सोमवार, 15 जुलाई 2024

साइकिल मेरे पिता की सवारी थी, इसलिए मेरा आइडियल...

 साइकिल—  कुछ यादें ...

डॉ.विनय कुमार 



साइकिल के साथ बहुत सारी यादें जुड़ी हैं। साइकिल मेरे पिताजी का प्रिय वाहन है। मुझे वे दिन भी याद आ रहे जब हमारे घर में साइकिल नहीं थी और माँगने पर कई लोग देना नहीं चाहते थे। दरअसल सब इस बात से डरते थे कि उनकी साइकिल में कुछ ख़राबी आ जाएगी क्योंकि पिताजी  साइकिल बहुत तेज चलाते थे। उनकी यह तेज़ी पचासी की उम्र में भी बनी हुई है। फ़र्क़ बस यह पड़ा है कि पिछले दिनों दो बार गिरने के कारण फ़ैमिली पार्लियामेंट  ने उनके  साइकिल चालन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित कर दिया है और वह प्रस्ताव क़ानून बनकर लागू भी हो गया है। यह लिखते हुए बचपन का एक प्रसंग याद आ रहा। मेरे दाहिने कान में कई दिनों से दर्द था और (तब भी) मैं स्कूल गया हुआ था। कोई चार बजे के आसपास पिताजी आए और मुझे साइकिल पर बिठाकर ले चले। रास्ते में बताया - डॉक्टर के यहाँ चलना है, खिजरसराय। घंटा भर इंतज़ार के बाद डॉक्टर साहब ने देखा और कह दिया कि नाक-कान-गला विशेषज्ञ से मिलो। पिताजी ने फिर मुझे साइकिल पे बिठाया और गया चल पड़े। मेरे गाँव से गया की  दूरी कोई बत्तीस मील है, मगर बाबूजी की तेज़ी ! विशेषज्ञ डॉक्टर से दिखाकर रात के खाने के समय चाचाजी के घर पर, और सुबह साढ़े सात बजे अपने गाँव वापस। 

तो साइकिल मेरे लिए पिता की सवारी थी इसलिए मेरा आइडियल। जब भी किसी को पैडल मारते -घंटी बजाते सर्र से निकलते देखता मेरा मन मचल उठता।यह एक संयोग था कि मैं ग्रामीण राष्ट्रीय मेधाविता परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अपने सब डिविज़न के चयनित आवासीय स्कूल दाख़िल हुआ और घर से दूर रहकर एक नयी आज़ादी का मज़ा लेने लगा। दाख़िले के सात-आठ महीने बाद  मुझे  एक लावारिस साइकिल मिल गयी। इसके पीछे एक मज़ेदार क़िस्सा है। हुआ यह कि एक दिन हमारे हॉस्टल में एक सज्जन दिखे और फिर रोज़ दिखने लगे। दरअसल वे एक कमरे में जम चुके थे। उम्र लगभग पचास साल,  मझोला क़द, रंग गोरा और कुछ-कुछ पकी मूँछें नुकीली। उजली क़मीज़-धोती में एकदम सज्जन लगते थे। उन्हें प्रवचन का बड़ा शौक़ था।  यूँ तो जो भी  पकड में आए उसे थोड़ा सा  ज्ञान  पिला देते थे, मगर महफ़िल शाम को जमती थी हॉस्टल के गार्डेन में। शाम को वे सिर्फ़ धर्म और इतिहास पर बात करते थे, और वह भी राजस्थान के इतिहास पर। राणा सांगा और प्रताप उनके प्रिय नायक थे। उनके व्यक्तित्व के इस राजपूती रंग ने हमारे स्कूल के प्रिन्सिपल साहब और हॉस्टल के सूपरिंटेंडेंट साहब का दिल जीत लिया था। समझदार लोगों को कारण समझाने की क्या ज़रूरत ? बहरहाल, यह सिलसिला कोई दस दिनों तक चला, और एक दिन सज्जन काफ़ूर। कमरे में एक फटी हुई लुंगी और दीवार से चिपकी राणा प्रताप की एक तस्वीर। जब वे रात तक नहीं लौटे तब हमारे क्षात्र-धर्मावलम्बी गुरुओं का स्यापा चालू हुआ। सज्जन उनलोगों से कोई दो हज़ार ऐंठकर निकल चुके थे। इसी हो -हल्ले के बीच हमलोगों को एक पुरानी ख़स्ताहाल साइकिल दिखी। पता चला, उन्हीं की है। उस वक़्त तो प्रिन्सिपल साहब ने साइकिल में ताला लगवा दिया मगर अगले दिन उसे उसे यह कहते हुए मुक्त कर दिया गया कि कोई चाहे तो कैम्पस के भीतर सीख सकता है। 

