बुधवार, 2 सितंबर 2020

खुद को समझने की कोशिश - दिव्या श्री की कविताएं


अपनी कविताओं में दिव्‍या श्री खुद को समझने की कोशिश करती दिखती हैं। इस समझने की प्रक्रिया में वे अपने आस-पास व परिवेश को परिभाषित-पुनरपरिभाषित करती हैं। सामान्‍यतया यहीं से कविता की शुरूआत होती है। जब इस समझ पर हमारा विश्‍वास बढता है तो वह समझाने में बदलता है, खुद को समझाने से बढकर यह देश दुनिया को समझने-समझाने तक जाता है।

दिव्या श्री की कविताएं 


हवा और पानी

जब-जब दुख लिखा है
हृदय में प्राथना के स्वर गूँजे हैं

दुख मेरे गले किसी ताबीज़-सा बंधा है
मैं दुख के निकट अपवाद बची मछली-सी
सुख मेरे सिरहाने रखी किताब की तरह है

वर्षों आवाहन करने पर भी
शब्द- शब्द मेरी दृष्टि में न समा सका
मुझे दृष्टिहीनता का परिचय दे गया

दुख चुभे हुए काँटों की तरह है
निकालने पर और तेज रिसता है लहू
सुख किताब में रखे मयूर पंख की तरह है
जिंदगी की भागमभाग में न जाने कब खो गया

दुख ने आँखों का दर्द बढाया
सुख ने आँखों की चमक

सुख और दुख उगते सूरज जैसे हैं
नित्य प्रति उगता है, डूब जाने के लिए

इस क्षणिक जीवन में
दुख उतना ही जरूरी है जितना सुख
जैसे हवा और पानी।


सुख की तलाश में

हमने सुख की तलाश में
शहर की ओर रूख किया

महानगरों में भी बसे
दस मंजिला इमारत के आखरी माले पर
रहने को आतुरता दिखे

बिल्डिंग-दर-बिल्डिंग सटे होने के बावजूद
हम स्वच्छ हवा की खातिर
खिड़कियाँ खोले परदे सरकाये
और जहरीली हवा लेते हुए  
कुछ दिनों तक खुश रहे

जबकि वो प्रदूषित हवा
हमें हर पल नुकसान पहुँचा रही थी

पर विडंबना यह है कि
हमने उस शहर को पहचान लिया
पर शहर मुझे अब तक नहीं पहचानता

अपने गाँव को छोड़कर जाने वाले
तुम्हें इसकी पगडंडी अब भी बुलाती है

वर्षों तुमने बहुत धन अर्जित किया
लेकिन तमाम शहरों में रहकर
किसी एक के नहीं हो सके।

यह शिकायत
तुम्हें खुद से
और अपने शहर से हमेशा रहेगी।

शब्दों के भीतर

मैं शब्दों के भीतर अर्थ ढूँढती हूँ
भाषा घर की खिड़कियों की तरह लटक रही है

मैं मौन के भीतर उदासी ढूढ़ती हूँ
खुशी ज्वाला-सी धधक रही है

संवेदनाएँ मृत पड़ गई हैं आजकल
सहनशीलता ताना दे रही है

मैं संशय में फंसी भाग रही हूँ
खामोशी धीरे-से जख्मों पर वार करती है

वर्ण उतावला हो रहा है शब्द बनकर
भाषा अपनी गरिमा बचाने की कोशिश में नाकामयाब हो रही।

आदमी

हवा और पत्थर के दो छोरों के बीच
आदमी झटके खाता है
और झटका खाकर
कभी हवा की तरफ झुकता है
कभी पत्थर से टकराता है
कभी प्रेम में पड़ता है, कभी संन्यास
जैसे हवा प्रेम हो, पत्थर संन्यासी
प्रेम, संन्यास से मुँह चिढ़ाता है
संन्यासी, प्रेम को बर्दाश्त नहीं करता
क्योंकि प्रेम से प्रकृति
और प्रकृति से प्रेम है
संन्यास ईश्वर है
परमेश्वर संन्यासी है
मनुष्य जानता है
प्रेम और संन्यास दोनों नहीं पा सकता
क्या प्रकृति और ईश्वर का कोई संबंध नहीं?
संन्यास में मग्न रहकर प्रेम
प्रेम में समा कर संन्यास
कितना कठिन है मनुष्यों के लिए
ईश्वर वह नहीं, जो मुँह चिढ़ा कर भाग रहा है
ईश्वर वह है, जो कण- कण में समाहित है
प्रकृति ही प्रेम है
प्रेम ही संन्यास है
संन्यास ही परमेश्वर है।

