प्रोफेसर वर्मा ने बताया यह एक पुराना चर्च है यहाँ का
जो अब वृद्धों को दे दिया गया है जो कल पर था ईश्वर का
यह आज आदम का घर है
प्रभु का उतारन मनुष्य का सिंगार....
यहाँ जो अंतिम पंक्ति है, अलग से चस्पां की गई टिप्पणी की तरह, वह कविता की उतारन (केंचुल) सी लगती है, जिसकी कोई जरूरत नहीं है। पर यह और ऐसी जड़ाऊ पंक्तियाँ ही तो कवि के विकास की पोल खोलती हैं, उनकी आस्था के आधारों 'चौरासी कोठरियों' के दर्शन कराती हैं। ऐसी कविताओं को रामविलास शर्मा जड़ाऊ कविता कहते थे। वैसे भी अरुण कमल की काव्य-भाषा में भोजपुरी लोकभाषा की जो छौंक मिलती है, उसमें जड़ाऊ शब्द की महिमा बढ़ी है, जड़ाऊ धोती से लेकर जड़ाऊ गहनों तक।
बच्चन ने कभी लिखा था- 'जो छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता...' अरुण जी ने भी अपनी लालसाओं को छुपाया नहीं है अबकी बार, चाहे वो चालू कुत्ते के पीछे भागती कानी कुतिया हो या 'संभोग के क्षणों के अंतिम प्रहार' या स्तनों का उठना गिरना लगातार' या छाती के बटन खोले हहाता समुद्र या फिर हो इक साँवरी भार देती स्तनों पर....
पुतली में संसार की कविताओं में विविधता भी काफी है। ब्रेख्त से लेकर शमशेर, मुक्तिबोध और आलोक धन्वा तक के ध्वनि प्रभावों वाली कविताएँ वहाँ मिल जाएँगी। कुछ पंक्तियाँ देखें-
जब भी हमारा जिक्र हो कहा जाए
हम उस समय जिये जब
सबसे आसान था चंद्रमा पर घर
और सबसे मोहाल थी रोटी... (अपनी पीढ़ी के लिए))
(या)
क्या है इस छोटी सी बात में जो आज मुझे व्याकुल कर रहा है (दोस्त)
(या)
वह क्यों रुक गया था उस रात वहाँ उस मोड़ पर
सुफेद मकान के आगे जो बत्ती की रोशनी में
और भी सुफेद लग रहा था...(फरमाइश)
संग्रह की ‘अनुभव’ शीर्षक कविता तो शमशेर की कापी-सी लगती है।
'नए इलाके में (तीसरा संग्रह) का आत्मविगलित रुदन जो कविता के अकादमिक गुण ग्राहकों को पसंद आया था, यहाँ काफी कम है-
कि ब्याज के भरोसे बैठा रहूँ (डोर) निर्व्याज
खाली हाथ होने का यह जो दुख है कवि का वह पुराना है। पहले संग्रह 'अपनी केवल धार' की कविता निस्पृह का भी वही भाव है। यूँ पहले और चौथे संग्रह के बीच में कवि ने काफी कुछ हासिल किया है। तमाम पुरस्कारों से लेकर विदेश यात्राओं तक, एक नौकरी भी ठोकी-ठेठायी है ही। फिर यह दुख कैसा है-
वे कांसा भी नहीं पायेंगे सोना तो दूर
मैं हीरे का तमगा छाती में खोभ
खून टपकाता फिरूंगा महंगे कालीनों पर....
कहीं किसी साँवरी की लालसा तो नहीं है वह-
सब कुछ पाने के बाद भी तुम इंतजार करोगे
रात के अँधेरे लंबे सुनसान गलियारे के पार
किवाड़ के पीछे उस साँवली स्त्री का....
क्या कवि को पता नहीं कि जब तक वह अपने सीने में हीरे का तमगा खोभे
फिरेगा, साँवली दुष्प्राप्य रहेगी। फिर रो-रोकर इस तरह हलकान होने के मायने-
...पता नहीं आज भी आयेगी या नहीं
और तड़केगा रोम-रोम बलतोड़ की पीड़ा से
तसर वस्त्र के भीतर।
मेरे दिल में इतनी मेखें हैं
कि तन सकते हैं प्यार के हजार शामियाने
पर हाय जिस किसी काग को कासिद बनाया
वही कंकाल पर ठहर गया। (मेख)
प्यार के शामियाने के लिए मेखें ही काफी नहीं हैं, कवि, थोड़ा खम भी पैदा करो।
फरमाइश, उस रात, आदि कई अच्छी कविताएँ हैं अरुण कमल की। इस संकलन में ‘दस बजे’ एक रोचक कविता है, जिसमें कवि पड़ोस के व्यस्त चौराहे का चित्र खींचता है। कविता में आये ब्यौरे मजेदार हैं। हाँ, आकलन में एकुरेशी का अभाव कहीं-कहीं खटकता है। जैसे, वे लिखते हैं- कोटि-कोटि गाड़ियों के नीचे....
