शनिवार, 3 नवंबर 2018

अभी तूने वह कविता कहां लिखी है जानेमन - अरूणा राय


अभी तूने वह कविता कहां लिखी है जानेमन
मैंने कहां पढी है वह कविता
अभी तो तूने मेरी आंखें लिखीं हैं, होंठ लिखे हैं
कंधे लिखे हैं उठान लिए
और मेरी सुरीली आवाज लिखी है

पर मेरी रूह फना करते
उस अश्‍लील शोर की बाबत कहां लिखा कुछ तूने
जो मेरे सरकारी जिरह-बख्‍तर के बावजूद
मुझे अंधेरे बंद कमरे में
एक झूठी तस्‍सलीबख्‍श नींद में गर्क रखती है

अभी तो बस सुरमयी आंखें लिखीं हैं तूने
उनमें थक्‍कों में जमते दिन ब दिन
जिबह किए जाते मेरे खाबों का रक्‍त
कहां लिखा है तूने

अभी तो बस तारीफ की है
मेरे तुकों की लय पर प्रकट किया है विस्‍मय
पर वह क्षय कहां लिखा है
जो मेरी निगाहों से उठती स्‍वर लहरियों को
बारहा जज्‍ब किए जा रहा है

अभी तो बस कमनीयता लिखी है तूने मेरी
नाजुकी लिखी है लबों की
वह बांकपन कहां लिखा है तूने
जिसने हजारों को पीछे छोड़ा है
और फिर भी जिसके नाखून और सींग
नहीं उगे हैं

अभी तो बस
रंगीन परदों, तकिए के गिलाफ और क्रोसिए की
कढाई का जिक्र किया है तूने
मेरे जीवन की लड़ाई और चढाई का जिक्र
तो बाकी है अभी...

अभी तूने वह कविता लिखनी है जानेमन ...

