बुधवार, 1 दिसंबर 2010

आज दलित भी जातिवादी हो रहा है - डॉ. तुलसीराम

 मुर्दहिया के लेखक डॉ. तुलसीराम से एक बातचीत
पिछले कुछ समय से साहित्‍य में बदलाव को लेकर कौन से नये विमर्श सामने आए हैं। आज का भारतीय समाज जिन संकटों से गुजर रहा है, क्‍या साहित्‍य उन संघर्षों और संकटों की पहचान कर पा रहा है, यदि हां , तो उनका स्‍वरूप क्‍या है...साहित्‍य में हो रहे परिवर्तनों के प्रति आपका नजरिया क्‍या है ...नये यथार्थ को अभिव्‍यक्‍त करने वाली रचनाएं क्‍या आज हो पा रही हैं, यदि नहीं तो क्‍यों...क्‍या मोबाइल और रसोई गैस ने दुनिया बदल दी है...क्‍या आज का साहित्‍य केवल नये मध्‍यवर्ग को संबोधित है...
साहित्‍य सर्वहारा के संघर्ष से कट क्यों रहा है...
 तुलसी राम – विमर्श दो ही हैं इस समय, दलित और स्‍त्री। दोनों ने परंपरिक साहित्‍य की जडें हिला दी हैं। उसके जातीय वर्चस्‍व को चुनौती दी है। फलत: दोनों के विरूद़घ  आवाज उठती रही है। दलित साहित्‍य के बारे में परंपरावदियों का तर्क यह है कि ये टेम्‍परारी फेनोमना है,ख्‍त्‍म हो जाएगा। जातिव्यवस्‍था के खिलाफ हुए आदोलनों की उपज है दलित साहित्‍य। इसलिये जबतक जाति व्‍यवस्‍था रहेगी दलित साहित्‍य रहेगा। इसका भविष्‍य उज्‍ज्‍वल है।
आज जाति राजनीति व्‍यवस्‍था का अंग बन गयी है। चुनाव का आधार जाति है और राजनीतिक व्‍यवस्‍था आज जाति व्‍यवस्‍था बन गयी है। जातियां धर्म से जुडी हैं तो धर्म का इस्‍तेमाल राजनीति में धर्मनिरपेक्ष्‍ता के खिलाफ होता है।
दलित विमर्श के अपने अंतरविरोध भी हैं। जो दलित विमर्श जाति व्‍यवस्‍था को चुनौती दे रहा था,वह आज मायवती के रूप्‍ में एक बिगडा स्‍व्‍रूप ले चुका है। आज दलित भी जातिवादी हो रहा है। और इससे बहुत नुकसान हो रहा है। सदियों से चला आ रहा जातिवादी मूवमेंट इस दलित जातिवाद के चलते कठिन होता जा रहा है। बीजेपी और बीएसपी की चक्‍की में आज दलित साहित्‍य भी पिस रहा है। दलित साहित्‍यकार भी जातीय गौरव को उपलब्धि मान रहे हैं।
साठ के दशक में माहराष्‍ट्र में दया पवार के कथा लेखन और बलूत या अछूत के आने से दलित विमर्श सशक्‍त रूप में विकसित हुआ था और आत्‍मकथाएं दलित समाज को रिफलेक्‍ट कर रही थीं तब इस लेखन में अभिव्‍यक्‍त अनुभूतियों ने विमर्श का एक नया केन्‍द बनाया था।

बौद्ध साहित्‍य के नवजागरण के बाद सदियों तक अंधविश्‍वास गायब रहा। इसके विरूद्ध ब्राह्मणों का संघर्ष चलता रहा। उन्‍होंने बुद्ध्‍ के साहित्‍य को जलाया। और मिथकों पर आधारित पुराणों की रचना की, जिनका यथार्थ से संबंध नहीं था। इसका सिलसिला चलता रहा। कौटिल्‍य के अर्थशास्‍त्र में मनुस्‍म्रति से ज्‍यादा कठोर दंड दलितों के लिये हैं। इस मिथकीय दबाव का असर संत साहित्‍य पर भी पडा और कबीर,रैदास के समानांतर तुलसी और सूर जैसे मिथकों के आधार पर रचाना करने वाले सामने आए। मिथकीय साहित्‍य का बर्चस्‍व्‍ हमेशा कायम रहा। आज भी परंपरावादी मिथकीय चरित्रको कविता कहानी में अवश्‍य लाते हैं। इस लेखन को दलितों ने हर युग में चुनौती दी है। गावब हुए बौद्ध साहित्‍य में ये दलित चरित्र थे। कहीं कहीं ये अब भी मिलते हैं।
तालकूट बुद्ध का समकालीन नाटककार था। वह गांव गांव नाटक दिखाता था। मतलब बुद्ध के समय लोकनाटक मंडलियां थीं भारत में। ऐसे बहुसारे चरित्र एक समानांतर साहित्‍य रचते थे। पर मिथकीय परंपरा ने भारत में इस साहित्‍य को बहुत नुकसान पहुंचाया। यह आज भी जारी है।
दलित स्‍त्री लेखन ने आज अलग परंपरा कायम की है। यह और विकसित होगी। अब गैर दलित स्‍त्री लेखक भी खद दलित स्‍त्री लेखन का क्‍लेम कर रहे हैं , यह भी इन दोनों के विकास को दर्शाता है।
मोबाइल ने निश्चित दुनिया बदली है। पश्चिम के विद्ववान डिजिटल डिवाई का नया कांसेप्‍ट चला रहे। गरीब अमीर की जगह आज सूचना से धनी और सूचना से गरीब देश का कांसेप्‍ट आ रहा है। सूचनाएं थोपी जा रही हैं। इंटरनेट मोबाइल मिथ्‍कों को बदल कर पेश कर रहे। क्राइम स्‍टोरी बढ रही है। इससे सूचना बढ रही है पर ज्ञान घट रहा है।

