सोमवार, 10 अगस्त 2020

समय के सवालों से दो-चार होती अखिलेश श्रीवास्‍तव की कविताएं

कितना भी गले लगो गड़ासे से
एक अहिंसक गला, गड़ासे का मन कभी नहीं बदल सकता !

अखिलेश श्रीवास्तव बौद्धिक मिजाक के कवि हैं और उनकी कविताएं मुझे विचार कविताएं लगती हैं। उनकी कविताओं में एक हिसाब-किताब स्‍पष्‍ट दिखता है। इस सब के बावजूद वे प्रासंगिक हैं क्‍योंकि उनकी कविताएं अपने समय के जरूरी सवालों से दो-चार होती चलती हैं और इस तरह उनका हिसाब-किताब एक जरूरी कार्रवाई की तरह दिखता है। अपने हिसाबी-किताबी होने का पता है कवि को इसलिए अन्‍य विषयों के मुकाबले जब प्रेम पर वह लिखता है तो अपने हिसाबीपन को स्‍थगित कर देता है -

शब्दों के बीच कहीं रख देता हूँ
तुम्हारा कहा कोई शब्द
तो भले ही शिल्प बिगड़ता हो
पर उस कविता से भीनी खूश्बू आती है

अखिलेश श्रीवास्तव की कविताएं


गेहूँ  का अस्थि विसर्जन : 

खेतो में बालियो का महीनों 
सूर्य की ओर मुंह कर खड़ा रहना 
तपस्या करने जैसा है 
उसका धीरे धीरे पक जाना हैं 
तप कर सोना बन जाने जैसा ।

चोकर का गेहूँ से अलग हो जाना 
किसी ऋषि का अपनी त्वचा को
दान कर देने जैसा है ।

जलते चूल्हे में रोटी का सिकना 
गेहूँ की अंन्तेष्ठी जैसा है 
रोटी के टुकड़े को अपने मुहं में एकसार कर 
उसे उदर तक तैरा देना 
गेहूँ का गंगा में अस्थि विसर्जन जैसा है ।
इस तरह 
तुम्हारे भूख को मिटा देने की ताकत 
वह वरदान है 
जिसे गेहूँ ने एक पांव पर 
छ: महीना धूप में खडे़ होकर 
तप से अर्जित किया था सूर्य से ।

भूख से 
तुम्हारी बिलबिलाहट का खत्म हो जाना 
गेहूँ का मोक्ष है ।

इस पूरी प्रक्रिया में कोई शोर नहीं हैं
कोई आवाज नहीं हैं
शांत हो तिरोहित हो जाना 
मोक्ष का एक अनिवार्य अवयव है ।

मैं बहुत वाचाल हूं 
बिना चपर चपर की आवाज निकाले
 एक रोटी तक नहीं खा सकता ।

मुजफ्फरपुर : 

देवकी नंदन खत्री के शहर में बची रह गई है अय्यारी 
शाम होते होते सफेद लिबास में लिपटे अय्यार बदल जाते हैं काले धुँएँ में 
कहकहे गूँजते हैं और 
राजा के महल में हर रात गायब हो जाती है एक लड़की !

वैसे ये लड़कियाँ अपनी पूरी उम्र गायब ही रही 
ना माँ को मिली न पिता को 
रोज खोजती रही गुमशुदगी के पोस्टर में अपना चेहरा 
पलक झपकते ही 
गुम हुई चुप्पाई लिए कस्बों से 
बीच सड़क गली गलिआरों से 
जैसे बरसात में चलते हुए गटर के खुले मैनहोल पर पड़ गया हो पांव !

