिनकी कुर्सी
आगे से कुछ झुकी होती है
जिस पर दलाल
बैठा तो सीधा नज़र आता है
पर वस्तुत: वह
टिका होता है
ज़रा सी असावधानी
और दलाल
कुर्सी से नीचे...
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