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बुधवार, 10 जुलाई 2024

एक मतदाता की डायरी

चुनाव, संविधान और जाति व्‍यवस्‍था - अरुणजी 



एक जून 2024 को लोकसभा चुनाव के सातवें चरण का अन्तिम दिन था। हमारे शहर पटना में मतदान का दिन। आशियाना नगर के घर में हम बस तीन लोग हैं। पिता जी, बन्दना और मैं। इनमें 93 वर्ष के पिता जी सुपर सीनियर सिटीजन हैं। बाकी दोनों भी सीनियर सिटीजन बन चुके हैं। तीनों को वोट डालने जाना था। इसके लिए हमने एक दिन पहले कुछ तैयारियां की थीं। कि क्या पहनना है, कितने बजे मतदान केंद्र पर पहुंचना है वगैरह वगैरह। इसके अलावा मैंने एक दो विडियो भी देखा था। ईवीएम, वीवीपैट वगैरह के बारे में, जिससे कि मतदान केंद्र पर मशीन की प्रक्रिया को समझने में कोई दिक्कत नहीं हो। या उसके कारण अचानक कोई परेशानी न हो।


सुबह सात बजे मतदान शुरू होना था। हमने तय किया था कि ठीक पौने सात में निकलेंगे। सवेरे सवेरे वोट डालकर लौट आएंगे। वोट डालने के लिए पर्चियां हमें मिल चुकी थीं, एक सरकारी मुलाजिम ने हमें करीब पंद्रह दिन पहले ही घर आकर सुपुर्द कर दी थीं ।  


एक घर में एक साथ रहते हुए भी मैं और पिता जी दो अलग-अलग ध्रुवों के निवासी हैं। पिता जी बीजेपी के प्रबल समर्थक हैं। मोदी के भक्त। मैं ठहरा मोदी का विरोधी। वैसे भी हमारे देश में अब दो ध्रुव ही बचे हैं। मोदी के समर्थक या उसके विरोधी। दक्षिण, वाम, उदारवादी, सोशलिस्ट जैसे शब्द हमारे शब्दकोष से दूर हो गए हैं। 


बन्दना इस तरह की राजनीतिक बहसों से दूरी बनाए रहती है। अगर उसकी अपनी कोई राय है भी तो उसे वह सार्वजनिक नहीं करती। हां, वह हम दोनों के बीच सामंजस्य जरूर स्थापित करती है। पिछले तीन चार वर्षों में पिता जी और मेरे बीच दो-चार बार मोदी को लेकर तीखी नोंक-झोंक हो चुकी है जिसमें बन्दना ने बीच-बचाव किया है। वह पिता जी का पक्ष लेती है। शायद मुझे चुप कराना उसके लिए ज्यादा आसान है। 


इतने दिनों में मैंने एवं पिता जी ने अपनी सीमाओं में रहना सीख लिया था। अपनी बातचीत में हम राजनीतिक मुद्दों से दूरी बनाए रखते हैं। कोशिश करते हैं कि हम एक दूसरे के सामने अपने मत व्यक्त न करें। और अगर हममें से किसी एक ने छेड़ भी दिया तो दूसरा उसे नज़रंदाज़ कर दे। हम प्रयास करते हैं कि अपने विचारों की सीमाओं के अंदर रहें। हम दोनों के बीच शांति बरक़रार रखने में बन्दना की भूमिका महत्वपूर्ण है।


बन्दना के सौजन्य से सुबह कॉफी पीकर हम तीनों पैदल निकल पड़े। तय समय से पांच मिनट लेट। सात बजने में दस मिनट बाकी था। पर्ची एवं आधार कार्ड हमारे साथ था। मतदान केंद्र हमारी कॉलोनी के दूसरे छोर पर आशियाना क्लब में था। हमारे घर से पैदल चलने पर यह करीब पांच-छह मिनट का रास्ता है। पर ये केवल बन्दना और मेरे लिए। पिता जी के लिए यह दूरी ज्यादा थी। वह रोज शाम के वक्त जितनी दूरी कॉलोनी के पार्क जाने में तय करते हैं उससे लगभग डेढ़ गुणा ज्यादा। उनकी उम्र और उनके स्वास्थ्य की स्थिति को देखें तो उनके लिए पार्क जाना ही अपने आप में एक चुनौती है। पर 93 वर्ष के पिता जी रोज़ अपनी छड़ी और अपने आत्मबल के सहारे अपनी गति से पार्क जाते हैं और वहां से लौट आते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कोई 30 वर्ष का व्यक्ति रोज मैराथन में भाग ले रहा हो। 