बुधवार, 24 अक्टूबर 2018

कयामत का इंतिजार

चैट पर एक दिन उसने लिखा कि मुझसे मिलने के लिए आपको करना पड़ेगा - कयामत का इंतिजार।
फिर तो अगली सुबह मैं निकल पड़ा कयामत की खोज में। और राह में जो भी गिरजा, महजिद और शिवाला पड़ा सब में झुक-झुक के अरदास कर डाला कि जल्‍दी कहीं से बुलवा दे कयामत को और करने लगा उसका इंतिजार कि तभी मन की बेचैनी ने जगूड़ी की कुछ कविता पंक्तियां याद दिला दीं, जिसका निहितार्थ था कि इंतजार का एक तरीका यह भी है कि जिसका इंतजार हो उसके आने की दिशा में चलते हुए इंतिजार किया जाए।
सो चल पड़ा बस अड्डे की ओर। वहां पूछ-ताछ काउंटर पर जब पूछा कि कब तक आएगी कयामत की बस। तो पास खड़े एक डिरायवर ने मुझे निहारते हुए कहा-यूपी-बिहार में बस को कोई टेम नहीं होता। जा उधर लोहे की बेंच पर बैठ मूंगफली फोड़। आ ही जाएगी कयामत यूं ज्‍यादा हलतलबी हो तो सामने पुलिस थाने में जाकर पता कर आ-बड़े काम होते हैं कयामत को,तेरी तरा निठल्‍ली तो है नहीं वो, सारे रास्‍ते उसे किधर-किधर किया किया ढाना होता है कुछ पता भी है।
तब सड़क फलांगता मैं बढ चला सामने और सहमता हुआ थाने में घुसा और सामने पड़ने वाले पहले सिपाहीनुमा जीव को संबोधित करते हुए पूछा-कहां हैं दारोगा साहिब। इतना सुनकर सिपाहीजीवा ने मुझे उपर से नीचे तक खंगाला और फिर किसी काम का ना पाकर मूंछ तवाता बोला-अरे मझउंआ के चोन्‍हर हवे का। भेख-भूषा से त पत्‍तरकार बुझाते हो। पर बाणी से त बुझाता है कि सीधे गंगा किनारे से कहीं से चले आ रहे हो। हिन्‍दी त बुझाते होगा उपर पढी लियो का लीखल है। मैंने देखा तो वहां पुलिस चौकी लिखा था। तब उसने हंसते हुए कहा चल जा अगवा दस बांस वोहीं थाना दिख जाएगा और पढ लेना नहीं त सामनवा इस्‍कूल में जाके ना ढूढने लगना दारोगा जी को। फिर बुदबुदाया-कि सब बकलोल इयूपिए में आ गया बुझाता है लगता है बिहार का पत्‍ता साफे कर देगा सभ।
तो बताई दिशा में दुलकता मैं पहुंचा थाने। तो देखा कि पेड़ के नीचे चौपड़ जमी है। और समाजवाद जारी है जोर-शोर से। सिपाही,हवालदार और मुंशी सब एक ही घाट पर बैठे दिखे। झिझकता हुआ मैं आगे बढ़ा और पूछा-दारोगा जी हथिन। तो मंशी नुमा जीव ने चश्‍मा सरियाते हुए कहा- कुछ कामो बताओगे कि बस दारोगा जी ए से ...। दारोगा जी अभी देहाथ गए हैं वसूली में। तब मैंने धीरे से कहा दरअसल मुझे पता करना है कयामत का। अभी तक आयी नहीं। सुबह से दोपहर होने को आई।
एतना सुनना था कि पूरे चौपड़ ने दांत चियार दिया। ल एगो आउर भकलोल के देख, ससुर कयामत ढूंढ रहे हैं। अरे ससुर के नाती हमलोग का तुमको कयामत से कम बुझा रहे हैं। चल फूट इहां से। जेकरा देख ससुरा कयामते के इंतिजार में है। हमारा त सारा बिजनेसे चौपट कर देगा इ बनभाकुर सभ। तभी थाने की खोली से निसपेटर साहब ने गड़बड़ी के अंदेशे से आवाज दी-का है रे चंदनवा। इतना सुनते ही झोलानुमा एक सिपाही ने अटेंशन बजाते हुए कहा- जी हजूर,कोई पतरकार-जासूस बुझाता है,कयामत जी का पता करने आया है। यह सुनकर निसपेटर बोला-भेजो उन्‍हें।
अब मेरी हिम्‍मत बढ़ी तो थोड़ा तनता हुआ भीतर गया। कुर्सी पर बिठाते हुए निसपेटर ने पूछा-किस अखबार से हो आप। आप तो जानते ही हैं - कयामत का क्‍या कहना, कहीं मर-मार रही होगी ससुरी। आप भले आदमी लगते हो घर लौट जा...। अब कयामत कब संझा-पराती गाएगी इसका कोई अंदेशा नहीं हमें। देर किया तो रात हो जाएगी और बस अड्डे पर रात बितानी पड़ेगी तो हमारा भी सिरदर्द ।सुबह तक पता चला कि आपका ही संझा-पराती गवा गया। अब आप ठहरे पतरकार तो आप तो कष्‍ट से मुक्ति पा जाएंगे सदा के लिए पर आपको फूंकने में हमारा थाने का डिह बिक जाएगा। सात सौ रूपइवे मिलता है लाश जलाने का अब आप पत्रकार ठहरे तो आपको तो यमुना या हिंडन में दहाने में भी खतरे हैा कल को कोनो चील कौआ कुत्‍ता खींच लाया लाश को तो फिर हमारी मुसीबते है।
वइसे हमारा कंसेप्‍ट इ है सांपो मर जाए आउर लठियो नहीं टूटे। त जाइए घर। हां अपना मोबाइल नंबरवा छोड़े जाइए। कयामत के आने पर बात करा देंगे।
मन मसोस कर मैं बस अड्डे लौटा तो लगा कि यहां तो कयामत आकर जा चुकी है।हर तरफ मलबा बिखरा पड़ा था।जिसमें भिड़े कुत्ते-कौए संध्‍या-सूर्य नमस्‍कार में लगे थे। तभी मेरी निगाह बस स्‍टैंड के सामने खड़ी बहुमंजिली विशाल इमारत पर गई जिसके पीछे से निस्‍तेज चांद उभर रहा था अपनी मुर्दनी पसारता। मैंने सोचा क्‍या उस बिल्डिंग के लिए कयामत नहीं है।वह इस झोपड़पट्टी नुमा बसस्‍टैंड पर ही क्‍यों आती जाती है। तभी रात का अंदेशा हुआ तो घबरा कर मैंने सामने खुलती बस पकड़ ली।
अभी कुछ दूर निकला ही था थाने से कि फोन बजा- मैं कयामत बोल रही हूं। मैं हकलाया - कि इस तरह फोन पर आने की क्‍या हलतलबी थी। आप मेरे घर भी आ सकती थीं। देखिए निसपेटर साहब ने बताया कि आप भले इंसान लग रहे थे-तेा सोचा कि आपके घर जाकर आपको क्‍येां बेघर करूं- आप सजे रहिए
आप घजे रहिए।
मैं रूंआसा होता बोला - पर कयामत जी , मुझे तेा आपसे इश्‍क हो गया है। इतना सुनना था कि कयामत जी बिगड़ कर फराठी हो गईं। हेा गया है इश्‍क न तो जब मेरा हुश्‍न देखोगे तो फिर चचा मीर की तरह गाते फिरोगो- गोर किस दिलजले की है ये फलक...।