शनिवार, 13 मार्च 2010

गुड खाएं और सैम संग गुलगुले भी - कुमार मुकुल

नामवर सिंह का कथन है-‘नेहरू की दृष्टि में संस्कृति एक ‘एलीटिस्ट’ अवधारणा थी और उन्होंने रवींद्रनाथ की परंपरा में ही भद्रवर्गोचित अकादमियों की स्थापना की।’ अब भद्र वर्ग अंकल सैम के संग गुलगुले खाए या टाटा बिड़ला संग, कोउ नृप होहीं हमैं का हानि...। सब जानते हुए नामवर ही कहां परहेज कर सके। अब तमाशा हो रहा है, सब लगे हुए हैं, निष्ठा की तुक बिष्ठा से मिलाने में। गुड़ की तुक गुलगुले, से कुल्हड़ की हुल्लड़ से, जहां जो मिल जाये बिना हर्रे फिटकरी के रंग चोखा करते चलिए।
जब सैमसुंग पुरस्कार की बात सुनी तो इस अदने से कवि पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी, अब कोई ज्ञान को पीठ दिखा रहा, कोई सैम के चरण चूम रहा तो अपन को क्या...। अपन कहां मैटर करता है...। अपन सैमसंग या ज्ञानपीठ के लिए तो पढता लिखता नहीं। पर तार्किक तौर पर जब युवा लेखक जमात ने विरोध करने की ठानी तो लगा कि यह सही ही है। पहले विरोध की जगह ओबेराय होटल थी फिर हम साहित्य अकादमी परिसर के बाहर जमा हुए। अब राजकिशोर जी की बहस इसी पर है कि हमारे सर क्यों नहीं फूटे। पहली तो भैया हम वहां सिर फोडवाने गये नहीं थे,हमारा उद्देश्य था अपनी बातों को लोगों तक ले जाना, हमने वहां पर्चे बांटे ,उपस्थित लेखकों ने अपनी बातें रखीं फिर हम वापिस आ गये। हां पुलिस वहां थी हमसे तिगुनी संख्यां में, चूंकि धारा 144 लागू थी 26 जनवरी की तैयारी के तहत। पुलिस वालों को हमारे भाषणों में ना काम की चीजें मिलीं ना नुकसान की, सो वे घूम घाम कर चले गए। अब इतनी सी बात पर आपको परीलोक हो आने का मन हो या किसी पूर्व पुलिस अधिकारी के हरम का मुआयना करने का, आपको कौन रोक सकता है...। एक तो हरम आपकी नजरों के सामने अस्तित्व में आया है और यह कहां की बात हुयी कि वहां जाकर आप अप्रसन्न हों तो यह का्रंतिकारी काम हुआ और प्रसन्न हों तो गलाजत का ...। भईआ हरम में जाने की जरूरत ही क्या है...। फिर हबीब तनवीर भी उसी हरम थे ...।
अब राजकिशोर जी का कहना है कि सामसुंग का चुंकि मानववाद से कुछ लेना देना नहीं है इसलिए उसे टैगोर के नाम का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए था। सैमसुंग को बचाने की यह निराली अदा कुछ समझ में नहीं आयी। जिसका मानववाद से संबंध ही नहीं हो उसके दिमाग में यह नेक ख्याल लाने के भोले ख्याल पर तरस ही खाया जा सकता है। राजकिशोर इससे पहले लिखते हैं कि सामसुंग और अकादेमी को पुरस्कार देना ही था तो बीच में टैगोर जैसे महान लेखक को नहीं लाना चाहिए था। आखिर , बीच में किसी घटिया लेखक को ही क्यों लाना चाहिए था। मतलब राजकिशोर जी को अकादेमी और सैमसुंग के मिलन पर आपत्ती नहीं, उन्हें टैगोर के नाम को धूमिल करने पर रोष है। एक ओर राजकिशोर अकादेमी के तौर तरीके को घटिया बताते हैं दूसरी ओर उसे सलाह देते हैं कि एक व्यावसायिक कंपनी के चक्कर में उसे नहीं पडना चाहिए था। जब वह घटिया है तो फिर उसके चक्करों का इतना चक्कर क्यों लगाना है...छोडिए उसे। पर राजकिशोर जी की चिंता है कि अकादेमी ने सैमसुंग से घटिया लेखकों को पुरस्कृत करवा कर उसे ब्लैकहोल में फेंक दिया है। तो राजकिशोर जी की मूल चिंता सैमसुंग के होल में जाने की है। अब क्या करेंगे राजकिशोर भी, इसी कागज रंगने की नौकरी है सो रंगना तो है...।
मूलतः राजकिशोर जी की चिंताएं दूसरी हैं उन्हें दुख है कि तीन दशकों से मार्क्सवाद हिंदी की आफिशियल विचारधारा क्यों बनी है ...। वे लिखते हैं कि पंद्रह हजार के पुरस्कारों के लिए लोग कुत्तों की तरह भागते हैं। यह कौन सी भाषा है राजकिशोर जी। वैसे आदमी कोयल की तरह गाता है सिंह की तरह ताकतवर होना चाहता है बैल की तरह मजबूत होना चाहता है तो लालची वह कुत्ते की तरह ही होगा... इस पर रोष कैसा...। आदमी के आदमी की तरह होने की बात कभी दिमाग में आती ही नहीं...। वैसे लेखक तो ऐसे भी हैं जो पुरस्कार की राशि देकर भी उसे अपने नाम से करने से नहीं चूकते।
अब जहां तक गुड गुलगुले और परहेज की बात है तो गुड गुलगुला नहीं है। मुहावरे हमेशा सीधी सादी जनता को चुप कराने के लिए गढे जाते हैं। गुड खाने वाला गुलगुले से परहेज करेगा ही। अब किसी को चिकनाई से परहेज हो तो आपका क्या जाता है। अब कहिए कि हरी मिर्च खाते हैं तो लाल भी खाइए अब इस अंतर को समझना हो तो पाइल्स के मारे बंदों के पास जाइए।
अब शंभुनाथ जी कि चिंता है कि यह विरोध विलासी है तो भइया असली विरोध आप जताइए ना, आप गुड गुलगुले दोनों खा रहे हैं, अब बेचारा परहेजी कहां तक विरोध करे। उसकी इतनी चिंता ही क्यों। अब यह क्या बात हुयी कि कोई कुछ करना चाहे तो आप लगिए सवाल करने कि आपने यह क्यों नहीं किया। कि बहुराष्ट्रीय का हमला नजर आ रहा राष्ट्रीय का घपला नहीं दीखता। कुछ दीख तो रहा है, पहले वह भी कहां दीखता था। आप क्यों केवल देखने वालो को देखने में लगे हैं। कुछ दिखा डालिए आप भी।
साहित्य अकादमी और सर्वोत्कृष्टता का मसला भी जमता नहीं। अकादेमी उत्कृष्टता की कसौटी कहां है। वह प्रचार की कसौटी है बस। इस मुल्क में दर्जनों सर्वोत्कृष्ट हमेशा एक साथ रहते हैं,सबको पुरस्कृत करना कब किसके लिए संभव है, फिर वे शायद उत्कृष्ट काम कर भी ना सकें।
कुलमिलाकर हमें सचेत हो जाना चाहिए इस सैमसुंगी हमले से। बच्चन की कविता की पैरोडी करते हुए कहें तो-
तुम बाजार समझ पाओगे...
तोड मरोड मृदु लतिकांए
नोच खसोट कुसुम कलिकाएं
जाता है न्यूयार्क दिशा को
इसका गान समझ पाओगे...।