साइकिल दस्तरस होते ही मुझे पिताजी की याद आई और मैं पिल पड़ा, और जल्द ही सीख भी गया। गर्मी की छुट्टी में जब हॉस्टल से गाँव गया और एक भाई साहब की साइकिल माँग , उस पर दस किलो गेहूँ लाद,  बाज़ार से पिसवा कर लौटा तो लगा मैं भी बड़ा हो गया हूँ। मुझे अच्छी तरह याद है कि लौटते वक़्त पिताजी मिले थे। मैंने उन्हें देखकर रफ़्तार बढ़ा दी थी। ठीक ही कहता है मनोविश्लेषण का सिद्धांत कि हर बच्चा अपने बाप जैसा होना चाहता है। मगर कहाँ हो पाता। आज भी पिता मेरे आदर्श ही हैं। मैं उनके  शारीरिक सामर्थ्य और आर्थिक-नैतिक  संयम को चाहकर भी नहीं साध पाया। मगर उनका एक वाक्य हर रफ़्तार में मेरे साथ रहा है। जिस रोज़ पहली बार साइकिल चलाते देखा था पिताजी ने, उसी शाम रात के खाने के वक़्त कहा था - आराम से चलाना, बहुत तेज नहीं।  तेज़ी के क़ायल पिता के इस वाक्य का अर्थ तब समझ में आया जब मैंने अपने पुत्र को साइकिल चलाते देखा और वह भी तेज! 

मेरी साइकल तो जल्द ही छूट गयी थी मगर अपने दादाजी पर गए पुत्र अभिज्ञान के साथ यह विरासत बनी है।आईआईटी खड्गपुर  से लेकर यूमास ऐमहर्स्ट में पीएचडी करने तक और अब हेल्थ इंस्ट्रुमेंट के रूप में। उसी की वजह से जान पाया कि आईआईटी खड्गपुर में डीन भी साइकल पर ही चलते हैं। ऐमर्हर्स्ट में भी साइकल की महिमा दिखी और स्टैन्फ़र्ड यूनिवर्सिटी में भी। केम्ब्रिज और आक्स्फ़र्ड (यूके) तो ख़ैर हैं ही प्रसिद्ध इस बात के लिए कि कैम्पस में शोर और धुआँ कम से कम हो। 

एक बड़ा ही रोचक अनुभव शांति निकेतन का भी है। कई साल पहले की बात है। शांति निकेतन में इंडियन साइकाएट्रिक सोसाइटी के ईस्टर्न ज़ोनल ब्रांच का ऐन्यूअल  कॉन्फ्रेन्स था। कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए मुख्य अतिथि का इंतज़ार था। हम जैसे उत्साही लोग बाहर खड़े थे। उम्मीद थी कि कोई सफ़ेद ऐम्बैसडर आकर और उससे सूट-बूट में सजे वाइस चांसलर साहेब परगट होंगे। ऑर्गनाइज़िंग कमिटी के लोग बार-बार घड़ी देख रहे थे और कह रहे थे - He will come on time। मैंने घड़ी देखी - ठीक पाँच, मगर वहाँ कोई गाड़ी आकर नहीं रुकी। एक साइकल ज़रूर रुकी। चालक ने साइकिल स्टैंड पर चढ़ायी, ऑटमैटिक ताला खटाक किया, जेब से रूमाल निकाल पसीना पोंछा और चढ़ गया सीढ़ियाँ। तब जाकर एक आयोजक ने पहचाना और हाथ जोड़े - वीसी साहब , नमस्कार!