2008 में लिखित

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...कुमार मुकुल और अच्‍युतानंद मिश्र की बातचीत

कविता में आपका आना किस तरह हुआ ?

अध्ययन की जड. स्थितियों से उबिया कर मैं कविता में आ गया। पिता चाहते थे कि डाॅक्टर बनूं, राममोहन राय सेमिनरी में तीन महीने के कोचिंग के लिए मुझे भेजा गया था। वहां रोज ढड्डर का ढड्डर नोट्स लिखवाया जाता था कि आप उसका रट्टा मारें,तो तीन महीना पूरा होते ना होते मैं इस तरह की पढाई से उब गया। पिता ने समझाया कि कोचिंग पूरा कर लो, भले मेडिकल में ना बैठना। पर मन उचट गया सो मैं बोरिया-बिस्तर ले वापस आ गया। उस दौरान मेरे मिजाज में विचित्र बदलाव आ रहे थे। कोचिंग के दौरान मेरे मन में विचित्र कल्पनाएं जगने लगीं कि इस पढाई से अच्छा हो कि पटना में जाकर गुलाबों की खेती करूं। शाम गांधी मैदान में जा बैठता और चांद-तारों को निहारता रहता, दरअसल पिछले दो सालों की पढाई के दौरान मैं ज्यादातर गांव में रहा सो नदी,पेड,चांद,तारों के अलावे मुझे कुछ सूझता नहीं था। सो सहरसा जाकर वाकई सालों मैंने गुलाब के ढेरों पौधे उगाए। इस बीच जो मेरे साथी बने वे तीनों कविताएं करते थे। देखा-देखी मैं भी तुकें जोडने लगा, हालांकि आगे उनमें से कोई कविता के क्षेत्र में टिका ना रहा।

अप्रत्यक्ष रूप से पिता की भी भूमिका मेरे कवि बनने में है और मां की भी। मेरे पिता ने असहमति के बावजूद मेरे दो आरंभिक कविता संकलन छपवाए एक पर उन्होंने टिप्पणी भी लिखी। उनकी मेज पर 'मुक्तिबोध','नामवर सिंह','रामविलास शर्मा' आदि की किताबें पडी रहती थीं,अंग्रेजी के अध्यापक होने के नाते 'शेक्सपीयर' आदि को तो वे रटवाते ही रहते थे। सहरसा कोशी प्रोजेक्ट के सचिव जो पिता के मित्र थे घर के सामने रहते थे। उन्हें हम लोग सेक्रेटरी सहब कहते थे। वे अपने टेप पर 'बच्चन' की मधुशाला सुनाते थे तो आंरभिक कविताएं मैं उन्हें ही लिखकर पढाता था और वे सराहते थकते ना थे। उनमें से कोई कविता कहीं छपी नहीं या उस लायक नहीं थी पर उनकी हौसला अफजाई ने भी बढावा दिया। और मां की लाजवाब करने वाली मुहावरेबाजी के बारे में क्या कहना।

