प्रेम और प्रतीक्षा की ये कविताएं एक नए जेंडर डिसकोर्स की तलबगार हैं। जो प्रेम में पुरुष और स्त्री के द्वैध को मिटा डालने का आग्रह लेकर आती हैं। इस प्रेम में पुरुष हो या स्त्री दोनों के लिए प्राथमिक शर्त है कि वे अपने अहं भाव को तिरोहित कर दें । अहं भाव के विसर्जन और ग्रंथि रहित निर्ग्रन्थ होकर ही प्रेम या फिर मुक्ति की तलाश पूरी हो सकती है। कवयित्री कहती है कि जो भी (मुमुक्षु) मिला वह ज्ञान का अथाह भंडार लेकर मिला जबकि वह (यानी मुक्ति की चेतना) प्रेम की तलाश में भटक रही थी । ज्ञान विमर्श कर सकता है, मुक्ति नहीं पा सकता। उसके लिए तो उत्कट भक्ति और प्रेम की आवश्यकता होती है। इसलिए दोनों अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ते हैं, समय की इस अथाह अनंत नदी के पार।
इसी तरह कोई हिंसा और अत्याचार लेकर मिलता है, तो कोई सहज स्वीकृति का भंडार लेकर तो कोई असमंजस और संकोच लेकर। जो भी आया अपने अहं की पोटली के साथ आया और इसलिए कवयित्री कहती है कि-
" हम चल दिए अलग-अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार ."
वह उस प्रेम की प्रतीक्षा में है,जहां कोई उसके पास अपने नग्न हृदय और भग्न प्रतिमान के साथ आए। नग्न हृदय यानी अपने प्राकृतिक या नैसर्गिक रूप में आए उसमें कोई आवरण , छद्म या मलिनता न हो तथा अपने सारे प्रतिमानों को भग्न करके यानी अपने अहं भाव को तोड़कर , छोड़कर और विसर्जित करके आए तब उस अवस्था में कवयित्री अपनी पुरातन मगर अजर, अमर (आत्मा रूपी) प्रेमिल हृदय का द्वार खोल देगी, जहां दोनों जीवात्माएं द्वैत भाव के खत्म हो जाने पर , संग मिलकर , बैठकर बातें करते हैं, भिक्षान्न पकाते ,नदी का निर्मल जल अंजुली में भरकर पीते हैं और तब फिर चल देते हैं जीवन मरण के चक्रीय पथ पर समय की अथाह नदी के पार । कबीर भी प्रेम की परिभाषा गढ़ते हुए यही कहते हैं-
"कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहीं।
सीस उतारे भुइँ धरे , तो पईसे घर माहीं।।"
यानी प्रेम रूपी घर में उसी का प्रवेश हो सकता है जो अहंकार रूपी अपने सिर को काट का पृथ्वी पर धर दे।
पहली कविता में जहां प्रतीक्षा थी उस प्रेम की जहाँ स्त्री-पुरुष का द्वैत भाव , अहम् भाव के तिरोहित होने की, ताकि दोनों संग- साथ मिलकर ,बैठकर ,बातें करें और भिक्षान्न पकाते और नदी का निर्मल जल ग्रहण करते यानी सांसारिकता का भोग करते हुए फिर अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ते हैं , फिर से जन्म लेने को, वहीं दूसरी कविता में संघ के साथ-साथ संग को भी सहजता से स्वीकारे जाने की प्रतीक्षा है । और कवयित्री कहती है कि यदि वह प्रतीक्षा खत्म हो गई हो और उचित समय आ गया हो-
" तो चलो पुरुष
भिक्षान्न पकाते हैं,साथ मिलकर
नदी तट से शीतल जल पीते हैं,ओक भर कर
बाउल गाते हैं ,स्वर रचकर
और फिर करते हैं प्रयाण
अलग -अलग नहीं
इस बार साथ-साथ ."