दुनिया की किसी भी व्यस्त सड़क पर एक जगह कोटि-कोटि (करोड़ों-करोड़) गाड़ियाँ खड़ी नहीं हो सकतीं। यह कीर्त्तनियों की शब्दावली है, जिसका वे भाववाचक प्रयोग करते हैं, संख्यावाचक नहीं। ऐसे कई जोर-जबर से किये गए प्रयोग अच्छी बनती कविताओं का भी कबाड़ा कर देते हैं। जैसे सड़कें भरी रहतीं कंठ तक या सिगरेट की ठूंठ आदि। जब कथ्य अस्पष्ट हों, तो इस तरह के प्रयोग अच्छे लगते हैं, जैसे 'छाती खोले समुद्र' या 'हाथी-सी चीन की दीवार' आदि। यूँ भाषा की ये गड़बड़ियाँ भाव के अभाव के चलते नहीं, बल्कि जल्दबाजी के चलते होती हैं। अब केदारनाथ सिंह जैसे वरिष्ठ कवि जब लिखने लगें कि एक मुकुट की तरह उड़े जा रहे थे पक्षी तो औरों का क्या कहना? वे 'अतल जंगल', 'हर पानी' कुछ भी लिख सकते हैं। आप तलाशते रहें लक्षणा, अभिधा व व्यंजना में उनके अर्थ !
अरुण कमल के यहाँ मुक्ति का संघर्ष तो नहीं है, हाँ मुक्ति का स्वप्न जिलाये रखने का जतन है। वहाँ मुक्ति न भी मिले तो बना रहे, मुक्ति का स्वप्न। 'आत्मकथा' कविता में कवि लिखता है-
न लेखक गृह का एकांत
न अनुदान वृत्ति का अभ्यास
जितनी देर में सीझेगा भात
बस उतना ही अवकाश ।
इस दुखड़े के क्या मानी, जब 'लू शुन की कोठरी' कविता में कवि लिखता ही हैं इतनी छोटी कोठरी में कैसे अँटा इतना बड़ा देश।
'उस रात' कविता में कवि 'एक आवारा कुत्ते की आत्मकथा' के बहाने व्यवस्था के लिए खतरा बनते जाते भूखे-आवारा- पागल आदमी की त्रासदी लिखता है -
'मैंने किसका कया बिगाडा था
अगर भूख न होती और सडे मांस का लोंदा
तो कभी कोई पागल न होता'।
अरुण कमल का मूल स्वर करूणार्द्र और भय की भीतियों से भरा है। इसे परंपरा में हम तुलसीदास के यहां देख सकते हैं। विनय पत्रिका में एक जगह तुलसी याचना के स्वर में कहते हैं कि - ' हे राम,तुमने बहुत से पापियों को तारा है, फिर मुझ कुत्ते के मुख से रोटी छीनकर खाने वाले इस अधम पर भी कृपा करो। 'यह एक तरह की आत्मप्रताडना है और राम की आलोचना भी कि तुम जाने कैसे कैसे पपियों को तो तार देते हो फिर मुझे गरीब को ही भूल जाते हो। अरुण कमल के यहां आत्मप्रताडना का रूप बारहा मिलता है -''मेरे सरोकार' में एक जगह वे लिखते हैं - क्या नाली का कीडा जीना बंद कर देता है...मेरा भी यही सरोकार है - जीना और इस धरती को जीने योग्य बनाना'।
वस्तुतः अरुण कमल की कविताओं की धजा जमीनी विस्तार और प्रकृति से संबद्ध कविताओं में ही खुलती-खिलती है। 'आतप' और 'आश्विन' ऐसी ही कविताएँ हैं-
चाँदनी से गीले हैं खेत छायाएँ खुद से भारी
ऐसी स्तब्धता शाखों के भीतर
ऐंठती मंजरों से भारी देह
बहुत दूर भीतर उठती है हूक
यह किसकी कूक है, किसकी पुकार
कौन मुझे उठाता है, धूल सा, कैसा बवंडर... (आतप)
ऐसा क्या है इस हवा में
जो मेरी मिट्टी को भुरभुरा बना रहा है
धूप इतनी नम कि हवा उसे
सोखती जाती है पोर-पोर से
सिंघाड़ों में उतरता है धरती का दूध
और मखानों के फूटते लावे हैं हवा में
धान का एक-एक दाना भरता है
और हरसिंगार खोलता है, रात के भेद
चारों तरफ एक धूम है
एक प्यारा शोरगुल रोओं भरा। (आश्विन)
जमीनी विस्तार का यह सौरभी स्पर्श हिंदी कविता में आज कहाँ किसी के पास है। बेकार का रोना है फिर 'पहाड़ों', 'घाटियों', और 'सागरों' का बगीचे-बधारों के थोड़े से बोल ही काफी हैं। कवि के पहले संग्रह की भी यही ताकत रहे हैं।
आलेख का एक हिस्सा ‘पाखी’ में प्रकाशित