बुधवार, 5 अगस्त 2020

जो नहीं अख़बार में -

दर्द में डूबी अजानी सिसकियों की बात सुन ।
जो नहीं अख़बार में उन सुर्खियों की बात सुन।

अलवर, राजस्‍थान के गजलकार रामचरण 'राग' सामान्‍य निगाह से छूट जा रहे मंजरों को, चुप्प्यिों को देखते व सुनते हैं और उसे गजलों में जगह देते हैं। समय की विडंबनाओं का शिकार आज सहज जीवन कैसे हो रहा इस पर निगाह है लेखक की और इन त्रासदियों को वह बारहा पूरी शिद्दत से अभिव्‍यक्‍त करता चलता है।
इस सब के बावजूद आशा की अमर दूब लेखक के भीतर जड़ें जमाए रहती है, समय की सख्‍त चट्टानों को झेलतीं वे बारहा पचका फेंकती रहती हैं और हरियाली को नया जीवन देती चलती हैं।

रामचरण 'राग' की गजलें  -


1.
दर्द में डूबी अजानी सिसकियों की बात सुन ।
जो नहीं अख़बार में उन सुर्खियों की बात सुन।


चीख की आवाज़ तो सुननी पड़ी है लाज़मी 
सुन सके तो आज मेरी चुप्पियों की बात सुन ।


खुशबुओं की चाह में काँटों से घायल हो गईं
फूल से क्या कह रहीं इन तितलियों की बात सुन ।


हौसला रख जो नदी की धार से टकरा गईं 
क्या रही मज़बूरियाँ  उन कश्तियों  की बात सुन ।


जाल - बगुले - तेज़ धारा रोज़ के हालात में
जी रही हैं किस तरह से मछलियों की बात सुन ।


हर कदम पर एक दहशत साथ चलती है सदा 
क्या गुज़रती है दिलों पे लड़कियों की बात सुन ।


अब न फागुन, अब न सावन, अब न मेले, आज फिर -
कौन तुझको याद करता - हिचकियों की बात सुन । 

2.
रोज़ आती है सुबह यूँ तीरगी का ख़त लिए 
बाँचती मासूम नज़रें आँख में दहशत लिए 

नौकरी कब तक मिलेगी जाने उस मज़लूम को
दर-ब-दर वो घूमता है हाथ में किस्मत लिए

छिन गई पाकीज़गी या खो गई शर्मो -  हया
आ गई बाज़ार में क्यों औरतें अस्मत लिए

खेत - घर गिरवी रखे सब रंग लाई मुफ़लिसी
गाँव से मज़बूर आया साथ में गुरबत लिए 

गैर के घर भी मिलेगी  क्या उसे सचमुच खुशी
एक लड़की सोचती है प्यार की हसरत लिए

3.
हताशा को कहाँ दिल में बसाने की ज़रूरत है
दिलों में दीप आशा के जलाने की ज़रूरत है 

मुसीबत का समय हो तो, ज़रूरी हौसला रखना
मुसीबत में खुदी को आज़माने की ज़रूरत है

समझते हो भला क्यों कैद तुम घर पर ठहरने को
दरो - दीवार  ऐसे  में सजाने की ज़रूरत है 

अँधेरा  है  बहुत  माना  मगर  ऐसे अँधेरे में
उम्मीदों का नया सूरज उगाने की ज़रूरत है

जिसे सुनकर ठहर जाए कदम बढ़ती क़यामत के
हमें वो ज़िन्दगी का गीत गाने की ज़रूरत है

उदासी बस्तियों में खौफ़ का मंजर दिखाई दे
समझ लेना वहाँ दो वक्त खाने की ज़रूरत है

यहाँ ऊँची बुतों  से या कि मन्दिर और मस्जिद से
कहीं ज्यादा हमें इक आशियाने की ज़रूरत है

हमारे हाथ भी हैं और हाथों में हुनर भी है
हमारी भूख को रोज़ी कमाने की ज़रूरत है

4.
हमारे हौसले जिस दिन सही रफ़्तार पकड़ेंगे ।
किनारे छोड़ कर उस दिन नदी की धार पकड़ेंगे  ।


समय रहते व्यवस्था ने अगर अवसर दिया इनको
यही जो आज खाली हाथ हैं  औज़ार पकड़ेंगे  ।


अगर रुज़गार मिल पाया नहीं इन नौजवानों  को 
कहीं ये राह भटके तो यही हथियार पकड़ेंगे  ।


अभी है वक़्त सिखलादो इन्हें तहज़ीब पुरखों की 
 बहुत मुमकिन है' वरना ये नया किरदार पकड़ेंगे ।


हवाएं रुख़ बदल कर चल रही हैं आजकल यारों
हवा के साथ जाकर कौनसा  व्यापार पकड़ेंगे ।


हमें तो शौक उड़ने का गगन में पंछियों जैसा 
जिन्हें चस्का गुलामी का वही दरबार पकड़ेंगे ।