एक रात पहले मैंने पिता जी से पूछा कि क्या कल के लिए पांच सौ रुपए में हम एक टैक्सी किराए पर ले लें? हम तीनों साथ चलेंगे और मतदान के बाद उसी में बैठकर आ जाएंगे। उन्होंने उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि यह फिजूलखर्ची होगी। तुम्हारे पास अगर पैसे ज्यादा हैं तो मुझे दे दो। कहकर उन्होंने जोर का ठहाका लगाया। उनके इस अन्दाज़ को देखकर मैंने भी जोर डालना उचित नहीं समझा। वैसे भी इस मुद्दे पर मैं अलग-थलग पड़ चुका था। बन्दना उनसे सहमत थी।


अब रास्ते में हमारे लिए एक और चुनौती थी। हम दोनों को पिता जी का ध्यान भी रखना था। लेकिन हमें उनके साथ चलने की इजाज़त नहीं थी। जब कभी भी हम कहीं पैदल जाते हैं तो उनकी सख़्त हिदायत होती है, “तुमलोग या तो मेरे आगे चलो या पीछे। मेरे साथ मत चलो। और मुझे सहारा देने की कोशिश तो बिल्कुल मत करो। छुओ भी नहीं”। वे कहते कि तुम्हारे साथ रहने पर मैं दबाव महसूस करता हूं। लगता है कि मैं भी थोड़ा तेज चलूं, जो मेरे लिए अच्छा नहीं है। 


मैं तो प्रायः इस बात का ध्यान रखता हूं मगर पिछले महीने इसी बात पर मुरारी दा को डांट पड़ गई थी। असल में हम लोग (पिता जी, बन्दना, मेधा और मैं) एक समारोह में शामिल होने अपने गांव मोकामा गए थे। वहां पिता जी को लेकर मैं मुरारी दा के घर पहुंचा। घर के अंदर प्रवेश करने के लिए दो-तीन सीढ़ियां थीं। पिता जी अपने हिसाब से उसपर चढ़ने लगे। मैं उनके पीछे था और मुरारी दा उनके आगे। मुरारी दा को लगा कि पिता जी को सहारे की जरूरत है और उन्होंने उनके हाथ को सहारा देने के लिए पकड़ लिया। पर जैसे ही उन्होंने हाथ पकड़ा कि पिता जी ने जोर से झटककर उन्हें डांट दिया, “मुझे छुओ नहीं, हटो”। मुरारी दा मेरी ओर देखने लगे। मैंने इशारे से उनको मना किया।


यही थी हमारी चुनौती। उन पर नज़र भी रखना था और दूरी भी बनाए रखनी थी । मतदान केंद्र के रास्ते में बन्दना और मैं साथ-साथ चल रहे थे। पिता जी जब पीछे होते तो हम रुक जाते। जब वो आगे बढ़ जाते, तो हम उनके पीछे। इसी तरह कभी आगे तो कभी पीछे चलते हुए हम बढ़ रहे थे। रोड पर लोगों की चहल-पहल थी। हमारे कॉलोनी में चार मतदान केंद्र थे। कुछ लोग वोट डालने जा रहे थे। कुछ लौट कर आ रहे थे। कई परिचित सज्जनों से भेंट हो रही थी।


मैं सोचने लगा कि पिता जी आंख मूंद कर मोदी का समर्थन क्यों करते हैं? कोई स्पष्ट जवाब तो मेरे पास नहीं था। पर मुझे ऐसा लगता है कि 90 से अधिक उम्र वाले मेरे पिता जिस पीढ़ी से आते हैं, उसने भारत की आज़ादी को देखा है। उसने आज़ादी के पहले के समय को भी देखा है जब उनकी जाति, उनके समुदाय का समाज में वर्चस्व हुआ करता था। हम जाति से भूमिहार हैं। एक समय था जब जाति व्यवस्था के अनुक्रम में भूमिहार एवं कुछ अन्य जातियों का बोलबाला हुआ करता था। सत्ता एवं संसाधनों पर उनका वर्चस्व था। 


1947 में आज़ादी और ख़ासकर 1950 में संविधान के लागू होने के बाद इन जातियों को एक ज़ोर का झटका लगा। सबसे बड़ा झटका तो मानसिक था। बाकी असर तो इसका बाद के वर्षों में दिखाई पड़ा। धीरे-धीरे इन जातियों का वर्चस्व ढहने लगा। सत्ता एवं संसाधनों के इस हस्तांतरण को मैंने भी देखा है। कि कैसे समानता के सिद्धांतों पर आधारित हमारे संविधान ने बाकी जातियों को आगे बढ़ने में मदद की। हालांकि समानता अपने आप में एक मिथक है जिसकी पूर्णता किसी भी परिस्थिति में संभव नहीं है। 