कुछ प्रेम में बरगलाई गई 
कुछ रात तक मारी जाने वाली थी 
कुछ ज़हर नहीं खा पाई 
कुछ इतनी डरपोक थी कि ट्रेन से कटने जाती 
तो उसकी आवाज़ से डर जाती 
आत्महत्या के असफल प्रयासों के किस्सों से भरी हैं ये  लड़कियाँ 
सुनाती हैं तो कमरा ठहाकों से भर जाता है
कुछ इतनी अनपढ़ थी कि स्वर्ग की तलाश में अपनी देह सहित भागी 
बहुत भटकने के बाद सदेह स्वर्ग न मिलने के मिथक का पता चला 
तो हताश होकर शून्य में निहारने लगी  
नर्क के दरवाजे खुले मिले तो उसी में घुस गई !

इनकी स्मृति में जस की तस है उन मर्दों की सूरत 
जिन्होंने इन्हें पहले पहल तौला और बेच दिया 
वैश्विक मंदी के दौर में भी हाथों-हाथ बिकी ये लड़कियाँ !
तुम्हारी भाषा वज्जिका में स्त्री को धरती कहते हैं 
पर अभी हम बच्चियाँ हैं 
तुम अपने भाषा संस्कार में हमें गढ़ई कहना 
ना, ना हम बहुत गहरे धँसे है गढ़ई से 
तुम हमें कुआँ कहना 
पर हम कैसे कुएँ है 
जो खुद चलकर जाते हैं प्यासे के पास 
इस तरह भाषा से भी बहिष्कृत हैं
उसके मुहावरे हम पर लागू नहीं होते !

खादी, गांधी टोपी, भगवा चोला, सत्यमेव जयते 
सब इस घुप्प अंधेरे कमरे की खूंटी पर चढ़ते उतरते रहते हैं
जन मन गण नहीं है 
गन धन गणिकायें हैं मुजफ्फरपुर की ये लड़कियाँ 

पिता: 

पिता कभी नही गये माॅल में पिक्चर देखने 
एक बार गये भी तो 
चुरमुरहा कुर्ता और प्लास्टिक का जूता पहन कर 
अंग्रेजी न आने वाली शक्ल भी साथ ले गये थे  
लिहाजा खुद पिक्चर हो गये 
कई लोगों ने उनकी हिकारती समीक्षा की 
और नही माना आदमी 
पिता की रेटिंग तो दूर की कौड़ी माने।

दालान से लेकर गन्ना मिल के कांटे तक 
जो खैनी हमेशा साथ रही 
जिसे वो अशर्फी की तरह छिपा कर रखते थें 
पेट के ऊपर बनी तिकोनी जेंब में
माॅल के दुआरें पर ही छींन ली गई 
माया के इन्द्रप्रस्थ में निहत्थें ही घुसे पिता ।

फर्श उनकी पीठ से ज्यादा मुलायम था 
माटी सानने के अभ्यस्त पांव रपटने को ही थे 
कि तलाशने लगें कोई टेक 
अजीब जगह है यह
दूर दूर तक कोई आधार ही नही दिखता 
फिर खिखिआयें कि 
माॅल में बाढ़ नही आती जो 
हर दो हाथ पर बल्ली लगाई जाएँ ।

रंगीन मछलियों की तैंरन देखीं  पर  
रोहूं, मांगुर नही कर पाये 
ठंड में खोंजने लगे गुनगुनाती धूप 
हर पांच मिनट में  पोंछ ही लेते गमछे से मुंह 
पसीना कही नही था पूरे देह में 
पर उसकी आदत हर जगह थी ।

भूख लगी तो थाली नही गदौरी देखने लगे पिता
ऐसी मंडी वो अबतक नही देख पाये थे 
भुने मक्के का दाम नही बतायेंगे किसी को 
वरना पूरा जॅवार बोने लगेगा भुट्टा ।

माॅल के अंदर का दृश्य इतना उलट था 
खेत के दृश्य से  
कि बिना स्क्रीन में गये पलट कर बाहर भागे पिता
मैंने  रोकने की कोशिश की 
पर वो उस कोशिश की तासीर समझते थे सो 
नहीं रूके ।

पिता जीवन भर खेत, खैंनी और चिन्नीं में ही रहे 
माॅल में गुजारे समय को वो अपनी उम्र में नही गिनते ।