बुधवार, 10 जुलाई 2024

एक मतदाता की डायरी

चुनाव, संविधान और जाति व्‍यवस्‍था - अरुणजी 



एक जून 2024 को लोकसभा चुनाव के सातवें चरण का अन्तिम दिन था। हमारे शहर पटना में मतदान का दिन। आशियाना नगर के घर में हम बस तीन लोग हैं। पिता जी, बन्दना और मैं। इनमें 93 वर्ष के पिता जी सुपर सीनियर सिटीजन हैं। बाकी दोनों भी सीनियर सिटीजन बन चुके हैं। तीनों को वोट डालने जाना था। इसके लिए हमने एक दिन पहले कुछ तैयारियां की थीं। कि क्या पहनना है, कितने बजे मतदान केंद्र पर पहुंचना है वगैरह वगैरह। इसके अलावा मैंने एक दो विडियो भी देखा था। ईवीएम, वीवीपैट वगैरह के बारे में, जिससे कि मतदान केंद्र पर मशीन की प्रक्रिया को समझने में कोई दिक्कत नहीं हो। या उसके कारण अचानक कोई परेशानी न हो।


सुबह सात बजे मतदान शुरू होना था। हमने तय किया था कि ठीक पौने सात में निकलेंगे। सवेरे सवेरे वोट डालकर लौट आएंगे। वोट डालने के लिए पर्चियां हमें मिल चुकी थीं, एक सरकारी मुलाजिम ने हमें करीब पंद्रह दिन पहले ही घर आकर सुपुर्द कर दी थीं ।  


एक घर में एक साथ रहते हुए भी मैं और पिता जी दो अलग-अलग ध्रुवों के निवासी हैं। पिता जी बीजेपी के प्रबल समर्थक हैं। मोदी के भक्त। मैं ठहरा मोदी का विरोधी। वैसे भी हमारे देश में अब दो ध्रुव ही बचे हैं। मोदी के समर्थक या उसके विरोधी। दक्षिण, वाम, उदारवादी, सोशलिस्ट जैसे शब्द हमारे शब्दकोष से दूर हो गए हैं। 


बन्दना इस तरह की राजनीतिक बहसों से दूरी बनाए रहती है। अगर उसकी अपनी कोई राय है भी तो उसे वह सार्वजनिक नहीं करती। हां, वह हम दोनों के बीच सामंजस्य जरूर स्थापित करती है। पिछले तीन चार वर्षों में पिता जी और मेरे बीच दो-चार बार मोदी को लेकर तीखी नोंक-झोंक हो चुकी है जिसमें बन्दना ने बीच-बचाव किया है। वह पिता जी का पक्ष लेती है। शायद मुझे चुप कराना उसके लिए ज्यादा आसान है। 


इतने दिनों में मैंने एवं पिता जी ने अपनी सीमाओं में रहना सीख लिया था। अपनी बातचीत में हम राजनीतिक मुद्दों से दूरी बनाए रखते हैं। कोशिश करते हैं कि हम एक दूसरे के सामने अपने मत व्यक्त न करें। और अगर हममें से किसी एक ने छेड़ भी दिया तो दूसरा उसे नज़रंदाज़ कर दे। हम प्रयास करते हैं कि अपने विचारों की सीमाओं के अंदर रहें। हम दोनों के बीच शांति बरक़रार रखने में बन्दना की भूमिका महत्वपूर्ण है।


बन्दना के सौजन्य से सुबह कॉफी पीकर हम तीनों पैदल निकल पड़े। तय समय से पांच मिनट लेट। सात बजने में दस मिनट बाकी था। पर्ची एवं आधार कार्ड हमारे साथ था। मतदान केंद्र हमारी कॉलोनी के दूसरे छोर पर आशियाना क्लब में था। हमारे घर से पैदल चलने पर यह करीब पांच-छह मिनट का रास्ता है। पर ये केवल बन्दना और मेरे लिए। पिता जी के लिए यह दूरी ज्यादा थी। वह रोज शाम के वक्त जितनी दूरी कॉलोनी के पार्क जाने में तय करते हैं उससे लगभग डेढ़ गुणा ज्यादा। उनकी उम्र और उनके स्वास्थ्य की स्थिति को देखें तो उनके लिए पार्क जाना ही अपने आप में एक चुनौती है। पर 93 वर्ष के पिता जी रोज़ अपनी छड़ी और अपने आत्मबल के सहारे अपनी गति से पार्क जाते हैं और वहां से लौट आते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कोई 30 वर्ष का व्यक्ति रोज मैराथन में भाग ले रहा हो। 