यह टिप्‍पणी फरवरी के अतिम सप्‍ताह के आज समाज दैनिक में प्रकाशित हो चुकी है।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

तुम्हारी ट्रेन तो चली जा रही है मिनी

देखो ना मिनी
तुम्हारी ट्रेन चली जा रही है
कोइलवर पुल पर
छुक छुक करती
और एक लडका
दूर इधर नदी के पार
हाथ हिला रहा है तुम्हें
दूर से तुम्हें वह लाल झंडे सा दिख रहा होगा
और तुम चिढ रही होगी
कि तुम्हारा यह प्यारा रंग उसने क्यों हथिया लिया है

पर उसने हथियाया नहीं है यह रंग
यही उसका असली रंग है
इस व्यवस्था की शर्म में डूबकर
लाल हुआ हाथ है वह
ओर इस पूरे शर्मनाक दृश्य को
अपने क्षोभ से भिंगोता हुआ
यह रक्तिम हाथ हिला जा रहा है

इधर तट पर नावें हैं
किनारे से लगी हुयी
इन्हें कहीं जाना भी है
पता नहीं

पर तुम्हारी यह ट्रेन तो चली जा रही है
ये रक्तिम हाथ उसे रोकने को नहीं उठे हैं
वे बस हिल रहे हैं
इस खुशी में कि
तुमने इन हाथों का दर्द समझा
और शर्म से लाल तो हुयी
फिर तो फिराक को पढा ही है तुमने
हुआ है कौन किसी का उम्र भर फिर भी ....
यूं यह फिर भी तो
उम्र भर
परेशान करता ही रहेगा...