यहाँ दोनों अलग-अलग रास्तों पर न जाकर एक साथ महाप्रयाण के एक ही रास्ते पर जाना चाहते हैं, यही वह सच्चा प्रेम है, जहाँ दो व्यक्तियों का एकत्व स्थापित होता है, जब उनका अलग-अलग वजूद खत्म हो जाता है। शायद प्रेम की गली इतनी संकरी होती है जिसमें दो लोग समा नहीं सकते। इसे ही कबीर अपने दोहे में कहते हैं-
" प्रेम गली अति सांकरी , जा मे दो न समाहीं।"
इन कविताओं में एक तरफ जहां लौकिक प्रेम की प्रतीति होती है, वहीं दूसरी तरफ आध्यात्मिक या पारलौकिक प्रेम भी संचरित होते दिख पड़ता है । एक तरफ तो दो जीवात्माओं या स्त्री-पुरुष के ऐहिक या लौकिक प्रेम के जरिए दोनों की मुक्ति का मार्ग बताया गया है ,वहीं दूसरी तरफ जीवात्मा और ब्रह्म के प्रेम और जीवात्मा की मुक्ति या निर्वाण को भी दर्शाया गया है। आशय स्पष्ट है कि कवयित्री लौकिक या ऐहिक प्रेम के माध्यम से प्रेमी-प्रेमिका दोनों की मुक्ति या निर्वाण का पथ तलाश रही है। ऐहिक या लौकिक प्रेम को आध्यात्मिकता की उस ऊंचाई तक कवयित्री ले जाती है जहां पुरुष और स्त्री दोनों एक साथ ही मुक्त होते हैं और कवयित्री का भी यही काम्य है । वह चाहती भी यही है कि पुरुष और स्त्री दोनों का प्रेम ऐसा हो जहां दोनों की मुक्ति अलग अलग न होकर साथ-साथ हो, ताकि इस जहां और जहां के बाद भी वे साथ-साथ ही रहें - अनिल अनलहातू
प्रेम और प्रतीक्षा - 1
वो मिला मुझे,
ले कर ज्ञान का अथाह भण्डार
मैं प्रेम की तलाश में भटक रही थी
हमने विमर्श किया और चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार
वो मिला मुझसे,
लेकर हिंसा, अत्याचार
मैं क्षमा की याचिका थी
हमने रक्त बहाया और चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार
वो मिला मुझसे,
लेकर सहज स्वीकृति का भण्डार
मगर इस बार मैं प्रेम की क्षत्राणी थी
हम बैठे, हमने शाब्दिक विवाद भर किया ,
और फिर चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार
वो मिला मुझसे,
लेकर असमंजस, संकोच
लेकिन मैं विश्वस्त थी,
उसका हाथ थाम, पहले बैठाया,
फिर उसके मन की सुन कर उसे विदा किया मैंने,
हम चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार
काश, कोई अपना नग्न ह्रदय
और भग्न प्रतिमान ले कर मिलता
खोल देती मैं उसके लिए,
पुरातन, मगर अजर, अमर,
प्रेमिल ह्रदय के द्वार
हम बैठते, बात करते,
भिक्षान्न पकाते, नदी का निर्मल जल ओक भर कर पीते
और फिर चल देते
अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार |
आखिर और भी तो हैं,
जिन्हें प्रतीक्षा है !
प्रेम और प्रतीक्षा - 2
भंते! क्या तुम्हारा और मेरा संघ में होना,
एक जैसा है ?
क्या साधु और साध्वियाँ वाकई देख पाते हैं,
आत्म का स्वरूप,
देह के पार ?
आँखों में, विचलित हुए बिना ?
यदि नहीं,
तो क्यों न सब संघों, सब मठों को विघटित कर दिया जाये?
क्यों न उन सब प्रतिमानों को ध्वस्त कर दिया जाये
जो आधी आबादी से कहते हैं,
"साध्वी मत बनो, रहो अपने अदम्य आप का तिरस्कार कर"
जो आधी आबादी को भिक्खुणी बनाते तो हैं, मगर मन मार कर |
कहो तो भद्र,
क्या संघ में होना वैसा ही है,
जैसा संग में होना?
कहो देव!
क्या मठ में होना वैसा ही है,
जैसा एक मत में होना?
अगर संग होते हम, तो रक्त मेरा,
तुम्हारे लिए शायद उत्सव का विषय होता
अब क्या है?