एक रात पहले मैंने पिता जी से पूछा कि क्या कल के लिए पांच सौ रुपए में हम एक टैक्सी किराए पर ले लें? हम तीनों साथ चलेंगे और मतदान के बाद उसी में बैठकर आ जाएंगे। उन्होंने उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि यह फिजूलखर्ची होगी। तुम्हारे पास अगर पैसे ज्यादा हैं तो मुझे दे दो। कहकर उन्होंने जोर का ठहाका लगाया। उनके इस अन्दाज़ को देखकर मैंने भी जोर डालना उचित नहीं समझा। वैसे भी इस मुद्दे पर मैं अलग-थलग पड़ चुका था। बन्दना उनसे सहमत थी।


अब रास्ते में हमारे लिए एक और चुनौती थी। हम दोनों को पिता जी का ध्यान भी रखना था। लेकिन हमें उनके साथ चलने की इजाज़त नहीं थी। जब कभी भी हम कहीं पैदल जाते हैं तो उनकी सख़्त हिदायत होती है, “तुमलोग या तो मेरे आगे चलो या पीछे। मेरे साथ मत चलो। और मुझे सहारा देने की कोशिश तो बिल्कुल मत करो। छुओ भी नहीं”। वे कहते कि तुम्हारे साथ रहने पर मैं दबाव महसूस करता हूं। लगता है कि मैं भी थोड़ा तेज चलूं, जो मेरे लिए अच्छा नहीं है। 


मैं तो प्रायः इस बात का ध्यान रखता हूं मगर पिछले महीने इसी बात पर मुरारी दा को डांट पड़ गई थी। असल में हम लोग (पिता जी, बन्दना, मेधा और मैं) एक समारोह में शामिल होने अपने गांव मोकामा गए थे। वहां पिता जी को लेकर मैं मुरारी दा के घर पहुंचा। घर के अंदर प्रवेश करने के लिए दो-तीन सीढ़ियां थीं। पिता जी अपने हिसाब से उसपर चढ़ने लगे। मैं उनके पीछे था और मुरारी दा उनके आगे। मुरारी दा को लगा कि पिता जी को सहारे की जरूरत है और उन्होंने उनके हाथ को सहारा देने के लिए पकड़ लिया। पर जैसे ही उन्होंने हाथ पकड़ा कि पिता जी ने जोर से झटककर उन्हें डांट दिया, “मुझे छुओ नहीं, हटो”। मुरारी दा मेरी ओर देखने लगे। मैंने इशारे से उनको मना किया।


यही थी हमारी चुनौती। उन पर नज़र भी रखना था और दूरी भी बनाए रखनी थी । मतदान केंद्र के रास्ते में बन्दना और मैं साथ-साथ चल रहे थे। पिता जी जब पीछे होते तो हम रुक जाते। जब वो आगे बढ़ जाते, तो हम उनके पीछे। इसी तरह कभी आगे तो कभी पीछे चलते हुए हम बढ़ रहे थे। रोड पर लोगों की चहल-पहल थी। हमारे कॉलोनी में चार मतदान केंद्र थे। कुछ लोग वोट डालने जा रहे थे। कुछ लौट कर आ रहे थे। कई परिचित सज्जनों से भेंट हो रही थी।


मैं सोचने लगा कि पिता जी आंख मूंद कर मोदी का समर्थन क्यों करते हैं? कोई स्पष्ट जवाब तो मेरे पास नहीं था। पर मुझे ऐसा लगता है कि 90 से अधिक उम्र वाले मेरे पिता जिस पीढ़ी से आते हैं, उसने भारत की आज़ादी को देखा है। उसने आज़ादी के पहले के समय को भी देखा है जब उनकी जाति, उनके समुदाय का समाज में वर्चस्व हुआ करता था। हम जाति से भूमिहार हैं। एक समय था जब जाति व्यवस्था के अनुक्रम में भूमिहार एवं कुछ अन्य जातियों का बोलबाला हुआ करता था। सत्ता एवं संसाधनों पर उनका वर्चस्व था। 


