कविता में आपका आना किस तरह हुआ ?
अध्ययन
की जड. स्थितियों से उबिया कर मैं कविता में आ गया। पिता चाहते थे कि
डाॅक्टर बनूं, राममोहन राय सेमिनरी में तीन महीने के कोचिंग के लिए मुझे
भेजा गया था। वहां रोज ढड्डर का ढड्डर नोट्स लिखवाया जाता था कि आप उसका
रट्टा मारें,तो तीन महीना पूरा होते ना होते मैं इस तरह की पढाई से उब गया।
पिता ने समझाया कि कोचिंग पूरा कर लो, भले मेडिकल में ना बैठना। पर मन उचट
गया सो मैं बोरिया-बिस्तर ले वापस आ गया। उस दौरान मेरे मिजाज में विचित्र
बदलाव आ रहे थे। कोचिंग के दौरान मेरे मन में विचित्र कल्पनाएं जगने लगीं
कि इस पढाई से अच्छा हो कि पटना में जाकर गुलाबों की खेती करूं। शाम गांधी
मैदान में जा बैठता और चांद-तारों को निहारता रहता, दरअसल पिछले दो सालों
की पढाई के दौरान मैं ज्यादातर गांव में रहा सो नदी,पेड,चांद,तारों के
अलावे मुझे कुछ सूझता नहीं था। सो सहरसा जाकर वाकई सालों मैंने गुलाब के
ढेरों पौधे उगाए। इस बीच जो मेरे साथी बने वे तीनों कविताएं करते थे।
देखा-देखी मैं भी तुकें जोडने लगा, हालांकि आगे उनमें से कोई कविता के
क्षेत्र में टिका ना रहा।
अप्रत्यक्ष रूप से पिता की भी भूमिका मेरे
कवि बनने में है और मां की भी। मेरे पिता ने असहमति के बावजूद मेरे दो
आरंभिक कविता संकलन छपवाए एक पर उन्होंने टिप्पणी भी लिखी। उनकी मेज पर
'मुक्तिबोध','नामवर सिंह','रामविलास शर्मा' आदि की किताबें पडी रहती
थीं,अंग्रेजी के अध्यापक होने के नाते 'शेक्सपीयर' आदि को तो वे रटवाते ही
रहते थे। सहरसा कोशी प्रोजेक्ट के सचिव जो पिता के मित्र थे घर के सामने
रहते थे। उन्हें हम लोग सेक्रेटरी सहब कहते थे। वे अपने टेप पर 'बच्चन' की
मधुशाला सुनाते थे तो आंरभिक कविताएं मैं उन्हें ही लिखकर पढाता था और वे
सराहते थकते ना थे। उनमें से कोई कविता कहीं छपी नहीं या उस लायक नहीं थी
पर उनकी हौसला अफजाई ने भी बढावा दिया। और मां की लाजवाब करने वाली
मुहावरेबाजी के बारे में क्या कहना।
फिर मेरे पहले कविता संकलन पर
1987 में जिस तरह उस समय के दिग्गजों ''प्रभाकर माचवे'',''विष्णु
प्रभाकर'',कवि ''रामविलास शर्मा'' आदि ने पत्र लिखकर उत्साहित किया उसने भी
मेरा मिजाज बना दिया। माचवे जी ने तो प्रूफ की गलतियां ,पुस्तक पर अपनी
राय और प्रकाशनार्थ सम्मति आदि अलग अलग लिखे थे। पर उस समय समीक्षा आदि का
महात्तम मुझे पता नहीं था सो माचवे की वह सम्मति कहीं छपी नहीं। हां,
''मुकेश प्रत्यूष'' ने उस समय हिन्दुस्तान में एक समीक्षा लिख दी थी। मैं
उसी से गदगद था।
बतौर कवि कविता के वर्तमान परिदृश्य को आप किस तरह देखते हैं ?
एक
तरह की धुंध है,हालांकि बडे पैमाने पर नये कवि लिख रहे हैं पर उस
परिवर्तनकामी चेतना का अभाव दिखता है जो कविता के मानी होते हैं। पर हमारे
मुल्क में और इस महाद्वीप में अभी भी जिस तरह अशिक्षा और जहालत का बोलबाला
है, जैसे-जैसे लोग शिक्षित होते जाएंगे कविता का घेरा बढेगा। बाकी जमात को
छोड कर खुद कवि हो जाने,होते चले जाने के कोई मानी नहीं हैं।
हिन्दी कविता में दिल्ली के कवियों की केंद्रियता के क्या खतरे हैं ?
वही
जो दिल्ली केन्द्रित सत्ता के हैं , पर कोई कवि दिल्ली का नहीं होता जैसे
राजनीतिज्ञ दिल्ली के नहीं होते। एक केन्द्रियता तो रहेगी ही उसे बार बार
विकेन्द्रित करने की जरूरत होगी।
आठवें दशक के बाद जो पीढी आयी उसने कविता के कथ्य और शिल्प को किन अर्थों में बदला ?