करुणा का विषय?
या लज्जा का ?
या विरक्ति का?
या ऐसा है कि जिस कोख से उपजे थे
तुम और तुम जैसे कई सहस्त्र कोटि
उसी गर्भ से, उसी शरीर से जुगुप्सा होती है तुम्हें?
तुम सोचते होंगे, तुमसे क्यों इतने प्रश्न?
क्या करूँ?
बुद्ध तो अप्प दीपो भव कह कर चल दिए |
और शंकर ने शिवोहम कहा, मगर मुझे उसके अयोग्य मान कर |
सोचो आर्य,
जिसे तुम भिक्खु होना कहते हो,
वो संसार की अगणित स्त्रियां
सहज ही कर जाती हैं |
बिना महिमामण्डन के |
ऐसे में, देव!
भिक्खु (णी)? मैं
साध्वी? मैं
और तुम?
तो क्या फिर समय आ गया है ?
संघ के साथ साथ संग को भी सहजता से स्वीकार करने का?
क्या समय हो गया आर्य?
मठ में भिन्न शरीर और भिन्न मत भी, अङ्गीकार करने का?
यदि आ गया हो उचित समय,
तो चलो पुरुष,
भिक्षान्न पकाते हैं, साथ मिल कर |
नदी तट से शीतल जल पीते हैं, ओक भर कर |
बाउल गाते हैं, स्वर रच कर |
और फिर करते हैं प्रयाण
अलग अलग नहीं
इस बार साथ-साथ |
आखिर और भी तो हैं
जिन्हें प्रतीक्षा है !
अनुपमा बेचैनी में लिखती हैं | घर में पाँव टिकते नहीं, बाहर मन ठहरता नहीं | पूजा, ध्यान, प्रार्थना, गायन, वादन, सब कागज़ और कलम में आ कर टिक जाता है | दरअसल कुछ लोगों के लिए अपना होना भर ही छटपटाहट का सबसे बड़ा कारण होता है | इसी छटपटाहट में से उनकी पुस्तकें भी उपजती हैं, और उनकी कवितायेँ भी | चाहे वो 'दिल्ली की रोटी' हो, 'अधनंगा, भूखा हिंदुस्तान', 'सीता की अग्निपरीक्षा', या फिर 'कॉन्डोम-कथा' | अनुपमा को जानने, पढ़ने, या उन्हें और उनके विचारों को स्वीकार कर पाने के लिए, उनसे पूर्वाग्रहों के पार, विमर्श की घाटी में मिलना ही इकलौता तरीका है |
इसी तरह कोई हिंसा और अत्याचार लेकर मिलता है, तो कोई सहज स्वीकृति का भंडार लेकर तो कोई असमंजस और संकोच लेकर। जो भी आया अपने अहं की पोटली के साथ आया और इसलिए कवयित्री कहती है कि-
" हम चल दिए अलग-अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार ."