आँखों में मानचित्र

मैंने एक साथ कई चीजें देखी हैं
हँसते- गाते लोग, मायूसी में डूबी हुई स्त्री
कंधों पर भारी बोझ लादे मजदूर
बकरियों के झुंड में एक अकेली लड़की
पहाड़ के पीछे डूबता सूरज
जंगल में पशुओं के भय से भागते- गिरते लोग
एक लड़की की विदाई
माँ का चीखना, पिता का गमछा के पीछे मुँह छुपाना
ससुराल में बात- बात पर ताने सुनना
पल-पल उसका फफकना
भात के अदहन में नमकीन आंसुओं का स्वाद
यह सब धीरे धीरे मेरी आंखों में
मानचित्र सा बसता जाता है।

मैं अकेले जीने में सक्षम हूँ

मैं अकेले जीने में सक्षम हूँ
मुझे नहीं चाहिये पुरुष रूप में कोई पहिया
जिस पर मैं स्थायी रूप से निर्भर रहूँ
और उसके चलने का इंतज़ार करूं
मैं विरोध नहीं करना चाहती समाज के किसी भी प्राणी का
लेकिन मैं प्रेम करती हूँ अपने आत्मसम्मान से
और जो इसे ठेस पहुँचाये
मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे
तुम्हें तकलीफ़ होती है हमारी एकल जिंदगी से
या फिर तुम्हें भी मेरी तरह आजादी चाहिए ?
पति की कमाई पर स्त्रियाँ इतराती हैं 
पर खुद की कमाई पर जीना शायद नहीं जानतीं वे 
पितृसत्ता की गुलामी से बेहतर है
कि हम पिता और पति को बताएं कि
अपने बनाये घेरे में वो स्वयं रहें 
हम अहिल्या बनकर
वहाँ जड़ होना नहीं चाहतीं।

आँखों का नमक

तुम उस लड़की को जानते हो
जिसके पिता ने छीन ली हैं उसकी किताबें
और छोटी उम्र में ही थमा दी गई हैं
घर की सारी जिम्मेदारियाँ

उसके सब्जी में नमक नहीं
उसके नेत्रजल की मिलावट है
वह घर तो रोज साफ करती है
लेकिन उसका चेहरा मलिन रहता है

कभी देखना गौर से
उसके माथे की सलवटें
कुछ न कहते हुए भी
बहुत कुछ बतायेंगी तुम्हें

वह खुश तो बहुत रहती है
लेकिन उसकी खुशी का कभी राज मत पूछना
नहीं तो एक दिन वो रो बैठेगी
और उसकी आँखों का नमक हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा

तुमने उस लड़की का मन कभी पढा है
जिसके पति ने नहीं  दी उसे आगे पढ़ने की इजाज़त
एक दिन उसकी आँखों से निकलेगा
नफरत का धुआँ
होठों से शब्दों की चिंगारियाँ
और मिटा डालेंगी राह के कांटों को

वह लड़ेगी अपने लिए
तुम्हारे बनाये पितृसत्ता समाज से
वह डटी रहेगी इस लड़ाई में अंत तक
अपनी बेटियों के भविष्य के लिए।

सैनिक पिता

मेरा जन्म जब हुआ था
मेरे पिता तैनात थे बॉर्डर पर सब की सुरक्षा में
लेकिन मेरी माँ असुरक्षित महसूस कर रही थीं
एक मेरे पिता के पास न होने से