5.
मर्यादा को तोड़ रहा था सागर भी
इन आँखों ने देखा ऐसा मंज़र  भी


रोज़ नये  तूफ़ान  गुजरते बस्ती से
इक वीराना    रहता मेरे भीतर भी 


खुद से लड़कर आखिर जब मैं जीत गया
तब ही आया पास विजय का अवसर भी


फल से लदकर जैसे-जैसे पेड़ झुका
वैसे - वैसे बरसे  उस  पर  पत्थर भी 


उम्मीदों की उजली धूप निकल आए
दिल से निकले अँधियारे का इक डर भी


साँझ  ढले  तक  रस्ता  देखा  यादों ने
हो न सका वो मेरा , अपना होकर भी 


बाज़ारों के साथ बढ़ा क़द सपनों का
पाँव निकलते अब चादर से बाहर भी


परिचय

नाम : राम चरण राग 
पिता  : स्व श्री राम सहाय
जन्म : 13 .12 .1962, जुबली बास                अलवर 
शिक्षा : एम ए ( हिन्दी, समाज शास्त्र) बी एड़
निवास :  10/326, गली नं० 1, जुबली बास अलवर
सम्प्रति : व्याख्याता हिन्दी, स्कूल शिक्षा, दिल्ली प्रशासन ( तिलक नगर) नई दिल्ली 

संपादन : 1.सृजाम्यहम् ( सृजक संस्थान की स्मारिका
2. मेवात नामा ( मेवात की संस्कृति पर आधारित पत्रिका)
3.दर्पण ( विद्यालय की वार्षिक पत्रिका)

प्रकाशित कृति : 1.समय कठिन है ( 2017 में नमन प्रकाशन दिल्ली)  समकालीन गीत संग्रह

अप्रकाशित ( शीघ्र प्रकाश्य) : 1.मैं लहरों पर दीपदान सा ( गीत संग्रह)
2. गीताश्री ( श्रीमद्भागवत गीता का पद्यानुवाद)
3. राम नाम है सत्य ( दोहा संग्रह)
4. इक ढलती सी शाम ज़िन्दगी व दर्द का तर्जुमा ( ग़ज़ल संग्रह)

लेखन : दोहा, गीत, ग़ज़ल, नवगीत, मुक्तक, मुक्त छंद, छंदबद्ध कविताएं सन 1978 से लगातार काव्य की प्रचलित विधाओं में लेखन जारी

सम्मान :1. सांदिपन गौरव सम्मान - 2006
2. प्रथम भगवान दास स्मृति सम्मान 2007
3. काव्यश्री सम्मान 2010

साहित्यिक - सामाजिक संस्था - सृजक का संस्थापक सचिव

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

खुद के विरोध में - राजाराम भादू

अनिल अनलहातु - बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ

अनिल अनलहातु के कविता-संकलन की अधिकांश कविताओं में अन्य साहित्यिक- कला कृतियों/ इतिहास की घटनाओं, पात्रों और स्थानों के प्रसंग और संदर्भ आते हैं। संकलन पर चर्चा से पहले, मुझे लगता है, हाल की एक घटना का संक्षिप्त विवरण देना जरूरी है जो मेरे हिसाब से इस कृति से संदर्भित है।

१.
यह प्रसंग फेसबुक पर मौजूद है। एक फेसबुक लाइव कार्यक्रम में कवि अदनान कफील दरवेश ने अपने कविता- पाठ के साथ कुछ चर्चा भी की। उन्होंने अपनी वेदना व्यक्त करते हुए कहा कि जब बाबरी मस्जिद का फैसला आया तो हिन्दी ( जगत) में एक अश्लील शांति पसरी हुई थी। जब मस्जिद गिरायी गयी तब ऐसी शांति नहीं थी बल्कि कविता लिखने की होड थी। सबके सामने अपने को सेक्युलर प्रूव करते का चैलेंज था और उस वक्त सभी ने सिद्ध किया कि हिन्दी सेक्युलर भावों पर खड़ी है और हिन्दी सांप्रदायिकता की राजनीति के खिलाफ है।

धीरेश सैनी ने उनके इस वक्तव्य को सवाल की तरह जारी किया। आनंदस्वरूप वर्मा ने इस पर प्रत्युत्तर में लिखी एक लंबी पोस्ट के जरिए बताया कि कैसे दिल्ली से अनेक रचनाकार- बुद्धिजीवी घटना के तत्काल बाद लखनऊ गये और कैसे उन्होंने लखनऊ के लेखक- संस्कृतिकर्मियों के साथ मिलकर विरोध- प्रदर्शन किया। उन्होंने बाद में भी की गयी कई कार्यवाहियों का विवरण देते हुए आगे संयुक्त प्रतिरोध का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में अभिषेक श्रीवास्तव ने अपनी पोस्ट में बाबरी विध्वंस के बाद के वर्षों में देश भर में लंबे समय तक चली सिलसिलेवार प्रतिरोध कार्रवाहियों का विस्तृत विवरण दिया है।

