बुधवार, 12 दिसंबर 2018

अपने दुख से सौंदर्य की रचना करो : वॉन गॉग - कुमार मुकुल

चित्रकार बनने की आकांक्षा वॉन गॉग में शुरू से थी। गरीबी और अपमान में मृत्यु को प्राप्त होनेवाले महान चित्राकार रैम्ब्रां बहुत पसंद थे विन्सेन्ट को और उसका अंत भी रैम्ब्रां की तरह हुआ और दुनिया के कुछ महान लोगों की तरह उसकी पहचान भी मृत्यु के बाद हुई। जीते जी तो कला के प्रति उसकी दीवानगी अभाव और उपेक्षा की आंच में झुलसती रही पर मरने के बाद प्रसिद्धि ने कभी उसका दामन नहीं छोड़ा। उसके चित्रा दुनिया के सबसे महंगे चित्राों की सूची में हमेशा जगह बनाये रहे। आज वॉन गॉग के सेल्फ पोर्टे्रट की कीमत तीन अरब है। और दुनिया के सबसे महंगे दस चित्राों में उसके चार चित्रा शामिल हैं। उनके शिक्षक मेन्डेस ने उससे कहा था-÷...तुम्हें कई बार लगेगा कि तुम हार रहे हो लेकिन आखिरकार तुम खुद को अभिव्यक्त करोगे और वह अभिव्यक्ति तुम्हारे जीवन को मायने देगी।'
और विन्सेन्ट की रचनाओं ने, चित्राें ने उसके जीवन को जो मायने दिये उनके अर्थ उसकी मौत के बाद खुले तो खुलते चले गए और आज उसके रंग दशों दिशाओं में फैलते चले जा रहे हैं।इक्कीस साल की उम्र में विन्सेन्ट को उन्नीस साल की एक गरीब, पतली-दुबली लड़की उर्सुला से प्यार हो गया था। त्राासदी यह कि उर्सुला की मंगनी हो चुकी थी और जब विन्सेन्ट ने प्यार का वास्ता दे उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो रोते हुए उर्सुला ने कहा-÷क्या मुझे हर उस आदमी से शादी करनी होगी जिसे मुझसे प्यार हो जाए?' आखिर वह नहीं मिली उसे और इस विडंबना ने अंत तक उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसके जीवने में जो भी स्त्राी उसके निकट आई और जिसे भी उसने अपने अंतर्तम से प्यार किया उसे खो दिया विन्सेन्ट ने। इस दौरान राग-विराग के दौर में कभी तो उसने पादरी बनने की कोशिश की, कभी शिक्षक और कभी खदान मजदूर का जीवन जीते उसने खुद को भूखा रखकर मौत की कगार तक पहुंचा दिया। पादरी बनने की कोशिश के दौरान वे उपदेश देते-÷...कोई भी दुख बिना उम्मीद के नहीं आता...'। वह प्रार्थना करता-÷...कि हमें न निर्धनता दे न धन, हमें उतनी रोटी दे जितना हमारा अधिकार बनता है।' अंत तक यह उपदेश जैसे उसके साथ खुद को प्रमाणित करता रहा।बोरीनाज के खदान मजदूरों को उपदेश के दौरान जब उसे लगा कि उसके गोरे चिट्ठे रंग के चलते मजदूर दूरी महसूस करते हैं तो उसने अपने चेहरे पर कोयले की धूल मलनी आरंभ कर दी ताकि उन जैसा दिख सके। अंत में यह नाटक भी खत्म किया उसने और मजदूरों सा जीवन जीना आरंभ किया और भूखे रहने की आदत डाल ली और खुद को बीमार करता मौत की कगार पर पहुंचा दिया। मार्क्स ने जिस डिक्लास थ्योरी की बात की है उसे उसने आजीवन खुद पर लागू किया। इसी जिद में उसने खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कर लिया।