मेरे तीसरे जन्मदिन पर जब पिता घर आये थे
माँ कहती थी वह बहुत खुश थे
लेकिन सारी खुशियों पर पानी फिर गया
एक उनकी माँ के न होने से

जब वह वापस जाते थे
मेरी माँ खत का महीनों इंतज़ार करती थी
लेकिन उन्हें फुर्सत नहीं थी खत लिखने की
माँ घंटों रोया करती थी, खत के न मिलने से

उस दिन होली के उत्सव पर जब मैं रंगों में पुता था
मेरे पिता खून से लथपथ
तिरंगें में लिपटे एक ताबूत में आये थे
मेरी माँ उन्हें रंगीन तिरंगें में देखकर सफेद हो गई थीं।

क्षणिका

बारिश प्रेम की परिभाषा है
और पानी उसका अर्थ।


 
परिचय

नाम - दिव्या श्री
जन्मस्थान - बेगुसराय, बिहार
संप्रति - शिक्षा, कविता लेखन में विशेष रुची
प्रकाशन - वागर्थ
वेब प्रकाशन - हिन्दीनामा, तीखर, युवा प्रवर्तक

 divyasri.sri12@gmail.com

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

प्रेम की चिर-कालीन संवेदना

अनु चक्रवर्ती की कविता उतनी ही बहिर्मुखी है, जितनी मन के कोनों को  खंगालने वाली । उनकी कविताओं में मॉडर्न फेमिनिज्म भी दिखता है, जहाँ वो देह की अकुलाहट को बयां करती हैं, और प्रेम की चिर-कालीन संवेदना भी । प्रेम से ले कर युद्ध तक की सीमाओं को छूती हैं उनकी कविताएं । प्रेम, प्रकृति, पुरुष का मन, और जीवन की विडम्बना भरी चुनौतियाँ, इन सब को अनु बहुत अच्छे से संजोती हैं अपनी रचनाओं में । उन्हें समझना उतना ही आसान है, जितना खिले हुए पुष्पों को, और उतना ही दुरूह जितना प्रेम में पड़ी जोगन को - अनुपमा गर्ग


अनु चक्रवर्ती की कविताएं


दो लोगों के बीच का सच !

दो लोगों के बीच का सच
हमेशा ही बना रहता है एक रहस्य ..
बन्द कमरे के अंदर का सन्नाटा 
लील जाता है पूरी तरह से 
जीवन के उल्लास को  ...
अकुलाते देह के भीतर 
जब कसमसाती हैं भावनाएं
तब मन की
 पीड़ा का बोझ 
बढ़ जाता है 
थोड़ा और ...
स्त्री जब प्रेम में होती है 
तब तन , मन ,
 और धन से 
करना चाहती है 
समर्पण !
खो देना चाहती है
 अपना सम्पूर्ण वजूद ....
एक ओंकार की तर्ज़ पर ,
बह जाना चाहती है ..
सम्वेदनाओं की सरिता में ।
किंतु सुपात्र ! 
की तलाश में 
 उन्मत्त  भी रहती है -  
उम्र भर ....
फ़र्ज कीजिये -
किसी जोगन को अगर लग  जाए 
प्रेमरोग !
 तो विडम्बना की पराकाष्ठा 
भला इससे बड़ी और क्या होगी....
वास्तव में ,
प्रेम में निर्वासित स्त्री ही 
वहन कर सकती है
सम्पूर्ण मनोभाव से योग......
अपनी भूख , प्यास ,
और नींदें गंवाती है....
मात्र प्रीत के ,
स्नेहिल स्पंदन की तलाश में ..
और
उसकी ये तलाश 
शायद !
अधूरी ही रह जाती है 
जन्मों तक ...
क्योंकि 
कहीं न कहीं 
प्रेम !
संकुचन का अभिलाषी होता है
जबकि श्रद्धा !
चाहती है विस्तार .....


हे अर्जुन !!