 कवि कर्म : 

मैं खाली पड़े तसलो में 
ताजमहल की मजार देख लेता हूँ 
सरकार की चुप्पी में सुन लेता हूँ 
पूंजी की गुर्राहट ।

तुम नदी की कल-कल सुनना
मैं सुनूंगा उसमें ज़हर से गला घुटने पर 
घों-घों की आवाज़
शीशम के दरख़्त कटने पर 
एक लंबी चोंss  में
उसकी अंतिम कराह सुनता हूँ 
उस दिन कोयल की कूक में
शोक का वह पंछी गीत सुन लेता हूँ
जो बेघर होने पर गाई जाती है ।

मैं मृग के नयन बाद में देखता हूँ 
उसके पहले ही उन आंखों में
भेड़ियों का डर देख लेता हूँ

मैं देख लेता हूँ
खाली कन्सतरों का अकेलापन
ठंडे चूल्हे की कम्पकम्पाहट 
सुन लेता हूँ
खेत में दवाई छिड़कने से
कीटों की सामूहिक हत्या होने पर 
फ़सल का विलाप
.
मैं दुख देख लेने का आदी बन चुका हूँ
मदिरा पीकर मुजरे में भी बैठता हूँ
तो साथी नचनियां  की नाभि देखते हैं
मैं पेट देखता हूँ और अंदाजता हूँ 
कितने दिन से भूखी है ये ठुमकिया।

तुम मेरे आंखों पर घोड़े का पट्टा भी बांध दो 
तब भी दो सोटों के बीच समय निकाल कर
देख ही लूंगा राह पर छितरे हुये दुख 
पथिक की प्यास 

तुम मेरे हिस्से का सारा शहद ले लो 
फिर भी मैं चख ही लूंगा तुम्हारे हिस्से का विष 

मैं दुख भक्षक हूँ, विषपायी हूँ 
मैं कवि हूँ 
मेरे रूधिर का रंग नीला है ।

परिचय




शिक्षा : केमिकल इंजीनियरिंग में स्नातक
संप्रति : बहुराष्ट्रीय कंपनी मे वरिष्ठ प्रबंधक 
संपर्क : 9687694020

रविवार, 9 अगस्त 2020

अगर सब लोग उनके साथ हैं तो उन्हें क्यों कम से ख़तरा लग रहा है - डॉ. नरेन्‍द्र

अपने जीने मरने पर भी जनता का अधिकार नहीं
इसीलिए कहता हूँ यह आज़ादी अभी अधूरी है।
डॉ. नरेन्‍द्र  दुष्‍यंत कुमार और अदम गोंडवी की परंपरा के राजनीतिक चेतना से लैस गजलकार हैं जो आम जन की पीड़ा को स्‍वर देते हैं और उसे अपने अधिकारों के प्रति सजग करते हैं। शमशेर की लेकर सीधा नारा, कौन पुकारा  की तर्ज पर ये अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहते हैं। आमफहम भाषा में रची गयी इनकी गजलें जनचेतना का परिष्‍कार करती चलती हैं।