मैं
इस तरह दशकों में कविता को बांट कर नहीं देखता। यह बंटवारा इसलिए होता है
कि उस छोटे से घेरे में आप महारथी दिखें। काहे का महारथी जब आपकी आधी से
ज्यादा आबादी जहालत के घेरे में है, पहले उन्हें शिक्षित कर लें फिर उनके
कवि होने का दावा और बंटवारा करें।
नहीं,
मैं जानना चाहता था कि नवें दशक के कवि 'कुमार अंबुज','एकांत
श्रीवास्तव','मदन कश्यप','विमल कुमार' आदि ने आठवें दशक के बरक्स कविता में
कौन से नये बदलाव लाए ? ये आपसे ठीक पहले के कवि हैं।
इनमें मदन
कश्यप के अलावे बाकी ने खुद को अपने समय की राजनीति से बचाव की मुद्रा में
रखा। प्रकृति का वर्णन या अंतरमन के प्रसंगों को कविता में लाना जरूरी है
पर यह हमें अपने समय की उठापटक से दूर करने का वायस बने यह जरूरी नहीं।
विमल कुमार ने अपने पहले संग्रह के बाद राजनीति से अपना जुडाव दिखाने की
कोशिश की पर वह जमीनी नहीं बन पाया।(अब 2018 में विमल जी अपने समय के
मुकाबिल तनकर खडे दिखते हैं)
आज
कुछ बडे प्रकाशक थोक भाव से कवियों को छाप रहे हैं कथाकारों और
उपन्यासकारों को छाप रहे हैं, जैसे वे उनके दिशा-निर्देशक हों। इस तरह
पीढियां बनाने के प्रकाशन की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं ?
देखिए
, खुशफहमियां पालने का हक सबको है, जब नये रचनाकार ही खुशफहमियों से बाहर
आने को तैयार ना हों तो प्रकाशक को क्या पडी है , वह उन्हें निर्देशित
करेगा ही। वह उसके व्यापर का हिस्सा है। बाकी पीढी-पीढा प्रकाशक क्या
उभारेंगे, वे अपनी गांठ सीधी करें इससे ज्यादा की उन्हें फुरसत कहां है...
''उर्वर प्रदेश'' पर जिस तरह से विवाद उठा है,उससे वर्तमान कविता और कवियों के बीच के अंतरविरोधों पर किस तरह रोशनी पडती है ?
यह
एक राजनीतिक विवाद है। इसका रचनात्मकता से कोई लेना देना नहीं। पुरस्कार
कोई भविष्य की गांरटी कैसे दे सकते हैं। हर राजनीतिक तमाशा एक सीमा के बाद
चूकता है। उर्वर प्रदेश भी चूका अब जाकर। इस प्रदेश से बाहर हमेशा ज्यादा
उर्वर कवि रहे।
आपने कविता के अतिरिक्त गद्य भी लिखा है...एक कवि के लिए गद्य लेखन को आप कितना महत्वपूर्ण मानते हैं ?
गद्य
कविता में फार्मेट का अंतर है , बातें तो वही होती हैं। शमशेर ने कहा है
ना कि 'बात बोलेगी' , तो कविता हो या गद्य ,बातों को बोलना चाहिए, ऐसा ना
हो कि उनकी वकालत की जरूरत पडे। हां,गद्य लिखने से कवि अपनी सत्ता को जान
पाता है कि वह कितनी ठोस है।
फिलहाल आप किसे बड़ी संभावना के रूप में देखते हैं,कविता या आलोचना को ?
संभावना या बात जहां होगी वह बडी हो जाएगी। अपने आप में कविता या आलोचना से क्या संभावना ...!
पहले के किन कवियों ने आपके काव्य व्यक्तित्व और लेखन पर प्रभाव डाला है ?
अलग-अलग
समय में अलग लोगों ने प्रभावित किया। जैसे 1987 में जब मेरा पहला कविता
संकलन पिता ने छपवाया था तब मैं ''केदारनाथ सिंह'' के प्रभाव में था। उनके
असर में उस संकलन में एक कविता भी लिखी थी मैंने जो संकलन का शीर्षक भी
था,''समुद्र के आंसू''। आरंभ में 'तुलसी' और 'दिनकर','बच्चन' का प्रभाव था।
विकास के साथ प्रभावित करने वाले कवि बदलते गये। केदारजी की कविता आज वह
प्रभाव नहीं छोडती। ना दिनकर,बच्चन ही। लंबे समय से
मुक्तिबोध,शमशेर,नागार्जुन,त्रिलोचन का प्रभाव है। मुक्तिबोध,शमशेर का गद्य
और कविता एक ही तरह से प्रभावित करते हैं और एक हद तक रघुवीर सहाय भी।
टैगोर की कविताएं बहुत प्रभावित करती हैं वैसे रिल्के के पत्रों का
सर्वाधिक प्रभाव खुद पर अनुभव किया।
प्रभाव से परे मेरे ''प्रिय
कवि'' अलग हैं, आलोक धन्वा,विष्णु नागर,विष्णु खरे,ऋतुराज,लीलाधर
मंडलोई,मंगलेश डबराल,विजय कुमार,असद जैदी,मदन कश्यप,अनामिका,सविता
सिंह,निर्मला पुतुल,वंदना देवेंद्र। बांग्ला कवि नवारूण भटटाचार्य बहुत
प्रिय हैं मुझे। अपने प्रिय कवियों की कविताएं मैं लोगों केा बारहा सुनाता
हूं।
लंबी कविताओं के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे ?
कविताओं
को छोटी और लंबी में बांटना नहीं चाहता मैं। दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण
होती हैं। बस संगठन का फर्क है। वरना लंबी कविता भी आप एक सांस में पढ
जाएं और छोटी भी आपको उबा दे। कुछ लंबी कविताओं ने मुझ पर गहरा प्रभाव
छोडा, जैसे आलोक धन्वा की ब्रूनो की बेटियां,सफेद रात,लीलाधर जगूडी की
मंदिर लेन,लीलाधर मंडलोई की अमर कोली और कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की लंबी
कविताएं।
नयों में किनसे उम्मीद बंधती है ?
बहुत लोग बहुत तरह से लिख रहे हैं,उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...
Thursday, July 8, 2010, को एक ब्लॉग पर पोस्टेड