हे अर्जुन !
आज मै भी समझ सकती हूँ ..
तुम्हारे दर्द को पूर्णतः  ....
निश्चित,
कितनी असीम पीड़ा को तुमने सहा होगा...
अपनों को अपने ही, ह्रदय से दूर कर देने का दंश 
सिर्फ,  
तुम्हारी ही छाती वहन  कर सकती है  प्रिये ! 
किन्तु,  
तुम सदा से ही थे भाग्यवान !!
क्यूंकि
कृष्ण !!
जैसा मित्र और सारथी 
भला  किसे मिला है इस जहान में...?
जो विश्व कल्याण के  लिए ,
प्रशस्त कर सके विहंगम मार्ग भी ....
भर सके चुनौती प्रेम से आसक्त उर में....
समझा सके , 
सत्य और असत्य का भेद...
और तैयार कर सके भुजाओं को ...
ताकि गांडीव में 
दुगुनी ऊर्जा का हो सके संचार....
और लोक हित में ,
बनी रहे मर्यादा कर्तव्यनिष्ठा की...
हे पार्थ..!
सच, ह्रदय पर तुमने लिया होगा 
ना जाने कितना घाव...
जब प्रत्यंचा चढाई होगी 
तुमने पहली बार
अपने ही परिजनों के विरुद्ध ....
बाल्यकाल... राजमहल ...और गुरुजनों 
के स्नेह को करके परे....
तुमने भर ली होगी  अग्नि 
अपने दोनों अश्रुपूरित  नयनों में...
हे द्रोण प्रिय !!
काश ! 
हम भी ले सकते सही निर्णय 
समय निर्वहन के साथ- ही- -साथ...
और उजास से भर सकते
वर्तमान को ..
त्याग आत्मिक संबंधों काे ,
उज्जवल भविष्य की परिपाटी  के लिए ...
केवल युग-पुरुष ही कर सकते हैं,  शायद...!!


नींद


तुम्हारे साथ उम्र की 
सबसे सहज नींद का उपभोग किया है मैंने !
तुम्हारा हाथ थामे - थामे 
बादलों के देश भी घूम आई हूँ
कई बार ....
तुम्हारे पास होने पर 
सपनों जैसा कुछ नहीं होता ...
बल्कि
दर हकीक़त !
सिलसिलेवार मन के  सारे ख़्याल
भी पूरे होने लगते हैं ....
मुझे   ऐसी बेख़ौफ नींद से जागना 
कतई मंजूर नहीं होगा ...
तुमने कहा था - कि 
तुम मुझे सुलाने के लिए 
नींद की गोलियां कभी नहीं दोगे ....



शिरीष के पुष्प

जब  उमस से भरी यह धरती 
लू के थपेड़ों को सहती है 
 काल बैशाखी की विकल घटाएं 
शाखों की उंगलियां मरोड़ती हैं .....

जब संसार  की सारी मनमर्ज़ियाँ
 उदासी  का पैरहन ओढ़ लेतीं हैं
जब  इंसान के मन की बेचैनियां
शुष्क गलियों से गुज़रतीं हैं ...

जब पानी की एक - एक बूंद को 
सारी  प्रकृति तरसती है 
जब सूरज की  तेज़ किरणों से 
वनस्पतियां भी झुलसती हैं ...

जब हरित धरा धूसर हो जाती है
और राग - रागिनी कहीं खो जाती है 
 तब सर  पर कांटो का ताज लिए
 यह  रक्तिम आभा बिखेरते  हैं  .....

यूँ छुईमुई -सी  लजाती शिरीष !
विषमता में अपना शौर्य दिखलाती है 
वसंत से लेकर आषाढ़ तक केवल
यह अजेयता का मंत्र दोहराती हैं  ...


 जो - जिसने


जो छोड़कर गया है, वो एक दिन लौटेगा 
अवश्य ....

जिसके लिए नीर बहाया है तुमने 
उसे लगेगा अश्रुदोष ....

जिसने अनुराग को समझा मनोविनोद 
उसे स्वस्ति नहीं मिलेगी कभी....

जिसने पूर्ण समर्पण को किया अनदेखा
वो भोगेगा संताप भी ...