1947 में आज़ादी और ख़ासकर 1950 में संविधान के लागू होने के बाद इन जातियों को एक ज़ोर का झटका लगा। सबसे बड़ा झटका तो मानसिक था। बाकी असर तो इसका बाद के वर्षों में दिखाई पड़ा। धीरे-धीरे इन जातियों का वर्चस्व ढहने लगा। सत्ता एवं संसाधनों के इस हस्तांतरण को मैंने भी देखा है। कि कैसे समानता के सिद्धांतों पर आधारित हमारे संविधान ने बाकी जातियों को आगे बढ़ने में मदद की। हालांकि समानता अपने आप में एक मिथक है जिसकी पूर्णता किसी भी परिस्थिति में संभव नहीं है। 


पर शायद इन्हीं कारणों से पिता जी और हमारे समुदाय में उनकी पीढ़ी के बहुत सारे लोग कांग्रेस के शुरू से ही विरोधी रहे। क्योंकि उनके अनुसार कांग्रेस के कारण ही उनके समुदाय का वर्चस्व छिन गया। लालू यादव की पार्टी आरजेडी को तो ये बिल्कुल नहीं पसंद करते हैं। और कांग्रेस का इसी से एलायंस है। 


वैसे मोदी का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष धर्म है जिसके सहारे वो अपने वोटरों को एक जुट करते हैं। हिन्दू को खतरे में दिखाना, मुस्लिमों के प्रति घृणा पैदा करना। ध्रुवीकरण के मूल हथियार हैं। पिता जी को शायद यह आकर्षित करता है। उन्हें ऐसा लगता है कि मोदी एक ऐसा व्यक्ति है जो हमारी जाति, हमारे धर्म की खोयी हुई प्रतिष्ठा को लौटा देगा। 


मेरे लिए धर्म, जाति जैसी चीजें काल्पनिक सच्चाइयां हैं। इन पर आधारित राजनीति कलह और घृणा से भरी है। इनसे किसी का भला नहीं हो सकता। हमारा संविधान हमारे राष्ट्र की मुख्य पहचान है। और उसको ठीक तरह से लागू करने में ही हम सबका भला है। लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए मोदी जी ने संविधान को हमेशा तोड़-मरोड़ कर अपने फायदे के लिए उपयोग किया है। 


इसलिए मोदी जी का इस बार सत्ता में आना जनता के लिए ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है। क्योंकि इसके बाद भारत में बड़ी पूंजी का नंगा खेल शुरू हो जायेगा। और उस खेल में मोदी जी की भूमिका बस एक प्यादे की रह जाएगी। चंद पूंजिपतियों की संख्या जरूर बढ़ेगी। पर बाकी जनता की हालत बदतर हो जाएगी। और पिता जी जैसे समर्थकों का सपना भी पूरा नहीं होगा। क्योंकि धर्म और जाति इस खेल के केवल हथियार हैं, उद्देश्य नहीं।


रास्ते भर मैं विचारों के इसी उहापोह में रहा। इस बीच हम मतदान केंद्र पहुंच गए। पिता जी आगे थे और मैं उनके पीछे। गेट के सामने गार्ड ने उन्हें देखकर बड़े आदर भाव से केन्द्र के अंदर जाने की इजाजत दे दी। उनके अटेंडेंट होने के मुझे भी फायदे मिल रहे थे। हम दोनों को कतार में खड़े होने की जरूरत ही नहीं पड़ी। आगे आगे पिता जी और पीछे से मैं। बन्दना वोटरों के लिए बनी लाइन में शामिल हो गई। 


अंदर तीन टेबल थे। पहले वाले पर हमारे पहचान पत्र की जांच हुई। दूसरे पर हमसे दस्तख़त करवाया गया और तीसरे पर एक व्यक्ति ने हमारे बाएं हाथ की दूसरी उंगली पर स्याही लगा दी। स्याही लगने के बाद पिता जी को मैं उस टेबल के पास ले गया जहां उन्हें ईवीएम पर बटन दबा कर अपना वोट डालना था। गुप्त मतदान के कारण ईवीएम को एक घेरे में रखा गया था। 


अचानक वहां पहुंचने पर पिता जी को समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। ईवीएम के दाहिनी छोर पर पार्टी के चुनाव चिन्ह का कॉलम था जो मुझे तुरंत दिख गया। कांग्रेस का चुनाव चिन्ह ‘हाथ’ सबसे ऊपर था। इसके बाद दो और चिन्ह थे। बीजेपी का ‘कमल’ चौथे स्थान पर था। उसके नीचे कई और चिन्ह थे।