फिर मेरे पहले कविता संकलन पर 1987 में जिस तरह उस समय के दिग्गजों ''प्रभाकर माचवे'',''विष्णु प्रभाकर'',कवि ''रामविलास शर्मा'' आदि ने पत्र लिखकर उत्साहित किया उसने भी मेरा मिजाज बना दिया। माचवे जी ने तो प्रूफ की गलतियां ,पुस्तक पर अपनी राय और प्रकाशनार्थ सम्मति आदि अलग अलग लिखे थे। पर उस समय समीक्षा आदि का महात्तम मुझे पता नहीं था सो माचवे की वह सम्मति कहीं छपी नहीं। हां, ''मुकेश प्रत्यूष'' ने उस समय हिन्दुस्तान में एक समीक्षा लिख दी थी। मैं उसी से गदगद था।

बतौर कवि कविता के वर्तमान परिदृश्य को आप किस तरह देखते हैं ?

एक तरह की धुंध है,हालांकि बडे पैमाने पर नये कवि लिख रहे हैं पर उस परिवर्तनकामी चेतना का अभाव दिखता है जो कविता के मानी होते हैं। पर हमारे मुल्क में और इस महाद्वीप में अभी भी जिस तरह अशिक्षा और जहालत का बोलबाला है, जैसे-जैसे लोग शिक्षित होते जाएंगे कविता का घेरा बढेगा। बाकी जमात को छोड कर खुद कवि हो जाने,होते चले जाने के कोई मानी नहीं हैं।

हिन्दी कविता में दिल्ली के कवियों की केंद्रियता के क्या खतरे हैं ?

वही जो दिल्ली केन्द्रित सत्ता के हैं , पर कोई कवि दिल्ली का नहीं होता जैसे राजनीतिज्ञ दिल्ली के नहीं होते। एक केन्द्रियता तो रहेगी ही उसे बार बार विकेन्द्रित करने की जरूरत होगी।

आठवें दशक के बाद जो पीढी आयी उसने कविता के कथ्य और शिल्प को किन अर्थों में बदला ?

मैं इस तरह दशकों में कविता को बांट कर नहीं देखता। यह बंटवारा इसलिए होता है कि उस छोटे से घेरे में आप महारथी दिखें। काहे का महारथी जब आपकी आधी से ज्यादा आबादी जहालत के घेरे में है, पहले उन्हें शिक्षित कर लें फिर उनके कवि होने का दावा और बंटवारा करें।

नहीं, मैं जानना चाहता था कि नवें दशक के कवि 'कुमार अंबुज','एकांत श्रीवास्तव','मदन कश्यप','विमल कुमार' आदि ने आठवें दशक के बरक्स कविता में कौन से नये बदलाव लाए ? ये आपसे ठीक पहले के कवि हैं।

इनमें मदन कश्यप के अलावे बाकी ने खुद को अपने समय की राजनीति से बचाव की मुद्रा में रखा। प्रकृति का वर्णन या अंतरमन के प्रसंगों को कविता में लाना जरूरी है पर यह हमें अपने समय की उठापटक से दूर करने का वायस बने यह जरूरी नहीं। विमल कुमार ने अपने पहले संग्रह के बाद राजनीति से अपना जुडाव दिखाने की कोशिश की पर वह जमीनी नहीं बन पाया।(अब 2018 में विमल जी अपने समय के मुकाबिल तनकर खडे दिखते हैं)

आज कुछ बडे प्रकाशक थोक भाव से कवियों को छाप रहे हैं कथाकारों और उपन्यासकारों को छाप रहे हैं, जैसे वे उनके दिशा-निर्देशक हों। इस तरह पीढियां बनाने के प्रकाशन की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं ?

देखिए , खुशफहमियां पालने का हक सबको है, जब नये रचनाकार ही खुशफहमियों से बाहर आने को तैयार ना हों तो प्रकाशक को क्या पडी है , वह उन्हें निर्देशित करेगा ही। वह उसके व्यापर का हिस्सा है। बाकी पीढी-पीढा प्रकाशक क्या उभारेंगे, वे अपनी गांठ सीधी करें इससे ज्यादा की उन्हें फुरसत कहां है...

