बुधवार, 22 जुलाई 2020

रेतीले लोक जीवन को स्वर देने की बेचैन कोशिशें - संदीप निर्भय की कविताएं

संदीप निर्भय  की कविताओं में एक तुर्शी है, खट्टा - मीठापन जो उनकी युवा वय को लेकर सहज है। इनमें रेतीले लोक जीवन को स्वर देने की बेचैन कोशिशें स्पष्ट हैं। एक ओर जहां वे ग्रामीण जीवन की विडंबनाओं को दर्ज करते चलते हैं वहीं दूसरी ओर समय के साथ हो रहे बदलावों को भी चिन्हित करते हैं –

' पर अफ़सोस जब केशर जाटणी मरी 
सिवाय कोयल के 
हरजस गाने वाली कोई नही थी ...'

राजस्‍थान की युवा कविता में आज तमाम ऐसे युवा स्‍वर सामने आ रहे जो बेहिचक रोजाना की राजस्‍थानी बोल-चाल की शब्‍दावली का सहज प्रयोग अपनी कविता में कर रहे हैं। रेवंतदान, राजेन्‍द्र देथा आदि युवा कवियों में लोकभाषा को सहजता के साथ बरतने का हुनर विकसित होता दिखता है। ऐसी कोशिशें हिंदी को ताकत प्रदान करने वाली हैं। सतीश भी राजस्‍थानी लोक के शब्‍दों का प्रयोग बेखटके करते हैं। कहने की एक अलग शैली भी संदीप के यहां आकार लेती दिखती है –

'हे मृत्यु! तू आये 
तो आना 
गजबण की तरह 
फिर खड़ी होकर 
सिराहने मेरे 
...हौले से 
कहना कान में—
'छोरे ओ छोरे 
अब चल 
ईश्वर मर चुका है।'


संदीप की भाषा में जहां-तहां चमक है जो आकर्षित करती है। इस चमक को अभी थिरना और भरपूर निगाह में बदलना है, जिसकी आशा उनसे की जानी चाहिए

'मेरे प्यारे गाँव! कैसे बताऊँ तुम्हें
कि मेरी सिसकियाँ
और दुनिया भर की सारी कविताएँ
एक वैश्विक महामारी के काले पत्थर पर सिर पटक रही हैं।'