मुझे ही नहीं, कइयों को लगता है कि अभी भी अदनान के सवाल को सही जबाब नहीं मिला। उस फैसले पर तो वैसी प्रतिक्रिया नहीं ही थी, यह सच्चाई है। लेकिन हिन्दी के साहित्यकार ही क्या, विपक्ष की तमाम राजनीतिक पार्टियां भी फैसले पर क्या बोल पायी थीं।‌ इसका एक बड़ा कारण यह है कि साम्प्रदायिक पक्षों से बहसों में उन दिनों यही कहा जाता था कि वे न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करें और कम से कम उस पर तो भरोसा करें। मस्जिद गिराने की कार्यवाही साफतौर पर गैर- कानूनी और आक्रामक थी। न्यायालय का निर्णय एक अलग प्रतिफलन था और उस निकाय ने अभी हाल तक अपना विश्वास नहीं खोया था। आप सीएए- एनआरसी विरोधी आंदोलन के संदर्भ में भी रचनाकार- संस्कृतिकर्मियों की भूमिका को देख सकते हैं। बेशक, इसकी शुरुआत बड़े शिक्षण- संस्थानों से हुई, फिर सडकों पर आन्दोलन की अगुवाई में मुस्लिम महिला और युवा जुड़े, किन्तु अपनी सीमाओं और क्षमताओं के साथ हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवी भी उनके साथ खडे हुए। दिल्ली दंगों की आड में हुआ दमन  भी उनके हौसले पस्त नहीं कर पाया लेकिन बाद में कोरोना के लाकडाउन ने ही आन्दोलनकारियों को घरों की चाहरदीवारी में पहुंचा दिया ।

बहरहाल, राजनीतिक घटनाओं का असल जबाब तो राजनीति से ही दिया जाना है और वह इस समय पस्तहिम्मत है। हालांकि सत्ता के माफिक फैसले देने के लिए जाने जाने वाले एक न्यायाधीश को जब राज्य सभा की सदस्यता बख्शी गयी तो राजनीतिक दलों सहित देश के तमाम बौद्धिक हल्कों से इसकी भर्त्सना की गयी। न्यायिक निकाय के क्षरण को लेकर आलोचना पर एक व्यक्ति अभी भी अवमानना की कार्यवाही झेल रहा है। तथापि, हिन्दी के साहित्य क्षेत्र में भी कमजोरियों से नकारना सच से मुंह चुराना है। वहाँ विचलन, विघटन और पतन भी है और राम मंदिर की नींव- पूजा के दृश्यों पर सच से गहरे सरोकार रखने वाले भी अवसन्न हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य व कलाएं भिन्न तरह से भी प्रतिक्रियाएं करते हैं।

२.
अनिल अनलहातु की बाबरी मस्जिद... संकलन की लगभग आधी कविताओं के मुख्य स्वर में आत्म- स्वीकार और आत्म- धिक्कार है। बाबरी मस्जिद शीर्षक दोनों कविताओं के आरंभ में बाबरनामा  से एक- एक अंश उद्धरित किया गया है। ये इस प्रकार हैं:

हे मेरे स्रष्टा, हमने अपनी आत्मा पर अत्याचार किया है, और यदि तू हमारे प्रति क्षमादान में उदार न हुआ तो यह निश्चित है कि हमारी भी गणना अभिशप्तों में होगी।

भीतरी घाव के धुएं से बच
आकबत नज्रे आह होती है,
एक दिन दिल न तोड- आह न ले
एक दुनिया तबाह होती है।

बाबरनामा में हो सकता है, यह बाबर का कुबूलनामा हो, लेकिन इन कविताओं में कवि बाबरी ध्वंस की जिम्मेदारी को खुद पर आयत्त करता है-
मैं जीता नहीं हूं, मैं हारता हूं,
हारते हुए भी हारता ही हूं
और हारते हुए ही जीवन जीता हूं।

यह संकलन २०१८ में प्रकाशित हुआ है और इन दो वर्षों में देश की नदियों में जाने कितना पानी बह गया ! कवि की आसन्न आशंका एक वास्तविकता में बदल गयी है :
और मैं अब इसका बाशिंदा हूं
क्योंकि वे नहीं हैं,
वे नहीं रहें
वे खत्म कर डाले गये
वे अब मारे जा रहे हैं
किसी दूर देश के संदर्भ में लिंचिग का आया संदर्भ इस देश में एक परिघटना में बदल गया है:
सामान्य एक आदमी को
असामान्य बनाकर
मार डालना हमारी
उपलब्धि है।
आत्म- प्रवंचना की आत्महंता स्थिति पर प्रश्नांकन है-
आखिर वह कौन- सी 
प्रक्रिया है
जो उगलवा लेती है
शब्द उससे
खुद के खिलाफ ?
एक कविता ,विद्रोही आत्मा ,में कवि का आत्मावलोकन इस प्रकार है-
मैं एक शर्म में जीता हूं,
एक शर्म को जीता हूं,
जी.... ता नहीं हूं मैं
हारा हूं/ हारता ही रहा हूं
बस्स जीता हूं
एक शर्म जीता हूं
शर्मसार हूं।
कविताओं की विशेषता यह है कि ये पढने वाले में भी अपराध- बोध की प्रतीति कराती हैं। जीसस के शब्दों को कवि कुछ यूं उलट देता है -
... पिता! उन्हें कभी माफ नहीं करना
क्योंकि वे सारे जानते हैं
कि वे क्या कर रहे हैं।