पिता जी मुझसे बार-बार पूछने लगे कि क्या करना है। उन्हें अपना मनपसंद चिन्ह नहीं दिख रहा था। मैंने उनको कहा कि आप आराम से एक बार दाहिनी ओर दिये गये कॉलम को देखिए। आप जिस पर लगाना चाहते हैं वो मिल जाएगा। जब वे खोजने लगे तो मेरे मन में ये बात आ रही थी कि शायद उनका मन बदल जाए और वे मेरी पसंद के बटन को दबा दें। मैं चाहता तो उन्हें ऐसा करने के लिए एक बार कह सकता था। पर मैंने उसमें दखल देना उचित नहीं समझा।


खैर दो-तीन बार ऊपर नीचे देखने के बाद उन्हें कुछ दिखा। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं यहां दबा दूं? मैनें हां कर दी और उन्होंने उस बटन को दबा दिया। उसके बाद मैंने भी अपना मतदान किया और हमलोग बाहर की ओर चल पड़े। बाहर मैंने उनका फोटो वगैरह खींचा। फिर हम घर की ओर चल पड़े।


सोमवार, 8 जुलाई 2024

हम चोर नहीं हैं

 यात्रा कथा  - यादवेन्द्र


कुछ साल पहले की बात है, मैं रेल के स्लीपर में पटना से श्रमजीवी एक्सप्रेस से मुरादाबाद जा रहा था। मेरी बर्थ किनारे वाली सीट पर नीचे थी और सामने की छह सवारियों में से दो दिल्ली में बच्चों के इलाज के लिए जाने वाले लोग थे जिनके साथ खुद बच्चे भी थे - बार बार की यात्राओं में मैं देखता रहा हूं कि लाइलाज मुश्किल बीमारियों और गाँव में कोई सुविधा न होने पर चमत्कार की आशा लेकर एम्स की ओर रुख करने वालों की संख्या बढ़ रही है। बात तब की है जब पटना में एम्स नहीं खुला था।

एक व्यक्ति करीब साठ साल का था जो अपनी घूंघट निकाले पत्नी को पहली बार दिल्ली ले जा रहा था - लगभग सोई सोई  चल रही थी उसकी पत्नी। उसकी बर्थ ऊपर की थी और बार बार की कोशिशों के बाद भी वह ऊपर चढ़ नहीं पा रही थी - दिल्ली में उसका पति बरसों से रह रहा था और कोई छोटा मोटा काम करता था।उसका पति अपनी पत्नी की यह उछाड़ पछाड़ बड़े निस्पृह भाव से देख रहा था...मदद करना तो दूर, हर बार स्त्री की कोशिश नाकाम होते देख कर दुनिया भर के ताने देता जा रहा था। दोपहर की गर्मी में उसने ठण्डा बेचने वाले से कोक की एक बोतल ली, ज़िद करने पर पत्नी ने बड़ी अनिच्छा से एक घूँट भरी और गला जलने की बात कह के परे हट गयी। बातचीत में खुलासा हुआ कि गांव में रहने वाली उसकी पत्नी को लो बी पी की शिकायत रहती है और पति उसका इलाज करवाने के लिए दिल्ली ले जा रहा था।