पहले प्रेम में असफलता से पैदा विराग ने उसे कैथोलिक पादरी या धर्मोपदेशक बनने की राह पर डाल दिया था। पर मजदूरों को उपदेश देते और उनके जैसी जिन्दगी जीते उसे भान हुआ कि उनका कष्ट अपार है। उसने खान के मैनेजर से प्रार्थना की कि आप कम से कम कुछ ऐसा तो कर ही सकते हैं जिससे खान में दुर्घटनाएं कम हों और मजदूरों की मौतों में कमी आए। पर मैनेजर के जवाब, कि हमारे पास निवेश के लिए एकदम पूंजी नहीं है, ने विन्सेन्ट को भीतर से निराश कर दिया और उसने सोचा कि एक दृढ़निश्चयी कैथोलिक से वह नास्तिक बनता जा रहा है। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि ÷इतनी दयनीय निर्धनता में शताब्दी दर शताब्दी रह रहे लोगों के लिए ईश्वर ऐसी दुनिया की रचना कैसे कर सकता है, जिसमें जरा भी दया न हो।'
आखिर जब चर्च के लोग उस प्रदेश में धर्म की प्रगति जानने पहुंचे तो पाया कि वॉन गॉग उनके पवित्रा, उज्ज्वल धर्म को गरीबी और निर्धनता में लथेड़ चुका है। दो सौ मजदूरों के बीच बैठा वह खान में दबकर मर गए सत्तावन मजदूरों के लिए प्रार्थना करने को था कि जांच के लिए पहुंचे चर्च के लोगों के लिए वहां की गंदगी को बर्दाश्त करना कठिन हो गया। वॉन गॉग को झिड़कते हुए उन्होंने कहा-लगता है हम अफ्रीका के जंगल में हैं...किसने सोचा था कि यह आदमी इतना पागल निकलेगा...मैं तो इसे शुरू से ही पागल समझता था...।' अंत में उन्होंने उसे कहा कि तुम हमारे चर्च का अपमान करना चाहते हो, कि अब तुम अपनी नियुक्ति निरस्त समझ सकते हो।दब कर मर गए मजदूरों के लिए हड़ताल करते मजदूरों को आखिर समझाकर काम पर भेजने के बाद वॉन गॉग ने पाया कि बाइबिल अब उनके किसी काम की नहीं थी, कि ईश्वर ने उनकी तरफ पत्थर के कान कर रखे हैं।
इन सब चीजों ने उसे फिर एक बार गहरी हताशा की ओर ढकेल दिया। उसने पाया कि ईश्वर कहीं नहीं था...एक हताश, क्रूर, अंधी अस्त-व्यस्तता थी...इस पागलपन से निकलने के लिए वह फिर अपने पुराने पागलपन की ओर मुड़ा और चित्राकारी शुरू कर दी और बोरीनाज के खदान मजदूरों के चित्रा बनाने लगा। कुछ चित्रा बना लेने के बाद विन्सेन्ट को लगा कि उसे अपने चित्राों के बारे में किसी की राय लेनी चाहिए, और उसे वहां से अस्सी किलोमीटर दूर ब्रुसेल्स में रह रहे चित्राकार रैवरैण्ड पीटरसन की याद आई और उसने उनसे मिलने का इरादा किया। उसके पास टिकट के पैसे नहीं थे और वह पैदल ही निकल पड़ा। उसके पास मात्रा तीन फ्रैंक थे। करीब छत्तीस घंटे की यात्राा के बाद उसके जूते के तल्लों ने जवाब दे दिया और उसके जूते को फाड़ अंगूठे बाहर झांकने लगे। पांवों में छाले पड़ चुके थे। इस हालत में एक रात का विश्राम लेकर भूखा-प्यासा वह फिर निकल पड़ा और बु्रसेल्स पहुंचा। मानव इतिहास में किसी रचनाकार की जिजीविषा का ऐसा उदाहरण और कहां मिलेगा? खाक और धूल में लिथड़ी विन्सेन्ट की सूरत देख रैवरैण्ड की बेटी चीखती भाग खड़ी हुई। आखिर जब रैवरैण्ड ने उसे पहचाना तो बोले-तुम्हें देखना कितना सुखद है, सीधे भीतर चले आओ। विन्सेन्ट कितना खुश हुआ होगा, यह हम सोच सकते हैं। आखिर ईसा के उस कथन के, जो विन्सेन्ट को प्रिय था, कि कोई भी दुख बिना उम्मीद के नहीं आता, निहितार्थों को यहां समझा जा सकता है।