वह उस प्रेम की प्रतीक्षा में है,जहां कोई उसके पास अपने नग्न हृदय और भग्न प्रतिमान के साथ आए। नग्न हृदय यानी अपने प्राकृतिक या नैसर्गिक रूप में आए उसमें कोई आवरण , छद्म या मलिनता न हो तथा अपने सारे प्रतिमानों को भग्न करके यानी अपने अहं भाव को तोड़कर , छोड़कर और विसर्जित करके आए तब उस अवस्था में कवयित्री अपनी पुरातन मगर अजर, अमर (आत्मा रूपी) प्रेमिल हृदय का द्वार खोल देगी, जहां दोनों जीवात्माएं द्वैत भाव के खत्म हो जाने पर , संग मिलकर , बैठकर बातें करते हैं, भिक्षान्न पकाते ,नदी का निर्मल जल अंजुली में भरकर पीते हैं और तब फिर चल देते हैं जीवन मरण के चक्रीय पथ पर समय की अथाह नदी के पार । कबीर भी प्रेम की परिभाषा गढ़ते हुए यही कहते हैं-
"कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहीं।
सीस उतारे भुइँ धरे , तो पईसे घर माहीं।।"
यानी प्रेम रूपी घर में उसी का प्रवेश हो सकता है जो अहंकार रूपी अपने सिर को काट का पृथ्वी पर धर दे।
पहली कविता में जहां प्रतीक्षा थी उस प्रेम की जहाँ स्त्री-पुरुष का द्वैत भाव , अहम् भाव के तिरोहित होने की, ताकि दोनों संग- साथ मिलकर ,बैठकर ,बातें करें और भिक्षान्न पकाते और नदी का निर्मल जल ग्रहण करते यानी सांसारिकता का भोग करते हुए फिर अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ते हैं , फिर से जन्म लेने को, वहीं दूसरी कविता में संघ के साथ-साथ संग को भी सहजता से स्वीकारे जाने की प्रतीक्षा है । और कवयित्री कहती है कि यदि वह प्रतीक्षा खत्म हो गई हो और उचित समय आ गया हो-
" तो चलो पुरुष
भिक्षान्न पकाते हैं,साथ मिलकर
नदी तट से शीतल जल पीते हैं,ओक भर कर
बाउल गाते हैं ,स्वर रचकर
और फिर करते हैं प्रयाण
अलग -अलग नहीं
इस बार साथ-साथ ."
यहाँ दोनों अलग-अलग रास्तों पर न जाकर एक साथ महाप्रयाण के एक ही रास्ते पर जाना चाहते हैं, यही वह सच्चा प्रेम है, जहाँ दो व्यक्तियों का एकत्व स्थापित होता है, जब उनका अलग-अलग वजूद खत्म हो जाता है। शायद प्रेम की गली इतनी संकरी होती है जिसमें दो लोग समा नहीं सकते। इसे ही कबीर अपने दोहे में कहते हैं-
" प्रेम गली अति सांकरी , जा मे दो न समाहीं।"
इन कविताओं में एक तरफ जहां लौकिक प्रेम की प्रतीति होती है, वहीं दूसरी तरफ आध्यात्मिक या पारलौकिक प्रेम भी संचरित होते दिख पड़ता है । एक तरफ तो दो जीवात्माओं या स्त्री-पुरुष के ऐहिक या लौकिक प्रेम के जरिए दोनों की मुक्ति का मार्ग बताया गया है ,वहीं दूसरी तरफ जीवात्मा और ब्रह्म के प्रेम और जीवात्मा की मुक्ति या निर्वाण को भी दर्शाया गया है। आशय स्पष्ट है कि कवयित्री लौकिक या ऐहिक प्रेम के माध्यम से प्रेमी-प्रेमिका दोनों की मुक्ति या निर्वाण का पथ तलाश रही है। ऐहिक या लौकिक प्रेम को आध्यात्मिकता की उस ऊंचाई तक कवयित्री ले जाती है जहां पुरुष और स्त्री दोनों एक साथ ही मुक्त होते हैं और कवयित्री का भी यही काम्य है । वह चाहती भी यही है कि पुरुष और स्त्री दोनों का प्रेम ऐसा हो जहां दोनों की मुक्ति अलग अलग न होकर साथ-साथ हो, ताकि इस जहां और जहां के बाद भी वे साथ-साथ ही रहें - अनिल अनलहातू
अनुपमा गर्ग की कविताएं -
प्रेम और प्रतीक्षा - 1
वो मिला मुझे,
ले कर ज्ञान का अथाह भण्डार
मैं प्रेम की तलाश में भटक रही थी
हमने विमर्श किया और चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार
वो मिला मुझसे,
लेकर हिंसा, अत्याचार
मैं क्षमा की याचिका थी
हमने रक्त बहाया और चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार
वो मिला मुझसे,
लेकर सहज स्वीकृति का भण्डार
मगर इस बार मैं प्रेम की क्षत्राणी थी
हम बैठे, हमने शाब्दिक विवाद भर किया ,
और फिर चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार
वो मिला मुझसे,
लेकर असमंजस, संकोच
लेकिन मैं विश्वस्त थी,
उसका हाथ थाम, पहले बैठाया,
फिर उसके मन की सुन कर उसे विदा किया मैंने,
हम चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार
काश, कोई अपना नग्न ह्रदय
और भग्न प्रतिमान ले कर मिलता
खोल देती मैं उसके लिए,
पुरातन, मगर अजर, अमर,
प्रेमिल ह्रदय के द्वार
हम बैठते, बात करते,
भिक्षान्न पकाते, नदी का निर्मल जल ओक भर कर पीते
और फिर चल देते
अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार |
आखिर और भी तो हैं,
जिन्हें प्रतीक्षा है !