एक आठ दस साल के बच्चे के साथ उसका पिता जा रहा था जो उन सब में लगभग वाचाल होने की हद तक सबसे ज्यादा मुखर था .... लो बी पी की बात सुनते एक लाइन से उसने आठ दस दवाइयों के नाम धड़ल्ले से बता दिए और सामने वाले यात्री से पूछने लगा कि उसकी पत्नी कौन सी गोली खाती है। उस आदमी के गोली का नाम न बता पाने पर हिकारत और हैरानी से भरी नौजवान की प्रतिक्रिया से मैं विचलित हो गया - कई बार मैं भी तो अपनी दवाई का नाम नहीं याद रख पाता। तो क्या यह ऐसा गुनाह है जिसके लिए किसी को जलालत भुगतनी पड़े ?पूछने पर उसने बताया कि बिहार शरीफ़ में वह दवा का कारोबार करता है और एक ही साँस में नए नए सरकारी नियम के चलते इस बिजनेस में भारी मुनाफे में कैसी कमी हुई है उसका अर्थशास्त्र भी मुझे और सबको समझा गया। दूसरे बीमार बच्चे के युवावस्था में ही अधेड़ जैसे दिखाई देने वाले मां पिता बेटे की उम्र के अनुकूल शरीर और दिमाग की वृद्धि न हो पाने से दुखी और हताश थे ...गाँव से बार बार पटना आकर काफी पैसा फेंकने के बाद उन्होंने भी दिल्ली जाकर एम्स में दिखाने का हौसला किया था। करीब दस साल का बच्चा खूब सुदर्शन था पर न बोल सकता था न ही स्वयं चल फिर पाता था। अबतक डाक्टर यही बोलते रहे थे कि पंद्रह सोलह की उम्र तक आते आते बच्चे की दशा अपने आप सुधर जायेगी -- शायद दिल्ली के बड़े डाक्टरों से भी ऐसा भरोसा मिलने की आस लिए वे पटना से बाहर निकले थे , बड़बोला दवा कारोबारी उनको एम्स में दिखाने के अपने तजुर्बे और ट्रिक समझा रहा था। शाम होते होते बच्चे को लेकर बाथरूम गए माँ पिता के वहाँ से ओझल होते ही उसने बैठे हुए अन्य लोगों के बीच अपना एक्सपर्ट ओपीनियन दे दिया कि बच्चा बस कुछ दिनों का मेहमान है और सभी डाक्टर सिर्फ़ पैसे चूस रहे हैं और माँ पिता को बेवकूफ बना रहे हैं। बार बार यह भी बोलता कि बच्चे के माँ पिता जान पहचान के होते तो वह उनको असलियत बता देता और खा म खा पैसे पानी में फेेंकने से बचा लेता --- मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह उसकी इंसानियत/ सदाशयता बोल रही है या अधकचरे ज्ञान का दम्भ?

अँधेरा होने के बाद जब बत्ती बुझा कर सोने का उपक्रम किया जाने लगा तो बूढ़े ने नीचे की सीट हथिया ली और बीमार और ऊपर चढ़ने में अबतक नाकाम पत्नी को ऊपर जाकर सोने का फरमान सुना दिया -- हिंया चोरी चमारी के डर हो ,जा ऊपर सूत रह! फिसल कर दो बार गिरने पर भी जब वह ऊपर नहीं चढ़ सकी तो मैने साथ की दूसरी स्त्री से कहा कि हाथ लगा कर उस यात्री को सहारा दे दे। जैसे तैसे वह ऊपर पहुँची ही थी कि पूरे डिब्बे में उसके पति के खर्राटे गुंजायमान होने लगे।