संदीप निर्भय की कुछ कविताएं -


गाँव, गली और घर के बारे में सोचता हुआ-1



गाँव—

थार में खड़ी खेजड़ियों पर मिंमझर आ गई होगी

रबी फ़सलें पक गई होंगी

पखेरू गीत गा रहे होंगे

किसानों, मज़दूरों के चेहरे चमक रहे होंगे

कई छोरियाँ ब्याह दी गई होंगी

गाँव की गलियाँ

घर-बीती, पर-बीती और बातों की बातें कर रही होंगी



सुबह—

माँ-बापू ऊँट-गाड़ा लेकर खेत चले गए होंगे

दादी पूजा-पाठ करने के बाद

गायें दुह रही होगी

अनुमान से अधिक दूध देने पर मुस्कराई होगी

कुछ गुनगुना रही होगी बिलावना करती हुई

समूचे घर का झाड़ू निकाल रही होगी

बच्चों को स्नान-पानी कराया होगा

उनके बाल सँवारती हुई

माथे और हथेलियों पर चाँद बनाया होगा

अब चूल्हा सुलगाया होगा पीढ़े पर बैठकर

बनाकर बाजरे की रोटी और राबड़ी

पिछ्ले वर्ष बची सांगरी का तड़का लगाया होगा

इस बीच दादा नें दूजी चाय पी ली होगी

चुनरी का साफा पहनकर

बैठकर तिबारी में

पोते-पोतियों को खिला रहे होंगे या

सुना रहे होंगे बीसवीं सदी की बातें चिलम पीते हुए



तीन बजे—

गायें घर के सामने खड़ी होकर रँभाती होगी

दादी ओढ़ना सँभालती हुई

चारपाई से खड़ी होकर

उन्हें अपने-अपने खूँटों से बाँध रही होगी

फिर नीरा-चारी और पानी पिलाकर

दुधारू गायों के लिए भिगोकर खल

बना रही होगी दुपहर की चाय

चाय पीकर दादा

पड़ोस में ही अब्दुल चाचा के घर चले गए होंगे

बची ज़िंदगी के ढेरिये पर सपनों का सूत कातते हुए

बना रहे होंगे बच्चे रेत पर तोता-मैना आदि

या हँसते, खेलते, रेत उछालते हुए

क’ यानी कबूतर ‘ख’ यानी खरगोश लिख रहे होंगे



शाम—

माँ-बापू थके-हारे खेत से लौट आए होंगे

जैसे शाम होते-होते लौट आते हैं

पखेरू अपने घोंसले में

गाड़े पर से बोझा उतार लिया होगा

अँगोछे से पसीना पोंछते हुए

बैठ गये होंगे लंबी साँस लेकर चारपाई पर

छुटकी बापू के लिए

ठंडे पानी का लोटा भर ले आई होगी

माँ, दादी और छुटकी तीनों मिलकर

निपटा लिया होगा घर का सारा काम

दादी भोजन परोस रही होगी

एक जाजम पर बैठ सभी खाना खा रहे होंगे

खाना खाने के बाद

बच्चे सो गए होंगे दादा से लोक-कथाएँ सुनते हुए



और मैं—

देश के दक्षिण के किसी कोने के किराए के मकान में बैठा

आधी-रात गए लिख रहा हूँ कविता

गाँव, गली और घर के बारे में सोचता हुआ

मेरे प्यारे गाँव! कैसे बताऊँ तुम्हें

कि मेरी सिसकियाँ

और दुनिया भर की सारी कविताएँ

एक वैश्विक महामारी के काले पत्थर पर सिर पटक रही हैं।



केशर जाटणी 2



केशर जाटणी गुलाबी रंग का बूटेदार ओढ़ना 

छींट का घेरदार घाघरा पहनकर 

बांधकर सिर पर सोने का सात-भरी बोरला

आँखों में काजल या सुरमा भरकर

लेकर हाथों में नसवार की डिबिया 

गाँव की गलियों में निकलती 

बूढ़े उसे देखकर मूंछो पर ताँव देते थे

लड़के, लड़कियां दण्डवत करते 

और आस-पास गाँवों की सारी औरतें

उससे बातें करना अपना सौभाग्य मानती थीं  



आदमी के जन्म से लेकर मरण की यात्रा तक 

और तीज-त्यौहार के सारे गीत जानती

कहते हैं कि केशर जाटणी को

पाँच सौ से ज़्यादा गीत 

और सौ से ज़्यादा लोककथाएँ मुख जुबानी थी



गाँव के किसी घर में कोई मांगलिक कार्य 

या देवताओं की रात जगानी

या हरजस गाना होता 

केशर जाटणी को बुलावा दे भेजते 

दस-दस कोसों से बुलावे आते थे 

एक कहने पर ही वह

अपनें घर का काम काज बीच में छोड़ चली जाती थी



आँगन के बीचों-बीच बैठकर केशर जाटणी 

नसवार सूंघकर और रखकर ठुड्डी पर हाथ 

छेड़ती जब गीतों का राग

उसके चारों ओर घेरा डालकर बैठी औरतें 

उसकी राग में राग मिलाती 

बगैर किसी वाद्ययंत्र के 

मीठे गीत सुन-सुनकर 

औरतों के ओढ़नों के फूल सजीव हो जाते 

मुरझाये हुए चेहरे खिल-खिल जाते

लड़कियों की ज़वानी उफान मारती 

बूढ़ो की पगड़ियाँ थिरकने लगती 

पेड़-पौधों की डालियाँ लचक-लचक जाती

गुंबद पर बैठी कोयल शरमा-शरमा जाती थी



और मरे-खपे के पीछे हरजस गाती 

तो उसे नरक न मिलकर 

स्वर्ग के द्वार के पट खुल जाते थे 

पर अफ़सोस जब केशर जाटणी मरी 

सिवाय कोयल के 

हरजस गाने वाली कोई नही थी

और गाँव उसके फूलों के साथ

उम्र-भर ख़जाने की पोटली गंगा में बहा आया था।





खेत 3



किसानों के पसीने की बूँदें 

गिरती है जब 

प्यासी-तपती

धरती पर 

तो रेत में मिलकर खेत हो जाती है।



मुस्कुराना 4



रोटी सेंकती हुई जब 

उसनें पूछा

'है.. ओ..