डॉ. नरेन्द्र की ग़ज़लें


                 1.
क़त्ल है राह के काँटों को हटाने केलिए
क़त्ल है क़त्ल का सबूत मिटाने केलिए।
फ़र्ज़ी मुठभेड़ हैं लिंचिंग हैं क़त्ल करने को
क़त्ल है क़त्ल का हर राज़ दबाने केलिए।
जब भी खाते हैं तो ये झूठी कसम खाते हैं
सैकड़ों झूठ हैं इक झूठ छिपाने केलिए।
असली चेहरा तो यहाँ ढूँढ़ते रह जाओगे
सामने जो भी है चेहरा वो दिखाने केलिए।
अब अदालत की है इस मुल्क़ में औक़ात यही
लड़ रही अपना ख़ुद वज़ूद बचाने केलिए।
सब हैं लाचार फ़ौज़ हो कि पुलिसवाले हों
वारदातों पे हैं सब ख़ेद जताने केलिए।
आपकी जान की कीमत नहीं रही कुछ भी
अब सियासत है यहाँ मौत भुनाने केलिए।
जो भी मसला हो अभी क़त्ल से हल होता है
क़त्ल है क़त्ल की तहज़ीब चलाने केलिए।
                  2.
समय के ख़म से ख़तरा लग रहा है
उन्हें मौसम से ख़तरा लग रहा है।
मुनादी कर रहे थे वह ख़ुदा हैं
मगर आदम से ख़तरा लग रहा है।
चलाते हैं जो हथियारों की मंडी
उन्हें अब बम से ख़तरा लग रहा है।
वो अपने जाल में ख़ुद फँस गये हैं
इसी आलम से ख़तरा लग रहा है।
जिन्हें ख़ूँरेज़ियों की लत लगी है
उन्हें मातम से ख़तरा लग रहा है।
उन्हें गंगा से भी ख़तरा बहुत है
अभी जमजम से ख़तरा लग रहा है।
अगर सब लोग उनके साथ हैं तो
उन्हें क्यों कम से ख़तरा लग रहा है।
लगा कर आग़ इस अहले चमन में
उन्हें शबनम से ख़तरा लग रहा है।
                   3. 
ज़मीन सबकी है ये आसमान सबका है
ये हक़ीक़त है कि सारा जहान सबका है।
किसी के बाप की जागीर नहीं है दुनिया
बाँध लो गाँठ ये हिन्दोस्तान सबका है।
किसी में दम नहीं हमको निकाल दे घर से
जो भी रहते हैं यहाँ ये मक़ान सबका है।
लाख कुर्बानियों के बाद मिला है हमको
ये संविधान तिरंगा निशान सबका है।
ज़ाति मज़हब में ज़माने को बाँटने वालो
सिर्फ़ गीता नहीं बाइबिल क़ुरान सबका है।
हुक्मरानों की कोई चाल न चलने देंगे
ये हमारा ही नहीं है ऐलान सबका है।

                     4.
अस्पताल की ऐसी तैसी मंदिर बहुत ज़रूरी है
राम नाम पर ही चुनाव की सब तैयारी पूरी है।
मरो बाढ़ से या कोविड से ऊपर वाले की मर्ज़ी
ख़ैर मनाओ अभी मौत की तुमसे थोड़ी दूरी है।
लाशों पर वह जश्न मनाएँ तुम इसको बर्दाश्त करो
फिर भी अपना मुँह मत खोलो यह कैसी मजबूरी है।
अपने जीने मरने पर भी जनता का अधिकार नहीं
इसीलिए कहता हूँ यह आज़ादी अभी अधूरी है।
सबकुछ उनके कब्ज़े में है लोकतंत्र लाचार बना
सभी इशारे पर चलते हैं क्या हाकिम क्या जूरी है।

                   5.
करेगा कौन हुकूमत से यह सवाल कहो
अभी मंदिर ज़रूरी है कि अस्पताल कहो।
अभी तो लोग लड़ रहे हैं बाढ़ कोविड से
किस क़दर आदमी है मुल्क़ में बेहाल कहो।
उन्हें चुनाव सूझता है इस क़यामत में
कितने बेशर्म हैं पूँजी के ये दलाल कहो।
लोग रोटी केलिए हाय हाय करते हैं
और वह पूछते हैं और हालचाल कहो।
बीच मझधार में ले जाके नाव छोड़ दिया
ऐसे हालत में किस काम का है पाल कहो।
कैसे अवसर बना लिया है उसने संकट को
कैसे कुछ लोग हो गये हैं मालामाल कहो।

