अनु चक्रवर्ती की कविता उतनी ही बहिर्मुखी है, जितनी मन के कोनों को खंगालने वाली । उनकी कविताओं में मॉडर्न फेमिनिज्म भी दिखता है, जहाँ वो देह की अकुलाहट को बयां करती हैं, और प्रेम की चिर-कालीन संवेदना भी । प्रेम से ले कर युद्ध तक की सीमाओं को छूती हैं उनकी कविताएं । प्रेम, प्रकृति, पुरुष का मन, और जीवन की विडम्बना भरी चुनौतियाँ, इन सब को अनु बहुत अच्छे से संजोती हैं अपनी रचनाओं में । उन्हें समझना उतना ही आसान है, जितना खिले हुए पुष्पों को, और उतना ही दुरूह जितना प्रेम में पड़ी जोगन को - अनुपमा गर्ग
दो लोगों के बीच का सच !
अनु चक्रवर्ती की कविताएं
दो लोगों के बीच का सच !
दो लोगों के बीच का सच
हमेशा ही बना रहता है एक रहस्य ..
बन्द कमरे के अंदर का सन्नाटा
लील जाता है पूरी तरह से
जीवन के उल्लास को ...
अकुलाते देह के भीतर
जब कसमसाती हैं भावनाएं
तब मन की
पीड़ा का बोझ
बढ़ जाता है
थोड़ा और ...
स्त्री जब प्रेम में होती है
तब तन , मन ,
और धन से
करना चाहती है
समर्पण !
खो देना चाहती है
अपना सम्पूर्ण वजूद ....
एक ओंकार की तर्ज़ पर ,
बह जाना चाहती है ..
सम्वेदनाओं की सरिता में ।
किंतु सुपात्र !
की तलाश में
उन्मत्त भी रहती है -
उम्र भर ....
फ़र्ज कीजिये -
किसी जोगन को अगर लग जाए
प्रेमरोग !
तो विडम्बना की पराकाष्ठा
भला इससे बड़ी और क्या होगी....
वास्तव में ,
प्रेम में निर्वासित स्त्री ही
वहन कर सकती है
सम्पूर्ण मनोभाव से योग......
अपनी भूख , प्यास ,
और नींदें गंवाती है....
मात्र प्रीत के ,
स्नेहिल स्पंदन की तलाश में ..
और
उसकी ये तलाश
शायद !
अधूरी ही रह जाती है
जन्मों तक ...
क्योंकि
कहीं न कहीं
प्रेम !
संकुचन का अभिलाषी होता है
जबकि श्रद्धा !
चाहती है विस्तार .....
हे अर्जुन !!
हे अर्जुन !
आज मै भी समझ सकती हूँ ..
तुम्हारे दर्द को पूर्णतः ....
निश्चित,
कितनी असीम पीड़ा को तुमने सहा होगा...
अपनों को अपने ही, ह्रदय से दूर कर देने का दंश
सिर्फ,
तुम्हारी ही छाती वहन कर सकती है प्रिये !
किन्तु,
तुम सदा से ही थे भाग्यवान !!
क्यूंकि
कृष्ण !!
जैसा मित्र और सारथी
भला किसे मिला है इस जहान में...?
जो विश्व कल्याण के लिए ,
प्रशस्त कर सके विहंगम मार्ग भी ....
भर सके चुनौती प्रेम से आसक्त उर में....
समझा सके ,
सत्य और असत्य का भेद...
और तैयार कर सके भुजाओं को ...
ताकि गांडीव में
दुगुनी ऊर्जा का हो सके संचार....
और लोक हित में ,
बनी रहे मर्यादा कर्तव्यनिष्ठा की...
हे पार्थ..!
सच, ह्रदय पर तुमने लिया होगा
ना जाने कितना घाव...
जब प्रत्यंचा चढाई होगी
तुमने पहली बार
अपने ही परिजनों के विरुद्ध ....
बाल्यकाल... राजमहल ...और गुरुजनों
के स्नेह को करके परे....
तुमने भर ली होगी अग्नि
अपने दोनों अश्रुपूरित नयनों में...
हे द्रोण प्रिय !!
काश !
हम भी ले सकते सही निर्णय
समय निर्वहन के साथ- ही- -साथ...