जिसने प्रेमत्व के बदले देना चाहा किंचित सुख
वह उपालंभ के अधिकार से भी होगा वंचित ....


अपनाना इस  बार !

मैं बाहर से जितनी आसान हूँ !
अंदर से उतनी ही मुश्क़िल भी ....
 भीतर से जितनी सरल हूँ !
ऊपर से उतनी ही कठिन भी ...

आज ससम्मान सौंपना  चाहती हूं 
तुम्हारा हाथ उसे ,
जिससे तुम करते आये हो निरंतर प्रीत !
और जिसकी भीति से तुमने 
उत्सर्ग किया है मेरे अनुरागी मन का ...

 जो कभी मुझे सचमुच में अपनाना चाहो
 तो  ऐ साथी ,
अपनाना अपने व्यस्ततम एवं दुसाध्य  क्षणों में ...
जो मेरे पास आये  तुम केवल  फ़ुर्सत के पलों में....
तो ये तय है -
क़े  फ़िर कभी पा न सकोगे मुझे !

क्योंकि मैं  सामने से जितनी मुलायम हूँ 
पर्दे के ठीक पीछे ,उतनी ही सख़्त भी ......

परिचय 

श्रीमति अनु चक्रवर्ती 
C/O श्री एम . के . चक्रवर्ती
C - 39 , इंदिरा विहार 
बिलासपुर ,छत्तीसगढ़ 
Pin - 495006 
Ph- 7898765826

: वॉयस आर्टिस्ट  , रंगकर्मी , मंच संचालन में सिद्धहस्त , विभिन्न पत्र पत्रिकाओं , बेव पोर्टल्स ,और सांझा संग्रहों में रचनाएं प्रकाशित , तीन फ़ीचर फ़िल्म में अभिनय करने का अनुभव , स्क्रिप्ट राइटर ।

तुम कभी नहीं समझ सकते उस जिंदगी को

अपनी कविताओं में विधान कुछ मौलिक सवाल उठाते हैं जो आपको सोचने-विचारने को बाध्‍य करते हैं कि आपके खुद की निगाह में अजनबी होने का खतरा पैदा होने लगता है। इन कविताओं से गुजरने के बाद चली आ रही व्‍यवस्‍था को लेकर आपके मन में भी सवाल उठने लगते हैं और उसके प्रति आंखें मूंदना आपके लिए असुविधाजनक होता जाता है।

विधान की कविताएं


भाग गया ईश्वर

 
मुर्गे की जान की कीमत
एक सौ बीस रुपये
लगाने वाला कौन है?

कौन हैं वो
जो जान की क्षति पर
घोषि‍त करते हैं

चंद लाख का मुआवजा?

कौन  बेचारे मेमने पर
दो गोली दाग़ गया

इस बीच तुम्हारा  ईश्वर 
किधर भाग गया!
   
2

घर लौट रहे लोग मूर्ख नहीं
 

शायद तुम्हे मालूम न हो
कई दिनों तक भूखे पेट रहने का परिणाम

तुम्हारे पिता की मृत्यु महँगी शराब के अत्यधिक सेवन से हुई हो
या तुम्हारे भाई की मृत्यु की वजह रही हो किसी कार की तेज़ रफ़तार ।
तुमने रोटी से दब कर एक मर्द के स्वाभिमान को मरते नहीं देखा
या तुम्हारे लिए कभी घर लौटना उस बाप की तरह जरूरी नहीं रहा
जिसके दिन भर की कमाई से लाया जा सकेगा
शाम के भोजन के लिए सब्जी, आटा और चावल
अपने भूखे परिवार का पेट भरने की खातिर!

तुम कभी नहीं समझा सकते उस जिंदगी को
अनुशासन का पाठ
जो भली भांति समझता है
जिंदगी से मौत की दूरी के गणित को।

साहब ,गरीब शिक्षित नहीं पर जानता है
तुम्हारे वादों की काल्पनिकता और हकीकत के अनुपात को।
दरअसल उसे वायरस से मरने का खौफ उतना नहीं
जितना 'इस बज़्ज़ात भूख से'
अपने बाप की तरह
सरकारी मदद पहुँचने से ठीक पहले मर जाने का है!