                 6.
बेवज़ह  मत  इधर उधर  में  रहो
तुम ख़ुदा हो तो अपने घर में रहो।
गाँव माना हमारा दोज़ख़ है
तो चले जाओ फिर शहर में रहो।
क्या ज़रूरी है हर बहर सम्भले
जो भी सम्भले उसी बहर में रहो।
ख़ूब फैलाओ अपनी शाखों को
पर मेरे यार अपनी जड़ में रहो।
जितना उड़ना है तुम उड़ो लेकिन
कम अज़ कम अपनी तो नज़र में रहो।
बस सफ़र केलिए सफ़र है यह
मूँद कर आँख इस सफ़र में रहो।
काम करने की क्या ज़रूरत है
ये ज़रूरी है कि ख़बर में रहो।

परिचय

नरेंद्र कुमार मिश्र: वृत्ति से चिकित्सक। प्रवृत्ति से लेखक पत्रकार।
देशभर की पत्र पत्रिकाओं में ग़ज़लें और विविध रचनाएँ प्रकाशित।आकाशवाणी, दूरदर्शन के महत्वपूर्ण केंद्रों से ग़ज़लें प्रसारित।
महत्वपूर्ण अख़बारों और साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन।
दो ग़ज़ल संग्रह कोई एक आवाज़ और समय से लड़ते हुए प्रकाशित।
दो ग़ज़ल संग्रह ताकि सनद रहे और सहर होने तक शीघ्र प्रकाश्य।
एक कविता संग्रह हँसते आँसू, रोते आँसू  प्रकाशित।
एक नृत्य नाटिका राजा सलहेस प्रकाशित।
नेशनल बुक ट्रस्ट से दो पुस्तकें एक परम्परा का अंत और मिथिला विभूति कवि कोकिल विद्यापति प्रकाशित।
नाटक से जुड़ाव। नाट्य शास्त्र में एम ए की उपाधि।
लम्बे समय तक एक हस्त लिखित पत्रिका शिखा  का सम्पादन।

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

प्रेम और जीवन के यथार्थ की भयावहता - रूपम मिश्र की कविताएं

 प्रेम और जीवन के यथार्थ की भयावहता को जानना - समझना हो तो आप रूपम मिश्र को पढें। उनकी कविताएं पढते ऐसा लगता है कि आप धर्मवीर भारती की पुस्‍तक कनुप्रिया से गुजर रहे हों पर उसके कोमल कथानक के बीच-बीच से जब वर्तमान की स्‍याह कतरने चिल्‍हकेंगी तो आपके भीतर दबी उदासी जाग जाएगी।
गांव-जवार के नाम पर अक्‍सर हममें एक रोमान पचके फेंकने लगता है पर इन कविताओं में आकर ऐसे रोमानी अंकुर जब यथार्थ की पथरीली सतह पर पेंगे लेने की काेशिश करते हैं तो झुलस जाते हैं। पर झुलसकर भी घुटने नहीं टेकते ये काव्‍यांकुर, बल्कि जूझते हैं, कि और कोई सूरत नहीं, कि कल का सूरज देखना है तो सुबह तक जलने व झुलसने का जीवट भी चाहिए। इन कविताओं को पढते मुक्तिबोध याद आते हैं -

कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।

रूपम मिश्र की कविताएं-

1.
हम एक ही पटकथा के पात्र थे
एक ही कहानी कहते हुए हम दोनों अलग - अलग दृश्य में होते
जैसे एक दृश्य तुम देखते हुए कहते तुमसे कभी मिलने आऊँगा  तुम्हारे गाँव तो
नदी के किनारे बैठेगें जी भर बातें करगें तुम बेहया के हल्के नीले फूलों की अल्पना बनाना

उसी दृश्य में तुमसे आगे जाकर देखती हूँ  नदी का वही किनारा है बहेरी आम का वही पुराना पेड़ है जिसके तने को पकड़कर हम छुटपन में गोल - गोल घूमते थे

उसी  की एक लंबी डाल पर दो लाशें झूल रही हैं एक मेरी है दूसरी का बस माथा देखकर ही मैं चीख पड़ती हूँ और दृश्य से  भाग आती हूँ