कवि के अनुसार यह पूरा देश कुहरे और कुहासों से भरा है। इसके बाबजूद कवि आत्महत्या के विरुद्ध है। इन हताशाकारी मंजरों और ग्लानि- भाव से वह कोई विरेचन नहीं कर रहा बल्कि उद्वेलन के लिए बैचेन है। मैं खोकर खुद को ,खुद को पा रहा हूं। एक कविता में वे विश्व- विजेता सिकंदर, तैमूर और चंगेज खां के आतंक और उनके नष्ट हो जाने का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि आदमी के भीतर का कण कब तरंग में रूपायित हो जाएगा, कौन जानता है?
इन कविताओं में बुद्ध, उनके भिक्षु- भिक्षुणी और अन्य प्रसंग भी यत्र- तत्र आते हैं। मुझे लगता है, ये कवि के आत्मसंघर्ष की दार्शनिक दिशाएं हैं जिनसे वह दुख, करुणा और मूल्यवत्ता के सहसंबंध को स्थापित करने का काव्यात्मक उपक्रम करते हैं। जैसे कि-
जीवन के बिना पर
किसी भी पुरानी ध्वंस सभ्यता के
किसी नमूने की
प्रासंगिकता क्या है?

जब वह अपने लिए ऐसी भाषा प्रयुक्त कर सकता है तो आप कल्पना कर सकते हैं कि उन कथित समानधर्माओं के लिए उसने कैसी भाषा इस्तेमाल की होगी जो विचलित और पतित हो चुके हैं। इसके औचित्य को लेकर मुझे भी एक प्रसंग ही याद आ रहा है। भंवरी बलात्कार कांड पर जब न्यायालय ने यह फैसला दिया कि गाँव के उच्च बुजुर्ग ऐसी हरकत नहीं कर सकते तो मराठी आपलां महानगर के संपादक निखिल वागले ने बहुत तीखा संपादकीय लिखा। नतीजतन उन पर कोर्ट की अवमानना की कार्रवाई हुई। उन्होंने बताया कि वे चाहते तो हल्की भाषा में लिख सकते थे लेकिन इन लोगों की मोटी खाल पर उसका कोई असर नहीं होता।  आज एक वर्ग जब अपने नैतिक मूल्य और संवेदना खो चुका है ,उनके लिए अनिल अनलहातु उचित ही अपनी भाषा और अभिव्यक्ति शैली को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं।

३.
संकलन की बाकी कविताओं में घनीभूत पीडा और आक्रोश की अभिव्यक्ति है। दुनिया में छितराये मूलवासियों से कवि का भावात्मक तादात्म्य सघन है और समानुभूति के साथ वह उनकी ओर से बोलता है। यह भयावह विडंबना है कि दुनिया भर में देशज समुदाय लगभग समान नारकीय जीवन जी रहे हैं और उनके संसाधनों को कब्जाये वर्चस्वशील ताकतें भी विलासिता का समान जीवन जी रहे हैं। अनिल ने आदिवासियों को ही एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा है बल्कि उनके साथ उन तमाम वंचितों को भी शामिल कर लिया है जो तथाकथित विकास प्रक्रिया से बहिष्कृत कर दिये गये हैं। इन " अन्यों" में बेघर, भिखारी,अपाहिज और अर्ध- विक्षिप्त जैसी मनुष्य- इकाइयां तक शामिल हैं जिनकी तादाद लगातार बढ़ती जा रही है।

डोडो कविता में वे हाशिये की ओर धकेली जा रही आदिम जनजातियों की तुलना डोडो पक्षी के रूपक में देखते हैं : डोडो मारीशस में पाए जाने वाले एक विलुप्त पक्षी का नाम है जो आज से ३०० वर्ष पूर्व इस पृथ्वी से लुप्त हो गया, विलुप्त कर दिया गया। एक विशालकाय पक्षी जो हानिरहित था, शांतिप्रिय और अहिंसक था, किसी पर हमले नहीं करता था किन्तु उसमें सर्प की भांति जहर नहीं था, नुकीले और खतरनाक चोंच और पंजे नहीं थे... उसका शिकार कर डाला गया, मार डाला गया, सफाया कर दिया गया। यह अकारण नहीं है कि पुर्तगालियों ने उसे डोडो नाम दिया जिसका पुर्तगीज भाषा में शाब्दिक अर्थ है- मूर्ख। हर वह जाति, नस्ल, सभ्यता या संस्कृति जो अपनी प्रवृत्ति और प्रकृति में शांतिप्रिय और अहिंसक है, जो करुणा, न्याय और शांति पर आधारित है, वह नस्ल, वह सभ्यता, वह संस्कृति चाहे वह इंका हो, एजटेक हो, मये हो, माओरी हो, रेड इंडियन हो- मेसोपोटामिया ( आधुनिक इराक) हो, फारसी हों, कुर्द हों या फिर असुर, राक्षस, अनार्य हों, दानव हों... वे नष्ट कर दिये जायेंगे, विलुप्त कर दिये जायेंगे, सभ्य और आर्य ( अर्थात कथित श्रेष्ठ) संस्कृति उनका होलोकास्ट कर देगी... संपूर्ण विनाश। 

वे अपनी एक कविता में उद्धरित भी करते हैं-
वे पेड - पौधों की  भांति चुपचाप
जीने वाले सीधे लोग हैं।

और ऐसा मानते हुए उन्हे सामान्य मनुष्यता से ही च्युत कर दिया जाता है। उन्होने आगे कहा है-
एक समूचे महादेश को
उसकी भाषा से वंचित कर देना
क्या अपराध नहीं है?