चटनी कैसी बनीं है?'



तो मैंने कहा

'तेरी तरह बहुत तीखी'



मेरी बात सुनकर उस वक्त 

उसका मुस्कुराना 

घीलोड़ी से 

चटनी में घी रीताने जैसा था।



किसान की औरत 5



किसान की औरत जब

दूह रही होती है 

गाय,भैंस या बकरी

तो दूध की धार 

...रचती है 

दुनिया का महानतम संगीत 



किसान की औरत जब

गोबर का बठळ भर

थाप रही होती है थेपड़ियाँ

तो थेपड़ियों में 

...समेटती है 

दुनिया-भर की सभी औरतों का दुख 



किसान की औरत जब

कर रही होती है 

खेत में लावणी

तो चूड़ियों की खनखन

...लिखती है 

कवियों की पत्नियों की विरह वेदना



किसान की औरत जब 

लगाती है माथे पर बिंदी 

और भरती है 

मांग में सिंदूर 

तो धरती हो जाती है सुहागीन



किसान की औरत जब

पसीने से

लगा रही होती है आटा

तो तवे पर होता है 

दुनिया-भर के सभी भूखों का रुदन



और किसान की औरत जब

सेंक रही होती है रोटी 

तो रोटी की भाप

धुंवे का थाम हाथ

खड़ी हो जाती है संसद में जाकर नंगी।



यह बेटी किसकी है 6



अब जब ससुराल से बेटी आती है मायके

तो बस स्टैंड उतरकर 

हाथों में थैला लिए 

चली जाती है चुपचाप 

गुवाड़-गली से होती हुई घर की तरफ़ 



गाँव नहीं पळूसता बेटी का सिर 

और कहाँ पूछता है 

ससुराल वालों के हाल-चाल 

मेह-पाणी,खेती-बाड़ी के समाचार



भतीजे सामने दौड़कर 

प्रणाम करते हुए 

नहीं लेते हैं 

बुआ के हाथों में से थैला 

और थैले में 

कहाँ खोजते हैं नींबू रस की फांक 



गली के दूसरे,तीसरे मोड़ से

बगैर कुछ बोले 

गुज़र जाती है सहेलियां 

कुहनियां मारती हुई 

कहाँ करती है हंसी-ठिठोली 



घर आकर माँ-बापू को प्रणाम करती 

साड़ी के पल्लू को सिर से हटाती हुई 

बैठ जाती है 

लम्बी सांस लेकर खटिया पर 

भाई सिर पळूसकर 

चला जाता है काम से कहीं बहार 

और बापू ताश खेलने के लिए 

चले जाते है गुवाड़ में 

फिर माँ-बेटी 

करती रहती है दुःख-सुख की बातें 



उसे आये चार-पाँच दिन ही तो हुए 

कहाँ गई है गाँव की औरतें

विदाई गीत गाती हुईं 

सिवाय माँ के 

बस स्टैंड तक छोड़ने के लिए 

खड़ी रहती है वो मौन धारे 

बस के इंतज़ार में 

सिर्फ़ एक डोकरा खाँसता हुआ

किसी लड़के से पूछता है

"यह बेटी किसकी है?"