और उजास से भर सकते
वर्तमान को ..
त्याग आत्मिक संबंधों काे ,
उज्जवल भविष्य की परिपाटी के लिए ...
केवल युग-पुरुष ही कर सकते हैं, शायद...!!
नींद
तुम्हारे साथ उम्र की
सबसे सहज नींद का उपभोग किया है मैंने !
तुम्हारा हाथ थामे - थामे
बादलों के देश भी घूम आई हूँ
कई बार ....
तुम्हारे पास होने पर
सपनों जैसा कुछ नहीं होता ...
बल्कि
दर हकीक़त !
सिलसिलेवार मन के सारे ख़्याल
भी पूरे होने लगते हैं ....
मुझे ऐसी बेख़ौफ नींद से जागना
कतई मंजूर नहीं होगा ...
तुमने कहा था - कि
तुम मुझे सुलाने के लिए
नींद की गोलियां कभी नहीं दोगे ....
शिरीष के पुष्प
जब उमस से भरी यह धरती
लू के थपेड़ों को सहती है
काल बैशाखी की विकल घटाएं
शाखों की उंगलियां मरोड़ती हैं .....
जब संसार की सारी मनमर्ज़ियाँ
उदासी का पैरहन ओढ़ लेतीं हैं
जब इंसान के मन की बेचैनियां
शुष्क गलियों से गुज़रतीं हैं ...
जब पानी की एक - एक बूंद को
सारी प्रकृति तरसती है
जब सूरज की तेज़ किरणों से
वनस्पतियां भी झुलसती हैं ...
जब हरित धरा धूसर हो जाती है
और राग - रागिनी कहीं खो जाती है
तब सर पर कांटो का ताज लिए
यह रक्तिम आभा बिखेरते हैं .....
यूँ छुईमुई -सी लजाती शिरीष !
विषमता में अपना शौर्य दिखलाती है
वसंत से लेकर आषाढ़ तक केवल
यह अजेयता का मंत्र दोहराती हैं ...
जो - जिसने
जो - जिसने
जो छोड़कर गया है, वो एक दिन लौटेगा
अवश्य ....
जिसके लिए नीर बहाया है तुमने
उसे लगेगा अश्रुदोष ....
जिसने अनुराग को समझा मनोविनोद
उसे स्वस्ति नहीं मिलेगी कभी....
जिसने पूर्ण समर्पण को किया अनदेखा
वो भोगेगा संताप भी ...
जिसने प्रेमत्व के बदले देना चाहा किंचित सुख
वह उपालंभ के अधिकार से भी होगा वंचित ....
अपनाना इस बार !
मैं बाहर से जितनी आसान हूँ !
अंदर से उतनी ही मुश्क़िल भी ....
भीतर से जितनी सरल हूँ !
ऊपर से उतनी ही कठिन भी ...
आज ससम्मान सौंपना चाहती हूं
तुम्हारा हाथ उसे ,
जिससे तुम करते आये हो निरंतर प्रीत !
और जिसकी भीति से तुमने
उत्सर्ग किया है मेरे अनुरागी मन का ...
जो कभी मुझे सचमुच में अपनाना चाहो
तो ऐ साथी ,
अपनाना अपने व्यस्ततम एवं दुसाध्य क्षणों में ...
जो मेरे पास आये तुम केवल फ़ुर्सत के पलों में....
तो ये तय है -
क़े फ़िर कभी पा न सकोगे मुझे !
क्योंकि मैं सामने से जितनी मुलायम हूँ
पर्दे के ठीक पीछे ,उतनी ही सख़्त भी ......
श्रीमति अनु चक्रवर्ती
C/O श्री एम . के . चक्रवर्ती
C - 39 , इंदिरा विहार
बिलासपुर ,छत्तीसगढ़
Pin - 495006
Ph- 7898765826
:
वॉयस आर्टिस्ट , रंगकर्मी , मंच संचालन में सिद्धहस्त , विभिन्न पत्र
पत्रिकाओं , बेव पोर्टल्स ,और सांझा संग्रहों में रचनाएं प्रकाशित , तीन
फ़ीचर फ़िल्म में अभिनय करने का अनुभव , स्क्रिप्ट राइटर ।