इस अपराध की गंभीरता को जानना है तो आप समाजविज्ञानी प्रो. गणेशदेवी के पिछले दिनों किये भाषा- सर्वेक्षण और उसके निष्कर्ष देखें। देश में जो भाषाएं खत्म हो रही हैं उनमें सर्वाधिक जनजातियों की भाषाएं हैं। यह भी कि एक भाषा के साथ उसके बोलने वालों का इतिहास और संस्कृति भी खत्म हो जाती है।

इन कविताओं में होलोकास्ट बार- बार आता है और रघुवीर सहाय की कविता का हरिकुशना जो फटा घुटन्ना पहने राष्टगीत गाता है, अब वह टेपचू और राम सजीवनों के साथ विलुप्ति के कगार पर है। प्रभुत्व का बुलडोजर ग्रामीण सामाजिक  कार्यकर्ता और प्रतिबद्ध प्रोफेसर की उपलब्धियों को दरकिनार कर उन्हें हाशियाकृत कर देता है।

एक रेलवे प्लेटफार्म पर वंचना झेलते लोगों को देख कवि विस्थापन को पंत की पंक्तियों के साथ इस तरह रखता है-
कहां है भारतमाता ग्रामवासिनी??
क्या देश की आजादी ने उसे
ग्राम से प्लेटफार्म तक पहुंचा दिया है? 

क्योंकि, गाँव भी अब
वह और वहीं नहीं रहा,

आदिवासी युवती मकलू मुर्मू घरेलू नौकरानी के रूप में शहर में खट रही है। उसके त्रासद सपनों में कोई राजकुमार नहीं आता। उसके लिए भाषा का मतलब आदेश हैं। उसके होठों पर हंसी देखना एक लंबा और ऊबाऊ इंतजार है।
ऐसा ही एक रात का चित्र है-
बस- अड्डे के कोने में
एक औरत
गुडमुडियाई लेटी है
और कुछ कुविचार उछल रहे हैं...

उनकी कविता में आया नीग्रो जार्ज अब जार्ज फ्लायड है जिसकी शहायद से उपजे ब्लैक लाइव्स मैटर आन्दोलन ने नस्लभेद के पुराने प्रतीकों को ध्वस्त करते हुए पूरी दुनिया में आलोडन ला दिया है।

अनिल की कविताओं में विश्व-साहित्य और इतिहास -प्रसंगों से जो अनक्डोट आते हैं, वे कई बार पाठ के अवगाहन में अवरोध जैसे लग सकते हैं। लेकिन वस्तुतः ये उनकी कविता को संदर्भ- विस्तार देते हैं। यदि आज मूलवासी वैश्विक स्तर पर संगठित होकर संघर्ष कर रहे हैं तो उनकी कविता का वैश्विक परिप्रेक्ष्य होना चाहिए। हिन्दी कविता में ऐसा कम रहा है जबकि अन्य देशों की कविता में  ऐसे संदर्भ  सामान्य बात हैं। इलियट की एक कविता के अंश में आये संदर्भों का उन्होंने उल्लेख किया है। डब्ल्यू वी यीटस की एक कविता है- माड गान। यह एक आयरिश क्रांतिकारी महिला पर है जिसकी वहाँ प्रतिमा स्थापित है। आयरलैंड से बाहर इसे फुटनोटस के साथ छापा जाता है।

शायद इसीलिए अनिल ने संकलन में कई सम्मतियों को शामिल किया है। उदय प्रकाश के अनुसार अनिल अनलहातु  एक विरल ज्ञानात्मक- ऐन्द्रिकता के ऐसे बौद्धिक युवा कवि हैं जिनकी कविताएँ मुक्तिबोध की कविताओं की पंक्ति में अपनी जगह बनाती चलती हैं। अवधेश प्रीत उनकी कुछ कविताओं को शोकान्तिका की तरह मानते हुए उनमें धूमिल का भी प्रभाव देखते हैं। प्रभात मिलिंद वहाँ सभ्यताओं की अन्तर्यात्रा चीन्ह रहे हैं तो विनय कुमार उनके यहां संदर्भों को उनकी शोधवृत्ति से जोडते हैं। मुक्तिबोध शताब्दी वर्ष के आयोजनों में मेरी कोशिश इस तरफ ध्यान आकर्षित करने में रही कि मुक्तिबोध के तमाम महिमामंडन के बाबजूद कविता और आलोचना पर उनका कितना असर पडा, कभी इसका भी आकलन किया जाये। सच तो यह है कि समकालीन कविता पर रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह का कहीं ज्यादा प्रभाव रहा है। अनिल अपने को मुक्तिबोध और धूमिल ही नहीं बल्कि गोरख पांडेय से घोषित रूप से जोडते हैं। उनके यहां मुक्तिबोध जैसा आत्मसंघर्ष और ज्ञानात्मक संवेदना है तो धूमिल की तेजाबी भाषा तथा गोरख पांडेय- सी जन- संलग्नता। कहना न होगा कि परंपरा में होने का अर्थ अनुसरण नहीं होता और इस कविता में वैश्विक सृजन की भी प्रतिच्छाएं व अनुगूंजें हैं।