3
मेरी फिक्र

अब जब कोई
आने लगता है करीब
इस दिल के
या फिर ये दिल जाने लगता है
 करीब किसी के

तो  बढ़ जाती है मेरी फिक्र!

सोचने लगता हूँ मैं
जगह बनाने की
अपने जख्मी बदन पर
फिर कुछ उँगलियों के
नए ज़ख्मों की ख़ातिर!
     
4

तेरी जात का                                                   

तुम्हें  मालूम नहीं   क्या?
कैसी बात करते हो तुम!
आज जिसके पास खड़े होते ही
सिकुड़ गयी थी तुम्हारी नाक
उसी धोबी ने  धोये थे कल तुम्हारे वस्त्र
वो भी मसल मसल के
 अपने शूद्र हाथोँ  से

हे राम
ये कैसी उच्च जाति से हो तुम!
कि भूल गए दहलीज पर रखे
दफ्तर जाने का इंतजार करते उस जूते को
जिसपे फेरे  हैं  सैकड़ों दफा
उस चमार ने अपनी उंगलियां
जिसकी पहचान और काम को
दूषित समझते आये हो तुम

छी छी

क्या सच तुम्हें नही आती
अपने दूध से
ग्वाले के अंगूठे की महक!
राम राम!
कितना बड़ा धोखा हुआ तुम्हारे साथ
कि तुम्हें अपने घर की दीवार, छत
बगान ,कुर्सी से ले कर मेज तक
बनाने के लिए नहीं मिले 

एक भी शुद्ध सवर्ण हाथ!

5

ये बच्चा नहीं एक देश का मानचित्र है

मुझे भ्रम होता है कि एक दिन ये बच्चा
बदल जायेगा अचानक
'मेरे देश के मानचित्र में'

और सर पर कश्मीर रख ढोता फिरेगा
सड़कों - चौराहों पर
भूख भूख कहता हुआ

मुझे भ्रम है कि कल इसके
कंधे पर उभर आयेंगी
उत्तराखंड और पंजाब की आकृतियां
भुजाओं पर इसकी अचानक उग आयेंगे 

गुजरात और असम

सीने में धड़कते दिल की जगह ले लेगा
मध्यप्रदेश

नितंबों को भेदते हुए निकल आएंगे
राजस्थान और उतरप्रदेश
 

पेट की आग से झुलसता दिखेगा 
तेलंगाना

फटे  चीथड़े पैजामे के  घुटनों से झाँक रहे होंगे
आंध्र और कर्नाटक

और पावँ की जगह ले लेंगे केरल औऱ तमिलनाडु
जैसे राज्य।

मैं जानता हूँ ये बच्चा कोई बच्चा नहीं
इस देश का मानचित्र है
जो कभी भी अपने असली रूप में आ कर

इस मुल्क की धज्जियां उड़ा सकता है!

6


क्योंकि काकी अखबार पढ़ना नहीं जानती थीं


अखबार आया
दौड़ कर गयी काकी

खोला उसे पीछे से
और चश्मा लगा पढ़ने लगी राशिफ़ल
भविष्य जानने की ख़ातिर !
वो नही पढ़ सकीं वो खबरें
जिनमें दर्ज थीं कल की तमाम वारदातें

ना ही वो जान सकीं क़ातिलों को
और उन इलाकों को
जो इनदिनों लुटेरों और क़ातिलों का अड्डा थे !

अफसोस, काकी भविष्य में जाने से पहले ही
चली गयी उस इलाके में

जहाँ जाने को मना कर रहे थे अखबार !

अब उनकी मृत्य के पश्चात -
काका खोलते हैं
भविष्य से पहले अतीत के पन्ने
जो चेतावनी बन कर आते हैं अखबार से लिपट

उनकी दहलीज़ पर!

परिचय

शिक्षा- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
संपर्क- 8130730527