मोरनी की तरह आँसू ढळकाती 

उनके तरफ़ देखती 

और साड़ी के पल्लू को 

सिर पर लेती हुई चढ़ जाती है बस में।



गंगा में छोड़कर आऊंगी 7



उन दिनों मैं कोलकाता था 

जिन दिनों 

रामू काको कर्ज़ के मारे

खेत की झोंपड़ी में 

जहर पीकर

कर ली थी आत्महत्या 



उन दिनों मैं आसाम था

जिन दिनों 

गली में छाणां चूगती 

छोरी के साथ 

हुआ था बलात्कार 

गुवाड़ एकदम चुप रहा 



उन दिनों मैं पुणे था 

जिन दिनों 

अब्दुल चाचा की गाय 

अर्धरात्रि में 

ले गया था कोई

खूँटें से खोलकर  



उन दिनों मैं दिल्ली था 

जिन दिनों 

ऊँट-गाडे पर लादे सामान 

रो रहे थे

कई दलित परिवार 



उन दिनों मैं हिसार था

जिन दिनों 

खेताराम को 

अपनें बापू के ओसर के लिए 

बेचना पड़ा 

गाजर,बोरिया के भाव 

दसेक बीघा खेत 



उन दिनों मैं मारवाड़ जंक्शन था

जिन दिनों 

गिर गये थे

अडाण से तीन मजदूर 

गाँव नहीं गया उनके पास 



जब आज मैं घर आया 

तो देखता हूँ 

गा रहे थे मोर शोकगीत

गाँव की जल चुकी चिता में 

विधवा बुआ 

चुग रही थी अस्थियाँ 

मुझे देखकर बोली-

आओ..बेटा..आओ 

अब इन्हें 

गंगा में छोड़कर आऊंगी

क्या तुम मेरे साथ चलोगे.?”



नारे लगाती भीड़ 8



शहर था 

लोग थे

भोग था 



आग थी

धुआँ था 

राख थी



खून था 

चीत्कार थी 

आँसू थे



और नारे लगाती भीड़ 

नीड़ में 

पनपते प्रेम को

अनाथ कर आगे बढ़ गई।



रोटी-9



पिछले कई महीनों से वह

बनाता रहा है रोटी

पर बहन की तरह

गोल-गोल रोटी बेलकर

अँगुलियों से तवे पर

घुमा-घुमाकर

फुला-फुलाकर कहाँ सेंक पाया है



जैसे-तैसे बेलकर रोटी

सेंकता जब तवे पर

कभी अधकच्ची रह जाती

कभी जल जाया करती



आज माँ की तरह उसने

बाएँ पाँव के घुटने पर

रख दी ठोड़ी और

कुछ सोचता, गुनगुनाता हुआ

गोल-गोल रोटी बेल दी है

फुला-फुलाकर सेंक दी है



और खिड़की पर चोंच मारती

गौरैया को देखते हुए

हौले-से कहा—



बापू ! अब तेरा कपूत बेटा

बेरोजगार नहीं रहा

घर की थाली में

लगावण के साथ

रोटी परोसने लायक हो गया है।



धरती के गीत 10



जीवन के हवन में जब 

दे रहा होता हूँ 

पसीने की बूँदें की 

...आहुति 

तो उस वक़्त मैं 

मंत्रोच्चार नहीं करता 

न ही स्मरण करता हूँ 

इष्ट देवता का 

और न ही लेता हूँ 

पहली प्रेमिका का नाम 

बल्कि बीड़ी पीता 

जूती में से 

रेत झाड़ता हुआ 

गा रहा होता हूँ 

हल की नोक पर ठहरी धरती के गीत।



मृत्यु 11



हे मृत्यु! तू आये 

तो आना 

गजबण की तरह 

फिर खड़ी होकर 

सिराहने मेरे 

...हौले से 

कहना कान में—

'छोरे ओ छोरे 

अब चल 

ईश्वर मर चुका है।'


संदीप निर्भय

गाँव-पूनरासर, बीकानेर (राजस्थान)

प्रकाशन-  हम लोग (राजस्थान पत्रिका), कादम्बिनी, हस्ताक्षर वेब पत्रिका, सदानीरा, पोषम पा पेज,
राष्ट्रीय मयूर, अमर उजाला, भारत मंथन, प्रभात केसरी, लीलटांस, राजस्थली, बीणजारो, दैनिक युगपक्ष आदि पत्र-पत्रिकाओं और फेसबुक पेजों पर हिन्दी व राजस्थानी कविताएँ प्रकाशित।

हाल ही में बोधि प्रकाशन जयपुर से 'धोरे पर खड़ी साँवली लड़की' कविता संग्रह आया है।

सोमवार, 20 जुलाई 2020

भारत के नाम पत्र - गैब्रिएल रोसेनस्तोक - आयरिश कवि

भारत!
क्या देवी सरस्वती मुस्कुराएंगी
जब कैद करोगे तुम अपने कवियों को?