तुम रुमानियत में दूसरा दृश्य देखते हो किसी शाम जब  आकाश के थाल में  तारें  बिखरे होंगे संसार मीठी नींद में होगा
तो चुपके से तुमसे मिलने आ जाऊँगा

मैं झट से बचपन में चली जाती हूँ जहाँ दादी भाई को गोद में लिये रानी सारंगा और सदावृक्ष की कहानी सुना रही हैं

मैं सीधे कहानी के क्लाइमेक्स में पहुँचती हूँ जहाँ रानी सारंगा से मिलने आये प्रेमी का गला खचाक से काट दिया जाता है
और छोटा भाई ताली पीटकर हँसने लगता है

दृश्य और भी थे जिनमें मेरा चेहरा नहीं था देहों से भरा एक मकान था और मैं एक अछूत बर्तन की तरह घर के एक कोने में पड़ी थी ,

तुम और भी दृश्य बताते हो जिसमें समंदर बादल और पहाड़ होते हैं मैं कहती हूँ कहते रहो ये सुनना अच्छा लग रहा है !

बस मेरे गाँव -जवार की तरफ न लौटना क्यों कि
ये आत्मा प्रेम की जरखरीद है और देह कुछ देहों की



2.
मुझे पता है तुम्हरा दुःख बिरादर !
मैं तुम्हारी ही कौम से हूँ!

मुझे थाह है उस पीड़ा की नदी का जिसका घाट अन्याय का चहबच्चा है
जिसकी उतराई में आत्मा गिरवी होती है

तुम धीरज  रखना  हारे हुए दोस्त !
कुछ अघाये गलदोदई से कहते हैं कि तुम हेहर हो
उनसे कहो कि हम जानते जाड़ा ,बसिकाला और जेठ के दिनों का असली रंग
वे मनुष्यतर कितने बचे हैं  वे नहीं जानते

लड़ाई की रात बहुत लंबी है इतनी कि शायद सुबह खुशनुमा न हो
पर न लड़ना सदियों की शक्ल खराब करने की जबाबदेही होगी

हम असफल कौंमे हैं हमारी ही पीठ पर पैर रखकर वे वहाँ  सफल हैं
जहाँ हमारे रोने को उन्होंने हास्य के बेहद सटीक मुहावरों में रखा
जाने कैसे उन्होंने हमारे सामीप्य में रहने की कुछ समय सीमा बनाई
और उसके बाद जो संग रहे उनमें हमारे सानिध्य से आई कोमलता को मेहरीपन कह के मज़ाक बनाया 

3.
वे सभ्यता और समता की बात करते कितने झूठे लगते हैं जो हमारी आँखों पर मेले से खरीदे गये काले चश्मे को भी देखकर व्यंग से हँसते हैं
वे सौमुँहे साँप जो हमारी देह पर टेरीकॉट का ललका बुशर्ट भी देखकर मुँह बिचकाकर कहते हैं खूब उड़ रहे हो बच्चू ,ज्यादा उड़ना अच्छा नहीं

उनसे कह दो कि अब तुम छोड़ दो ये तय करना कि हमारा उड़ना अच्छा है या हमारा रेंगना
अब छोड़ दो टेरना सामंती ठसक का वो  यशगान
जिसमें स्त्रियों और शोषितों की आह भरी है

मानव जाति के आधे हिस्सेदार हम ,  जिनके आँचल में रहना तुमने कायरता का चिर प्रतीक कहा
अब दिशाहारा समय कुपथ पर  है
संसार को  विनाश से बचाये रखने के लिए
उनसे थोड़ी सी करुणा उधार माँग लो  ।


4.
मेरे खित्ते की ज़मीनों पर नीले रंग के बाज उतरते हैं!

ये जहाँ प्रेमी जोड़े देखते हैं झपट लेते हैं!

हज़ार हर्फ की गालियां लिखी गयीं मेरी भाषा में
जिनका मंत्र पढ़ते हुए ये सफ़ेद कबूतरों को ढूढ कर उनकी गर्दन मरोड़ देते हैं !