रैवरैण्ड के साथ कुछ दिन बिताने के बाद जब विन्सेन्ट वास्मेस गांव लौटने लगा तो रैवरैण्ड ने उसे अपना पुराना जूता और लौटने के टिकट के पैसे दिये।रैवरैण्ड से मिली सलाह और उत्साहवर्धन के बाद उसने कुछ और चित्रा बनाये। फिर सोचा कि इसे उस समय के चर्चित चित्राकार जूल्स ब्रेतों को दिखाए। पर ब्रेतों वहां से एक सौ सत्तर किलोमीटर दूर रहता था और हमेशा की तरह उसके पास पैसे नहीं थे। थोड़ी दूर वह ट्रेन से गया और फिर पांच दिन-रात पैदल चलकर जब कूरियेरेस में ब्रेतों के स्टूडियो तक पहुंचा तो उसकी भव्यता देख उसकी हिम्मत नहीं पड़ी भीतर जाने की और वह वापिस चल पड़ा-भूखा, प्यासा, पैदल। भूख लगने पर वह अपने चित्राों को देकर बदले में पावरोटी मांग कर खाता, सप्ताहों की पैदल दिन-रात की यात्राा के बाद घर पहुंचा। इस यात्राा में वह अपना कई पौंड वजन कम कर चुका था और बुखार की चपेट में आ चुका था। इसी अर्धमृतावस्था में उसका भाई थियो वहां आ पहुंचा और उसने अपने प्यारे भाई को संभाला। थियो ने हमेशा विन्सेन्ट को उसके पागलपन के साथ प्यार किया और न्यूनतम जीवनयापन की उसकी व्यवस्था में उसका अहम योगदान रहा। पहले प्यार की त्राासदी, बाईबिल के अध्ययन और कठोर जीवन शैली के चुनाव ने हमेशा विन्सेन्ट के भीतर एक चिंतक को जाग्रत और विकसित किया। पर भाई की संगत और प्यार में वह भावुक हो जाता था। एक जगह वह थियो से कहता है-÷क्या हमारे अंदर के ख्याल बाहर से दिखाई पड़ सकते हैं? हमारी आत्मा में एक आग जल रही हो सकती है जिसे बगल में बैठकर तापने कोई नहीं आता। आने-जानेवालों को सिर्फ चिमनी से निकलता धुंआ दिखाई पड़ता है...।'विन्सेन्ट को ÷लैंडस्केप से प्रेम था पर उससे भी ज्यादा उसे जीवन से भरपूर उन चीजों से प्रेम था, जिनमें उत्कट यथार्थवाद होता था...।' वह जानता था कि अभ्यास को किताबों के साथ नहीं खरीदा जा सकता और उसका कोई विकल्प नहीं होता इसलिए जीवन भर वह श्रम करता अपनी कला को लगातार धार देता रहा।
उसके चचेरे भाई मॉव का कथन था कि आदमी चित्राों पर या तो बातें कर सकता है या चित्रा ही बना सकता है। ...कि ÷कलाकार को स्वार्थी होना चाहिए। उसे काम करने के हर क्षण की रक्षा करनी चाहिए।' विन्सेन्ट श्रम तो करता रहा पर स्वार्थी नहीं हो सका। उसकी माली हालत को देखकर मां सलाह देतीं कि वह धनी महिलाओं के चित्र क्यों नहीं बनाता तो उसका जवाब होता-÷प्यारी मां, उन सबका जीवन इतना सुविधापूर्ण होता है कि उनके चेहरों पर समय ने कोई भी रोचक चीज नहीं बनाई होती।' मां पूछती कि गरीबों के चित्रा बनाकर क्या फायदा, वे तो उसे खरीदेंगे नहीं। मां की नीली, गहरी साफ आंखों में शांतिपूर्वक देखता विन्सेन्ट बोलता-÷अंततः मैं अपने चित्रा बेच सकूंगा...'