कोरोना से संक्रमित कर 
विभ्रमित कवि को
जब तुम बिठाओगे 
पेशाब के दलदल में
भारत!
क्या सरस्वती खुश होंगी?

वरवर राव
भेज रहा हूं तुम्हारे लिए
ये शब्द
ताकि ये जगमगा सकें
सूर्य रश्मियों में बिखरे 
धूल के कणों की तरह.

ओह भारत!
क्या तुम दोगे इस बात की इजाज़त
की उनकी अंधेरी कोठरी में
सुबह की किरणें 
प्रवेश कर सकें
बग़ैर तलाशी के
या फिर चंद्रमा की चांदनी
या सुदूर तारों की झिलमिल?

भारत!
सरस्वती  की दिव्य मुस्कान
अब उनके होठों पर मुरझाने लगी है.....

हिंदी अनुवाद - अमिता शीरीं

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

अंधेरे दौर में जनविमर्श : सुधीर सुमन


22 जून 2013

अनंत कुमार सिंह, अच्युतानंद मिश्र और कुमार मुकुल की किताबों पर  एक निगाह


एक ऐसे दौर में जब अखबारों के संपादक प्रगतिशील जनवादी आकांक्षाओं वाले साहित्य को छापने के बजाए उसका उपहास उड़ाने को अहमियत दे रहे हों और पूरी नई पीढ़ी के भीतर सर्वनकार और आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति को खूब प्रोत्साहित किया जा रहा हो, तब उन साहित्यकारों की आकांक्षाओं की थाह लेना ज्यादा सार्थक प्रतीत होता है, जो साहित्य को आज भी बदलाव का माध्यम समझते हैं और जो विचारधारात्मक मूल्यों की पहचान, उन मूल्यों को बचाए रखने की चिंता और नए जनपक्षधर मूल्यों की तलाश को ज्यादा अहमियत देते हैं।

हाल में मुझे तीन पुस्तकें मिलीं। पहला कहानी संग्रह है कथाकार अनंत कुमार सिंह का- ब्रेकिंग न्यूज। शीर्षक कहानी खुद ही एक ऐसे साहित्यकार के बारे में है जिसकी एक इलेक्ट्रानिक चैनल का एक्सीक्यूटिव प्रोड्यूसर बनने के बाद साहित्य की दुनिया में भी पूछ बढ़ जाती है, पर वह अपनी सामाजिक नैतिकता खो देता है। औरतें सिर्फ उसके लिए उपभोग हैं और मीडिया महज मालिक के कारोबार का माध्यम। अपने पारिवारिक सामाजिक रिश्तों से भी वह पूरी तरह कट जाता है।

शिक्षा (लपटें), खेती (मुआर नहीं), कृषि संस्कृति (भुच्चड़), शहरी मेहनतकशों की जिंदगी (पहियों पर पहाड़, वाह रे! आह रे! चैधरी मुरारचंद्र शास्त्री) के प्रति लेखक गहरे तौर पर संवेदित है। ये अपने ही अहं और कुंठा में डूबे आत्मकेंद्रित मध्यवर्गीय व्यक्ति की कहानियां नहीं हैं। और ऐसा नहीं है कि पुराने समाज के प्रति कोई अंधमोह है इनमें, वहां के शोषण और उत्पीड़न की स्मृतियां, खासकर अपने हक अधिकार से वंचित लोगों और अपने प्रेम से वंचित स्त्रियों (बसंती बुआ, मुखड़ा-दुखड़ा-टुकड़ा!) की बहुत मार्मिक स्मृतियां हैं, जो पाठक की चेतना को लोकतांत्रिक बनाती हैं। शहर और गांव और संगठित और असंगठित श्रमिकों को एकताबद्ध करने का स्वप्न (रात जहां मिलती है) भी इनमें है। कहानी संग्रह का समर्पण भी गौर करने लायक है- इस धरती को जहां रहता हूं मैं अपने शब्दों के साथ।