प्रेम और प्रतीक्षा - 2
भंते! क्या तुम्हारा और मेरा संघ में होना,
एक जैसा है ?
क्या साधु और साध्वियाँ वाकई देख पाते हैं,
आत्म का स्वरूप,
देह के पार ?
आँखों में, विचलित हुए बिना ?
यदि नहीं,
तो क्यों न सब संघों, सब मठों को विघटित कर दिया जाये?
क्यों न उन सब प्रतिमानों को ध्वस्त कर दिया जाये
जो आधी आबादी से कहते हैं,
"साध्वी मत बनो, रहो अपने अदम्य आप का तिरस्कार कर"
जो आधी आबादी को भिक्खुणी बनाते तो हैं, मगर मन मार कर |
कहो तो भद्र,
क्या संघ में होना वैसा ही है,
जैसा संग में होना?
कहो देव!
क्या मठ में होना वैसा ही है,
जैसा एक मत में होना?
अगर संग होते हम, तो रक्त मेरा,
तुम्हारे लिए शायद उत्सव का विषय होता
अब क्या है?
करुणा का विषय?
या लज्जा का ?
या विरक्ति का?
या ऐसा है कि जिस कोख से उपजे थे
तुम और तुम जैसे कई सहस्त्र कोटि
उसी गर्भ से, उसी शरीर से जुगुप्सा होती है तुम्हें?
तुम सोचते होंगे, तुमसे क्यों इतने प्रश्न?
क्या करूँ?
बुद्ध तो अप्प दीपो भव कह कर चल दिए |
और शंकर ने शिवोहम कहा, मगर मुझे उसके अयोग्य मान कर |
सोचो आर्य,
जिसे तुम भिक्खु होना कहते हो,
वो संसार की अगणित स्त्रियां
सहज ही कर जाती हैं |
बिना महिमामण्डन के |
ऐसे में, देव!
भिक्खु (णी)? मैं
साध्वी? मैं
और तुम?
तो क्या फिर समय आ गया है ?
संघ के साथ साथ संग को भी सहजता से स्वीकार करने का?
क्या समय हो गया आर्य?
मठ में भिन्न शरीर और भिन्न मत भी, अङ्गीकार करने का?
यदि आ गया हो उचित समय,
तो चलो पुरुष,
भिक्षान्न पकाते हैं, साथ मिल कर |
नदी तट से शीतल जल पीते हैं, ओक भर कर |
बाउल गाते हैं, स्वर रच कर |
और फिर करते हैं प्रयाण
अलग अलग नहीं
इस बार साथ-साथ |
आखिर और भी तो हैं
जिन्हें प्रतीक्षा है !
अनुपमा बेचैनी में लिखती हैं | घर में पाँव टिकते नहीं, बाहर मन ठहरता नहीं | पूजा, ध्यान, प्रार्थना, गायन, वादन, सब कागज़ और कलम में आ कर टिक जाता है | दरअसल कुछ लोगों के लिए अपना होना भर ही छटपटाहट का सबसे बड़ा कारण होता है | इसी छटपटाहट में से उनकी पुस्तकें भी उपजती हैं, और उनकी कवितायेँ भी | चाहे वो 'दिल्ली की रोटी' हो, 'अधनंगा, भूखा हिंदुस्तान', 'सीता की अग्निपरीक्षा', या फिर 'कॉन्डोम-कथा' | अनुपमा को जानने, पढ़ने, या उन्हें और उनके विचारों को स्वीकार कर पाने के लिए, उनसे पूर्वाग्रहों के पार, विमर्श की घाटी में मिलना ही इकलौता तरीका है |