''उर्वर प्रदेश'' पर जिस तरह से विवाद उठा है,उससे वर्तमान कविता और कवियों के बीच के अंतरविरोधों पर किस तरह रोशनी पडती है ?

यह एक राजनीतिक विवाद है। इसका रचनात्मकता से कोई लेना देना नहीं। पुरस्कार कोई भविष्य की गांरटी कैसे दे सकते हैं। हर राजनीतिक तमाशा एक सीमा के बाद चूकता है। उर्वर प्रदेश भी चूका अब जाकर। इस प्रदेश से बाहर हमेशा ज्यादा उर्वर कवि रहे।

आपने कविता के अतिरिक्त गद्य भी लिखा है...एक कवि के लिए गद्य लेखन को आप कितना महत्वपूर्ण मानते हैं ?

गद्य कविता में फार्मेट का अंतर है , बातें तो वही होती हैं। शमशेर ने कहा है ना कि 'बात बोलेगी' , तो कविता हो या गद्य ,बातों को बोलना चाहिए, ऐसा ना हो कि उनकी वकालत की जरूरत पडे। हां,गद्य लिखने से कवि अपनी सत्ता को जान पाता है कि वह कितनी ठोस है।

फिलहाल आप किसे बड़ी संभावना के रूप में देखते हैं,कविता या आलोचना को ?

संभावना या बात जहां होगी वह बडी हो जाएगी। अपने आप में कविता या आलोचना से क्या संभावना ...!

पहले के किन कवियों ने आपके काव्य व्यक्तित्व और लेखन पर प्रभाव डाला है ?

अलग-अलग समय में अलग लोगों ने प्रभावित किया। जैसे 1987 में जब मेरा पहला कविता संकलन पिता ने छपवाया था तब मैं ''केदारनाथ सिंह'' के प्रभाव में था। उनके असर में उस संकलन में एक कविता भी लिखी थी मैंने जो संकलन का शीर्षक भी था,''समुद्र के आंसू''। आरंभ में 'तुलसी' और 'दिनकर','बच्चन' का प्रभाव था। विकास के साथ प्रभावित करने वाले कवि बदलते गये। केदारजी की कविता आज वह प्रभाव नहीं छोडती। ना दिनकर,बच्चन ही। लंबे समय से मुक्तिबोध,शमशेर,नागार्जुन,त्रिलोचन का प्रभाव है। मुक्तिबोध,शमशेर का गद्य और कविता एक ही तरह से प्रभावित करते हैं और एक हद तक रघुवीर सहाय भी। टैगोर की कविताएं बहुत प्रभावित करती हैं वैसे रिल्के के पत्रों का सर्वाधिक प्रभाव खुद पर अनुभव किया।

प्रभाव से परे मेरे ''प्रिय कवि'' अलग हैं, आलोक धन्वा,विष्णु नागर,विष्णु खरे,ऋतुराज,लीलाधर मंडलोई,मंगलेश डबराल,विजय कुमार,असद जैदी,मदन कश्यप,अनामिका,सविता सिंह,निर्मला पुतुल,वंदना देवेंद्र। बांग्ला कवि नवारूण भटटाचार्य बहुत प्रिय हैं मुझे। अपने प्रिय कवियों की कविताएं मैं लोगों केा बारहा सुनाता हूं।

लंबी कविताओं के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे ?

कविताओं को छोटी और लंबी में बांटना नहीं चाहता मैं। दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण होती हैं। बस संगठन का फर्क है। वरना लंबी कविता भी आप एक सांस में पढ जाएं और छोटी भी आपको उबा दे। कुछ लंबी कविताओं ने मुझ पर गहरा प्रभाव छोडा, जैसे आलोक धन्‍वा की ब्रूनो की बेटियां,सफेद रात,लीलाधर जगूडी की मंदिर लेन,लीलाधर मंडलोई की अमर कोली और कुमारेन्‍द्र पारसनाथ सिंह की लंबी कविताएं।

नयों में किनसे उम्मीद बंधती है ?

बहुत लोग बहुत तरह से लिख रहे हैं,उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...

 Thursday, July 8, 2010, को एक ब्‍लॉग पर पोस्‍टेड