अपनी धरती और धरतीपुत्रों से जुड़कर उनकी व्यथाओं को कविता में लाने की ऐसी ही चिंता अच्युतानंद मिश्र के पहले कविता संग्र्रह ‘आंख में तिनका’ की कविताओं में दिखाई देती है। इसमें बदलते हुए खतरनाक समय की पूरी पहचान है और अपनी भूमिका की तलाश भी। संग्रह की पहली ही कविता है- मैं इसलिए लिख रहा हूं/ कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथ से जुड़कर/ उन हाथों को रोकें/ जो इन्हें काटना चाहते हैं।

अच्युतानंद की कविताओं को पढ़ते हुए प्रगतिशील क्रांतिकारी काव्य धारा की मुहावरा सी बन गई कई पंक्तियों की याद आती है, पर यह नकल नहीं, बल्कि उस काव्य पंरपरा का जबर्दस्त प्रभाव है। जो चीज इन कविताओं को उन कविताओं से अलगाती है, वह है इनमें मौजूद अपने समय के संकट की शिनाख्त। एक कविता का शीर्षक ही है- इस बेहद संकरे समय में। समय जो है वह मनोनुकूल नहीं है, चीजें सारी बेतरतीब हैं, जिनके बीच एक सलीके की तलाश है कवि को, सड़कें बहुत तंग हैं, पर कवि का मानना है कि ‘बड़े सपने तंग सड़कों/पर ही देखे जाते हैं।’ जाहिर है समय के संकटों का अहसास तो है पर वैचारिक पस्ती नहीं है, क्योंकि संकरे समय में रास्ते की तलाश भी है।
बेशक, वर्तमान से कवि संतुष्ट नहीं है, पर आस्थाहीनता की आंधी में वह बहने को तैयार नहीं है, उसे पूरा भरोसा है कि मेहनतकश हाथों से ही ‘दुनिया का नक्शा’ बदलेगा। इन कविताओं में शहर हैं, जो बस्तियों की छाती पर पैर रख जवान हुए हैं, देश है, जिसमें बच्चे भूखे ठिठुर रहे हैं, ‘किसान’ धीरे-धीरे नष्ट किए जा रहे हैं, नौजवान मरने को अभिशप्त हैं, औरतें उदास, उत्पीडि़त और पराधीन हैं, बच्चे उपेक्षित हैं। लेकिन शासकवर्ग देश ही नहीं, पूरी पृथ्वी की ही रक्षा का नाटक करता है। लेकिन त्रासदी यह है कि इस नाटक के बीच ‘डूबते किसान को कुछ भी नहीं पता/ डूबती हुई पृथ्वी के बारे में’ (आखिर कब तक बची रहेगी पृथ्वी)।
एकालाप’ महज किसी लंबी कविता का शीर्षक ही नहीं है, बल्कि हर कविता मानो खुद से भी जिरह है। यही अगर इस संग्रह का शीर्षक भी होता, तो शायद ज्यादा उचित होता। यह एक ऐसी कविता है जिसमें कवि की वैचारिक बेचैनियों के कई स्तर नजर आते हैं और साथ ही एक जनधर्मी काव्य मुहावरा विकसित करने की जद्दोजहद भी- ‘सुरक्षित था जीवन/ आरक्षित था मन/ केंद्रित था पतन/ और ठगा जा रहा था वतन।’
संग्रह के फ्लैप पर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने सही ही लिखा है कि अच्युतानंद पर्यवेक्षक कवि नहीं, अतटस्थ रचनाकार हैं। 