और हँसकर आपस में बताते हैं कि संस्कृति रक्षार्थ पावन कर्म में रत किस तरह मादा कबूतर को अपनी आगोश में दबोचे यौन कुंठा तृप्त करता रहा !

मेरी सभ्यता में  पहाड़ तोड़े जा रहे  हैं और जातियाँ और जबरई से  जोड़ी जा  रही है !
हमारी परम्परायें धर्म और  नदियाँ  कचरा ढोने के काम आती हैं !
और स्त्रियां हर तरह के राजनीति और धार्मिक कर्मकांड के!

हमारे गाँव की आत्मा अब प्रधानी चुनाव के समीकरण के गंदे पेचों से लताफ़त हैं!

चौपालें कब की चौराहे में बदल गयीं!
जहाँ दुःख सुख नहीं किसने बेटी के ब्याह  किसने बाप की तेरहवीं में कितना खर्चा किया कौन बुलट से चलता है किसने फॉरच्यूनर खरीदी की बतकही होती है !

गाँव विकास की बयार को अगोर रहा था बाजार छलांग लगाकर पहले ही पहुँच गया !

बच्चे गाँव देखने  की जिद करें तो आँखों पर पट्टी बांध कर लाना !
क्यों कि सिवान की सड़कें मैगी ,गुटखा और देशी शराब की पन्नियों से पटे हैं ।



5.
कच्ची उम्र में ब्याही बेटियां आत्मा को नैहर के डीह पर छोड़कर आयी हैं!

मऊजे के पुराने पोखर पर पुरइन के कुम्हलाये पत्ते पर आज भी उनकी गुड़िया की ओढ़नी झूल रही है !

विदाई के पहले की वो संसा की अन्हियरिया रात
रोज उनके जेहन में एक अदृश्य भय लिये उतरती है!

जैसे बसवारी वाले शीशम के पेड़ से रात में भयावह चिड़िया बोलती
माँ कहती कोई रात को किसी का नाम न लेना मुआ चिरई  सुन लेगी!

विदाई होने के ठीक पहले बजते वे बाजे
उनकी धुनें जरूर किसी रोती स्त्री के करुण स्वर नाद से चुरायी गयी थीं!

जिसे ये बेटियाँ बूढ़ी हो जाने पर नहीं भूल सकीं ऐसी हूक उठती है कलेजे में कि लगता है आंत में आग की लौर उठ रही हैं
ये वो बच्चियाँ थी जिन्हें पता था कि जेल में डालने से पहले की ये बहेलियों की जयघोष है !

ये बच्चियाँ नहीं जानती थी जवानी की रातें जिनमे जागते सुबह हो जाती
और ये भी ठीक- ठीक कभी निर्णय नहीं कर पायीं बड़े आँगन की  सुबह ज्यादा भयावह होती कि रात !

ये लड़कियां जीवन भर नंगे पांव दौड़ पड़ी जहाँ कहीं भी किसी ने इनके छुटपन में ही छूटे  गाँव ,जवार का नाम लिया!

राह चलते बटोही से  पूछ रही हैं हाल और तरस रही हैं कि वो कह दे बहिन मैं तो तुम्हारे नैइहर की ओर का हूँ!

विश्व त्रासदी पर लिखी किताब हाथ में लिये सोच रही हूँ जाने ऐसी कितनी  त्रासदियाँ और दुःख हैं क्या इन्हें कभी लिखा जाएगा !

पिताओं ! वो ठग पिताओं ! निज स्वार्थ ,मर्यादा के लिए तुमने ही सबसे ज्यादा ठगा बेटियों को!
और बेटियों ने सबसे ज्यादा मोह किया पिताओं से ।

 परिचय
मेरा नाम रूपम मिश्र है , 
मैं प्रतापगढ़ जिले के बिनैका गाँव में रहती हूँ ।