#पढते-पढते-४१

बुधवार, 29 जुलाई 2020

मुआवज़ा अगली चीख का निमंत्रण मात्र है - सुमित दहिया

कविताएं  लिखना और कविताओं पर लिखना दो अलग-अलगबातें हैं। कारवाँ  मुकुल जी का ब्लॉग है जिसने मुझे कविता को गंभीरता से बरतना सिखाया। उन्होंने व्हाट्सप्प पर सुमित दहिया की कुछ कवितायें पढ़वायीं। 

कविताएँ बहुत महत्वाकांक्षी हैं सुमित दहिया की - दूर तक पहुँचना और देर तक गूँज देना चाहती हैं। इनसे  गुजरते  हुए  मुझे  यह  सहज  ही  लगा  कि इसके  पदबंधों  में  जबरदस्त  रणन है।  कवि ने  एक - एक  कविता  को कई -कई  बार  लिखा  है। इन  पदबंधो  को  कविता में  ठहरकर देखिए - ग़रीबी का भूगोल , ताक़तवर   सरकारी  जीभ , गर्मागर्म उबलता  हुआ  अप्रैल , व्यवस्था की  पर्ची , आयुष्मान  योजना  के  झुमके इत्यादि। इन  पदबंधों  से  कविता  की  मज़बूत बनक दिखती  है। युवा  कवि ने  इसे  अपने  अनुभव  और श्रम से  अर्जित किया  है। 
कवि रघुवीर  सहाय  की तरह  सूचनाओं  को  कविता  में  बदल पाता है। ज्ञानात्मक सवेंदना  को  कविता  में रूपांतरित कर  सकने  की  यह  योग्यता उसकी  संभावनाओं  को  सम्बल  देती  है। कवि ज्ञान के  कैटरपिलर को  कविता  की  तितली में  बदल  सकता  है। 
कई  कविताओं  में  सुमित दार्शनिकों  के  रोमान से कविता  में  रोशनी भरते  हैं। वे  एक  तत्वदर्शी  की  तरह  काव्यात्मक  स्थापनाओं की  गिरहें  खोलते  हैं  और एक वकील  की  तरह  निष्कर्षों तक  पहुँचने  के  लिए  जिरह  जारी  रखते  हैं -

किताबों  से  निरंतर फ्लाईओवर निकल रहे  हैं 
अत्याधुनिक उपग्रह , उपकरण ,परमाणु क्षमता  वाले  हथियार , रोबोट 
और अर्टिफिफिशल  इंटेलिजेंस जैसा बहुत  कुछ निकल  रहा  है 
हालाँकि प्रगतिशील  जीवन  धारा अच्छी बात  है 
मगर  संपूर्ण  मानव  जाति की  कीमत  पर 
यह  स्वीकार्य  नहीं 

विचार  जीवन  के  आवे  में  धीमी आंच पर  पकता  रहता  है। कवि  के  पास  वह  सब  है जो होना  चाहिए। कुछ, जो  नहीं  है,  वह  धीरे -धीरे आकार  लेगा - संजय  कुमार  शांडिल्य

सुमित दहिया की कविताएं



जमलो मडकम

व्यवस्था के नन्हें कदम बहुत अधिक समय तक
भूख, प्यास और गर्मी बर्दाश्त नही कर पाए
उस गरीब जाड़ में अटका सात दिन पुराना रोटी का टुकड़ा
उसे ताज़ा भोजन का स्वाद देने में नाकाफ़ी साबित हुआ

उसके केवल 12 वर्ष पुराने हाथ मिर्ची तोड़ते थे
संविधान में मौजूद 'बाल मजदूरी निषेध' करने वाले अध्याय से
जहाँ वह अपने सिर के ऊपर से विमान उड़ते देखती
लेकिन उसके लिए कहाँ कोई विमान
या स्पेशल बस आने वाली थी
उसे स्वयं ही नापना था अपनी ग़रीबी का भूगोल

ये कुछ दूसरे किस्म के लोग होते हैं साहब
किसी दूसरे रंग के कार्ड पर
सरकारी गाली, गेंहू, चावल और दाल खाने वाले
किसी और रंग की ताकतवर सरकारी जीभ
सीधा इनके मुँह में थूकती है अपने 'अध्यादेश'

वह एक सुबह निकल पड़ी थी अपने आदिवासी गिरोह के साथ
चमकदार रोशनी वाले शहरी इलाके को पार करती हुई
अपनी ग्रामीण लालटेन की तरफ
जिसकी लौ के आसपास आजीवन जलता है संघर्ष