सोते सोते रात में शोर शराबे से अचानक नींद टूटी -- बगल के कूपे से "पकड़ो, चोर.. चोर" का आहवान। आनन फानन में बुझी हुई लाइटें जलने लगीं और जिसको मौका मिला शोर वाले कूपे की ओर लपकता भागता हुआ दिखाई दिया। हम भी दौड़े, हमारे कूपे के सहयात्री भी दौड़े -- तभी गुलाबी रंग की शर्ट पहने एक लड़के पर सबकी नजर गयी जिसको उस कूपे में यात्रा कर रहे औरत मर्द ( गिनती में औरतें ज्यादा थीं ) बुरी तरह से पीटते जा रहे थे। दवा कारोबारी भी हो हल्ला करता हुआ वहाँ पहुँच गया और पिटते बच्चे की बुशर्ट पहचान कर सकपका गया --- उसके मुँह से "मारो साले को ...चोर को भागने मत देना" ... निकलते निकलते बीच में ठहर गया - आधा अंदर आधा बाहर। बिजली का जैसे करेंट लगा हो, उसको एकदम समझ आ गया कि पिटने वाला बच्चा कोई चोर नहीं बल्कि उसका अपना बीमार बेटा ही था। वह बेटे को पूरी तरह से घेर कर जमीन पर लेट गया अपनी अदम्य सामाजिक सक्रियता का प्रमाण देने को लालायित सारी भीड़ को जैसे काठ मार गया हो। देखते ही देखते अपना अपना चेहरा झुकाये हुए लोगबाग अपनी जगह खिसक लिये। जैसे ही अराजक शोर शराबा थोड़ा थमा, बच्चे की बिलखती हुई आवाज सुनायी दी - "हम चोर नहीं हैं, पानी प्यास लगा था उसी को लेने गए थे।" उसके बाद देर तक वह अपने पिता की गोद में दुबक कर रोता रहा और अबतक सबको ज्ञान और तजुर्बे का रौब झाइ रहे दवा कारोबारी के मुँह में बोल नहीं थे -  अपने आपको कोसने के सिवा उसके हाथ में कुछ नहीं बचा था।वह बार बार अपने माथे पर हाथ मार मार कर अफ़सोस कर रहा था कि सफ़र में भला उसको इतनी गहरी नींद क्यों सोना चाहिए था ,बच्चे को कुछ हो गया होता तो ? दर असल हुआ यह था कि प्यास लगने पर ऊपर की बर्थ से बच्चा नीचे उतरा और पिता के पास रखी पानी की बोतल टटोलने लगा। जब बोतल खाली मिली तो उस मासूम ने सोचा क्यों न जा के बाथरूम के पास लगी टोंटी से ही पानी पी ले... टोंटी में भी पानी नहीं था। लौटते हुए अंधेरे में वह अपनी बर्थ भूल गया और बगल के कूपे को अपना समझ कर सोये हुए अन्य यात्रियों को छू कर पिता को ढूँढने लगा। तभी अनजान उँगलियों की छुअन से सोया हुआ यात्री अचकचा कर उठ गया और चोरी या उठाईगिरी की आशंका से चोर चोर चिल्लाने लगा --- एक का चिल्लाना सुनकर दूसरे तीसरे भी चिल्लाने लगे। उस अफरा तफरी में बच्चे की "हम चोर नहीं हैं "की चोट खायी घबरायी आवाज़ किसी को भला कहाँ सुनायी देती।

नींद उचट गयी थी और मन गहरी उदासी से भरा हुआ था... लेटे लेटे सोचने लगा शम्भु मित्रा की 1956 की फ़िल्म "जागते रहो" में तमाम जलालत के बाद प्यासे राजू ( राज कपूर ) को शहर की बाहर से न दिखाई देने वाली दुनिया ने भी ऐसे ही धकियाया और चोर चोर कह के हॉका था....उसके "मेरा कसूर क्या है ?" जैसे निर्दोष और बुनियादी सवाल का जवाब भी किसी आक्रमणकारी किरदार के पास नहीं था।पर फिल्म में इतनी जद्दोजहद के बाद रात के खत्म होते होते नरगिस जैसी सुंदरी सुरीले गाने के साथ पानी पिलाने को मिल गयी थी लेकिन हमारी यात्रा के दौरान प्यासे बीमार बच्चे को दर्जनों घूसों की मार तो मिल गई पर क्षमायाचना और पानी फिर भी नहीं मिला --- मध्यरात्रि में पानी बेचने वाले भी नहीं थे।

पर सफर सिर्फ इस एक हादसे के साथ संपन्न नहीं हुआ --- ऊपर से सब कुछ सामान्य होने के करीब एक घंटे बाद अचानक उठी तेज आवाज़ ने नींद से फिर जगा दिया। अँधेरे में साफ़ साफ़ दिखाई तो नहीं पड़ रहा था पर इतना जरूर समझ आ गया कि पास में कोई स्त्री रो रही है। बत्ती जलाने पर अपने लो बी पी के इलाज को दिल्ली जाती दुखियारी स्त्री फर्श पर बैठी फूट फूट कर रो रही थी ... बच्चे की रुलाई सुनकर उस से रहा नहीं गया और वह उसको चुप कराने और चोट को सहला कर स्नेह देने के लिए नीचे उतर गयी थी और अब उस से पहले की तरह ऊपर की बर्थ पर चढ़ा नहीं जा रहा था। पति को झगझोड़ कर उसने ऊपर चढ़ा देने की बिनती की पर सहारा तो कहां मिलना था उसकी जगह उलाहना और धक्का ही मिला। नीचे सब के फैल कर सोए रहने के कारण कोई जगह बैठने को भी नहीं थी .... और उस दुखियारी बीमार से अपने आप ऊपर की बर्थ पर चढ़ा भी नहीं जा रहा था।