पर शायद इन्हीं कारणों से पिता जी और हमारे समुदाय में उनकी पीढ़ी के बहुत सारे लोग कांग्रेस के शुरू से ही विरोधी रहे। क्योंकि उनके अनुसार कांग्रेस के कारण ही उनके समुदाय का वर्चस्व छिन गया। लालू यादव की पार्टी आरजेडी को तो ये बिल्कुल नहीं पसंद करते हैं। और कांग्रेस का इसी से एलायंस है। 


वैसे मोदी का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष धर्म है जिसके सहारे वो अपने वोटरों को एक जुट करते हैं। हिन्दू को खतरे में दिखाना, मुस्लिमों के प्रति घृणा पैदा करना। ध्रुवीकरण के मूल हथियार हैं। पिता जी को शायद यह आकर्षित करता है। उन्हें ऐसा लगता है कि मोदी एक ऐसा व्यक्ति है जो हमारी जाति, हमारे धर्म की खोयी हुई प्रतिष्ठा को लौटा देगा। 


मेरे लिए धर्म, जाति जैसी चीजें काल्पनिक सच्चाइयां हैं। इन पर आधारित राजनीति कलह और घृणा से भरी है। इनसे किसी का भला नहीं हो सकता। हमारा संविधान हमारे राष्ट्र की मुख्य पहचान है। और उसको ठीक तरह से लागू करने में ही हम सबका भला है। लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए मोदी जी ने संविधान को हमेशा तोड़-मरोड़ कर अपने फायदे के लिए उपयोग किया है। 


इसलिए मोदी जी का इस बार सत्ता में आना जनता के लिए ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है। क्योंकि इसके बाद भारत में बड़ी पूंजी का नंगा खेल शुरू हो जायेगा। और उस खेल में मोदी जी की भूमिका बस एक प्यादे की रह जाएगी। चंद पूंजिपतियों की संख्या जरूर बढ़ेगी। पर बाकी जनता की हालत बदतर हो जाएगी। और पिता जी जैसे समर्थकों का सपना भी पूरा नहीं होगा। क्योंकि धर्म और जाति इस खेल के केवल हथियार हैं, उद्देश्य नहीं।


रास्ते भर मैं विचारों के इसी उहापोह में रहा। इस बीच हम मतदान केंद्र पहुंच गए। पिता जी आगे थे और मैं उनके पीछे। गेट के सामने गार्ड ने उन्हें देखकर बड़े आदर भाव से केन्द्र के अंदर जाने की इजाजत दे दी। उनके अटेंडेंट होने के मुझे भी फायदे मिल रहे थे। हम दोनों को कतार में खड़े होने की जरूरत ही नहीं पड़ी। आगे आगे पिता जी और पीछे से मैं। बन्दना वोटरों के लिए बनी लाइन में शामिल हो गई। 


अंदर तीन टेबल थे। पहले वाले पर हमारे पहचान पत्र की जांच हुई। दूसरे पर हमसे दस्तख़त करवाया गया और तीसरे पर एक व्यक्ति ने हमारे बाएं हाथ की दूसरी उंगली पर स्याही लगा दी। स्याही लगने के बाद पिता जी को मैं उस टेबल के पास ले गया जहां उन्हें ईवीएम पर बटन दबा कर अपना वोट डालना था। गुप्त मतदान के कारण ईवीएम को एक घेरे में रखा गया था। 


अचानक वहां पहुंचने पर पिता जी को समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। ईवीएम के दाहिनी छोर पर पार्टी के चुनाव चिन्ह का कॉलम था जो मुझे तुरंत दिख गया। कांग्रेस का चुनाव चिन्ह ‘हाथ’ सबसे ऊपर था। इसके बाद दो और चिन्ह थे। बीजेपी का ‘कमल’ चौथे स्थान पर था। उसके नीचे कई और चिन्ह थे।


पिता जी मुझसे बार-बार पूछने लगे कि क्या करना है। उन्हें अपना मनपसंद चिन्ह नहीं दिख रहा था। मैंने उनको कहा कि आप आराम से एक बार दाहिनी ओर दिये गये कॉलम को देखिए। आप जिस पर लगाना चाहते हैं वो मिल जाएगा। जब वे खोजने लगे तो मेरे मन में ये बात आ रही थी कि शायद उनका मन बदल जाए और वे मेरी पसंद के बटन को दबा दें। मैं चाहता तो उन्हें ऐसा करने के लिए एक बार कह सकता था। पर मैंने उसमें दखल देना उचित नहीं समझा।


खैर दो-तीन बार ऊपर नीचे देखने के बाद उन्हें कुछ दिखा। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं यहां दबा दूं? मैनें हां कर दी और उन्होंने उस बटन को दबा दिया। उसके बाद मैंने भी अपना मतदान किया और हमलोग बाहर की ओर चल पड़े। बाहर मैंने उनका फोटो वगैरह खींचा। फिर हम घर की ओर चल पड़े।