हाँ, हाँ उसी सुबह 
जब तुम अपने महंगे कप में पी रहे थे
यह गर्मागर्म उबलता हुआ 'अप्रैल'

वह निकल पड़ी थी
अपनी अंतड़ियों के व्याकरण में फैली बांझ भूख को सहन करती हुई
खाली वीरान सड़को को घूरती हुई
उसने अनेक बार हवा में अपने दांत गड़ाए थे
बेरहम किरणों से मुँह धोया था
इस बात से बिल्कुल अंजान कि यह कोरोना क्या बीमारी आई है
जिसने उसके हाथों से मिर्च और रोटी दोनो छीन लिए

घर से कुछ किलोमीटर पहले ही लड़खड़ाते जा रहे थे उसके कदम
तुम्हे याद है, तुम्हारे हॉल की सफेद टाइलों पर
कभी तुम्हारे बच्चे ने भी रखे थे लड़खड़ाते हुए पहले कदम
वही कदम जिनसे वह सीधा तुम्हारे ह्रदय पर चलता था

मृत्यु में भी ठीक उसी भांति लड़खड़ाते हैं कदम
और अंततः लड़खड़ाते, लड़खड़ाते
नन्ही 'जमलो मडकम' ने दम तोड़ दिया
मगर उसके शव की कीमत उसके घर पहुँच गई है
एक लाख रुपये।

नोट : बारह साल की जमलो मडकम के नाम जो अपने घर कभी नही पहुँच पाई।

आयुष्मान योजना के झुमके

आधी रात से कुछ ज्यादा का समय है
अस्पताल के एक वार्ड से आवाज़ आती है
हेमलता के साथ, हेमलता के साथ

अपना बहुमत वाला मोटापा हिलाती हुई एक महिला
अपने चारों कोनों से भागती हुई
अपनी चारो उंगलियों में अंगूठियां पहने
कानो में बड़े-बड़े सोने के झुमके लटकाये
हेमलता के साथ के रूप में प्रकट होती है

डॉक्टर उसे 'व्यवस्था की पर्ची' पर दवाईयां लिखकर देता है
और जल्दी दवाईयां लाने को कहता है
लेकिन वह जागरूक अंडाकार महिला यह कहते हुए मना कर देती है
कि सुबह आयुष्मान योजना का कार्ड दिखाकर 
दवाईयां अस्पताल के अंदर से ही मुफ्त   मिल जाएंगी

डॉक्टर जागरूकता की ओवरडोज लेकर हैरान होते हुए कहता है
कि ये 'आयुष्मान योजना के झुमके' आपातकाल भी नहीं पहचानते
ये आपात्कालीन दवाईयां लाने में भी असमर्थ है
दुर्भाग्य है
सुबह अस्पताल का दिन निकलते ही इस बहुमुखी योजना से 
ये गरीब झुमके प्राथमिकता के आधार पर लाभान्वित होंगे।

किताबों से निकलते फ्लाईओवर

किताबों से निरंतर फ्लाईओवर निकल रहे हैं
अत्याधुनिक उपग्रह, उपकरण, परमाणु क्षमता वाले हथियार, रोबोट
और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसा बहुत कुछ निकल रहा है
हालांकि प्रगतिशील जीवनधारा अच्छी बात है
मगर सम्पूर्ण मानव-जाति की कीमत पर यह स्वीकार्य नहीं

किताबों से केवल प्रेमपूर्ण और शांत इंसान नही निकल रहे
खुशियां इंसानों के चेहरे और जेहन दोनों से लगभग विलुप्त हो चुकी हैं
एक अन्य अति-महत्वपूर्ण चीज़ किताबों से नही निकल रही
किताबो से मानवीय भावनाएँ नहीं निकल रहीं
आदमी कही गहरे में विचारों से नही बल्कि भावनाओं से संचालित है

मैं तुम्हें बता दूं
आने वाली सदी भावनात्मक विज्ञान की होगी
भविष्य में पनपने वाला सबसे बड़ा व्यापार,
भावनात्मक इंटेलिजेंस का आयात-निर्यात होगा
और न केवल ह्रदय के तल पर महसूस होने वाली भावनाएँ
बल्कि बोलने, सुनने और दिखाई देने वाली भावनाएँ चाहिए होंगी।

चौथा अबॉर्शन

यह बहुत विचित्र था
वह निरंतरता का अर्थ तलाश रही थी
उसकी सभी भावनाएं इक गड्ढे में गिर रही थी
          इक वैश्विक गड्ढे में
जिसमे पहले से सारी दुनिया सड़ रही थी

निरंतरता, रोशनी का जलते रहना है
प्रेम का मरते रहना
खाना खाने के बाद परिश्रम डकारना
बाप की मौत पर चंद आंसू टपकाना
सेंसेक्स औऱ निफ्टी को ऊंचाई पर बंद होते देखना
दुख में आत्मा को सिकुड़ते देखना
जीवन के ढ़ेर सारे गुमनाम हाशिए और फुलस्टॉप ढूंढना
एक तयशुदा उम्र में गणितीय कीटाणुओं का जोर मारना
या फिर समाज और परिवार के डर से 'चौथा अबॉर्शन' करवाना
आखिर ये निरंतरता है क्या