पर्यवेक्षण और परिवर्तन की चाहत का ऐसा ही द्वंद्व कुमार मुकुल की आलोचनात्मक लेखों के संग्रह ‘अंधेरे में कविता के रंग’ में दिखाई देता है। कवि से कर्ता होने का उनका आग्रह रहता है। वे श्रम की कीमत बताने तक कवि की भूमिका नहीं मानते, बल्कि श्रम की लूट को नष्ट करने का तरीका बताने का भी आग्रह करते हैं। राजनीतिक कविताआंे की जरूरत, अनिर्णयों का अरण्य बनती हिंदी कविता, अंधेरे में की पुनर्रचना जैसे लेख हिंदी कवियों से निर्णायक भूमिका की अपेक्षा रखते हैं। आलोचक का जो वैचारिक आग्रह कवि से है, वही समाज से भी है, इसलिए भी कि कविता को समाज से अलग करके वह कहीं नहीं देखता। इसलिए कविता में आलोचक को स्त्रीविरोधी कोई स्वर भूले से भी मंजूर नहीं है। रघुवीर सहाय और धूमिल से इसी कसौटी पर कुमार मुकुल अपनी असहमति जाहिर करते हैं। सविता सिंह, अनामिका, निर्मला पुतुल आदि कवियत्रियों की कविताओं के मूल्यांकन के दौरान स्त्रियों के प्रति उनकी संवदेनशीलता और उनकी मुक्ति के प्रति अटूट पक्षधरता दिखाई पड़ती है। अंधविश्वास, अवैज्ञानिकता, तथ्यहीनता और तर्कहीनता आदि के वे मुखर विरोधी हैं और इस आधार पर अपने प्रिय कवियों की पंक्तियों की भी आलोचना करने से नहीं चूकते। किसी आलोचक द्वारा अपने पसंद-नापसंद को भी निरंतर जांचना और अपनी आलोचनात्मक समझ को दुरुस्त करते रहना सकारात्मक प्रवृत्ति है, जो आजकल के कम आलोचकों में दिखाई पड़ती है। फिर दूसरों की समझ और राय को भी महत्व देने और अपने आलोचनात्मक विवेक के निर्माण में उसे भी जगह देने की जो आदत है, वह भी उनकी आलोचना पद्धति की खासियत है। वे प्रगतिशील जनवादी शब्दावलियों का इस्तेमाल अपेक्षाकृत कम करते हैं, पर उनकी आलोचना में निहित जो वैचारिक आकांक्षा है, वह निःसंदेह प्रगतिशील-जनवादी है, आधुनिक है। उनके आलोचक ने विचारों और सपनों में यकीन नहीं खोया है।

कुमार मुकुल की आलोचना बहस के लिए उकसाती है। खासकर दो या कभी कभी तीन कवियों को आमने सामने रखकर तुलना करते हुए जो निर्णय वे सुनाते हैं, उसमें अच्छी कविता और बुरी कविता का जो वर्गीकरण होता है, उस वर्गीकरण से बहसें रह सकती हैं। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उनकी आलोचना पाठक को हिंदी कविता के व्यापक संसार से परिचित कराती जाती है। जिन कवियों और कविताओं को कुमार मुकुल परशुरामी मुद्रा में ध्वस्त करते हैं, उनके प्रति भी एक जिज्ञासा पनपती है कि जरा उस कविता को देखा जाए एक बार, जिससे मुकुल इतना क्षुब्ध हैं। कुल मिलाकर ‘अंधेरे में कविता के रंग’ की आलोचना पाठक को हिंदी कविता और अपने समय के जरूरी सवालों और बहसों से जुड़ने को उकसाती है, यही इस किताब की खासियत है।

पुस्‍तकें - 


ब्रेकिंग न्यूज (कहानी संग्रह)
अनंत कुमार सिंह
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, मूल्य: 120 रुपये
आंख में तिनका (कविता संग्रह)
अच्युतानंद मिश्र
यश पब्लिकेशंस, दिल्ली, मूल्य: 150 रुपये
अंधेरे में कविता के रंग (आलोचना)
कुमार मुकुल
नई किताब, दिल्ली-92, मूल्‍य: 295 रुपये
                                        (समकालीन जनमत जून २०१३ से साभार)