वह सोच रही थी
कि किसी हसीन मर्द ने उसकी पारिवारिक परम्पराएँ अपाहिज कर दी हैं
उसके गाढ़े मादा विचार अक्सर कठोर होने वाली इंद्री से
निरंतर अंतरालों पर फेंके जाते हैं

हाँ ,वह यह भी सोच रही थी
यह कैसा वक़्त मैं इस युवा अवस्था में देख रही हूं
जब मेरे अंदर और बाहर दोनो स्थानों पर 
एक साथ मृत्यु चल रही है।

चीख का आकार

लगभग एक जैसा होता है प्रत्येक चीख का आकार
चाहे वह लाखों निर्दोष कश्मीरी हिंदू पंडितों की चीख हो
चाहे वह चौरासी से निकली निर्दोष सिखों की चीख हो
फिर चाहे वह चीख निकली हो, 
उन कार सेवको से भरे रेल के डिब्बे से
या फिर वह चीख निकली हो बाबरी मस्ज़िद के मलबे से
किसी भी धर्म, रंग,जाति या फिर हो चुनावी चीख
बेशक वह चीख हो कुँवारी चीख, उम्रदराज या विधवा चीख

हज़ारो चीखे इस देश की सरहदों से भी उठती है
शहीद जवानों के परिवारों की नम आंखें सदा चीखती हैं
बिछड़े प्रेमपूर्ण अतीत की यादों का कैलेंडर चीख़ता है
प्रत्येक चीख के साथ रुखसत होती है कुछ प्रतिशत मानवता

अगर कुछ बदलता है तो केवल वह मुआवजा राशि
और उन मुआवजा देने वाले चेहरों के हाव-भाव
मुआवज़ा मरहम नही बल्कि अगली चीख का निमंत्रण मात्र है।

कच्चा माल

वो एक आदमी है
जो मेरे और मेरी प्रेमिका के सामने
अपने शरीर के प्रत्येक अंग पर 
दीवार घड़ी लटकाये खड़ा हुआ है
जिसके हरेक हाव-भाव से वक़्त रिस रहा है
और चेहरे पर हाँफती खामोशी बह रही है

फिर इशारों को विराम देकर अचानक बोल पड़ता है
कि अगर तुम्हारी कविता के लिए आवश्यक
कच्चा-माल तैयार हो गया हो तो
समय हो गया है 
क्या मैं लाइब्रेरी बंद कर दूं

रोटियां

वो साइकिल पर जा रहा था
जिसके हैंडल के दोनों तरफ लटके 
टिफिनो में रोटियां हिल रही थीं

जब मैंने उससे, उसका नाम पूछा
उसने कहा, रामसेवक
मैंने कहाँ इतनी जल्दी में कहाँ जा रहे हो रामसेवक
तेज़ी से मजबूर पैडल मारते हुए वह बोला
मुझे निश्चित स्थान पर प्रतिदिन दोपहर
एक निश्चित समय पर
ये टिफ़िन पहुँचाने होते हैं
देर होने पर मेरी रोटियां हिल जाती हैं।


 परिचय
नाम :- सुमित दहिया
जन्म :16.09.1988, फरीदाबाद (हरियाणा)
शिक्षा : राजनीति विज्ञान,विधि (LAW) में स्नातक और स्नातकोत्तर
भाषा-ज्ञान : हिंदी,अंग्रेजी, हरियाणवी
प्रकाशित कृतियाँ : 'मिलन का इंतजार (काव्य संग्रह-अद्वैत प्रकाशन), 'इल्तिज़ा' (ग़ज़ल संग्रह-अयन प्रकाशन) 'खुशनुमा वीरानगी' (ग़ज़ल संग्रह-अद्वैत प्रकाशन) ,खंडित  मानव की कब्रगाह' (गद्य कविता संग्रह-अतुल्य प्रकाशन) और आवाज़ के स्टेशन ( काव्य संग्रह-अद्वैत प्रकाशन )

साहित्यिक ऑफ और ऑनलाइन पत्र,पत्रिकाओं में प्रकाशित:- वागर्थ (कलकत्ता), अंतरराष्ट्रीय पत्रिका आधारशिला, हिंदुस्तानी ज़बान युवा (मुम्बई), सोच-विचार (बनारस), शीतल वाणी (सहारनपुर), व्यंग्य यात्रा (दिल्ली), विभोम स्वर, राष्ट्र किंकर, अक्षर पर्व (रायपुर), समय सुरभि अनंत ( बेगूसराय ), पोएटिक आत्मा, साहित्य कुंज, जनसंदेश टाइम्स (लखनऊ), पतहर पत्रिका, प्रेरणा अंशु ( दिनेशपुर )
इसके अलावा ऑनलाइन साक्षात्कार औऱ विभिन्न विषयों पर कई बार संवाद किया है।
संपर्क : 9896351814, 8054666340
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