। एक पुरानी कहावत हमेशा विन्सेन्ट को याद रही-÷अपने दुख से सौंदर्य की रचना करो।' और दुख से रचे उसके चित्राों की कीमत अंततः मरने के बाद ही जानी जा सकी।अठ्ठाइस साल की उम्र में विन्सेन्ट को फिर प्रेम हुआ के से जो जॉन की मां थी। पर उसके मृत पति वॉस से उसे नफरत थी जिसे के भुला नहीं पा रही थी। उस दौरान मिशेले को पढ़ते हुए एक पंक्ति उसे जंच गई-÷यह जरूरी है कि एक स्त्राी आप के ऊपर बयार की तरह बह सके ताकि आप पुरुष बन सकें।' उसे लगा कि उर्सुला से मिली यातना को के ही दूर कर सकेगी पर के वॉस को भुला न सकी और दूसरा प्रेम भी विन्सेन्ट के लिए एक त्राासदी ही साबित हुआ। इससे पार पाने के लिए वह फिर द हेग में अपने कजिन मॉव के पास चला गया। फिर वही भूख और चित्राकारी की दीवानगी का दौर। ऐसे में उसे मिली क्रिस्टीन जो लॉन्ड्री में कपडे+ धोती थी और उससे पेट नहीं भरता तो पेशा करती थी। विन्सेन्ट को उसका साथ भा गया और उसके साथ वह रहने लगा। क्रिस्टीन ने विन्सेन्ट के जीवन में प्रेम की कमी को अंशतः पूरा किया। वह उससे मॉडल के रूप में भी काम लेता था। इसके अलावा मजदूरों और बूढ़ी स्त्रिायों को वह थोड़े पैसे के लिए मॉडल बनने का आग्रह कर अपने झोपड़ीनुमा स्टूडियो में ले आता था।वह सोचता, काश, वह अपने काम से अपनी रोटी भर कमा सके। उसे और कुछ नहीं चाहिए था। और वह कभी ठीक से अपनी रोटी भी नहीं कमा सका और आज उसकी कृतियां अरबों-खरबों कीमत की हैं-क्या यह उसी भूख की कीमत है ! भूख से कीमती कुछ भी नहीं शायद। विन्सेन्ट जानता था भूख अर्जित करने की कला। और, आज पूरी दुनिया का पेट भर दिया उसने। और यह दुनिया कभी उसका पेट नहीं भर पाएगी। उसका कर्जदार रहेगी यह दुनिया, जब तक रहेगी।ऐसा नहीं था कि विन्सेन्ट यूं ही ऐसा था। उसके आस-पास की दुनिया और उसके सलाहकार भी ऐसे ही थे। उस समय के राष्ट्रीय ख्याति के चित्राकार वाइसेंनब्रूख विन्सेन्ट को समझाते हुए कहते-÷...साठ साल के हर कलाकार को भूख से मरना चाहिए। तब शायद वह कैनवस पर कुछ अच्छे चित्रा बना सकेगा।...हुंह! तुम चालीस से ऊपर नहीं हो और बढ़िया काम कर रहे हो।' ॥अगर भूख और दर्द किसी आदमी को मार सकते हैं तो वह जीने के काबिल नहीं। इस धरती के कलाकार वही लोग होते हैं, जिन्हें ईश्वर या शैतान तब तक नहीं मार सकता जब तक वे उन सारी बातों को नहीं कह देते, जिन्हें वे कहना चाहते हैं।'
पर अभाव ने घर में कलह को जन्म देना शुरू कर दिया था। क्रिस्टीन और विन्सेन्ट झगड़ने लगे थे। एक दूसरे को समझते हुए वे एक साथ नहीं बारी-बारी गुस्सा होते। और अपनी भड़ास निकालते।कभी-कभी विन्सेन्ट को निराशा होती कि उसके समकालीन डी बॉक के चित्राों पर लोग पैसा लुटाते हैं और उसे काली डबलरोटी और कॉफी तक नसीब नहीं होती पर फिर वह अपने को संतोष देता-मैें सच्चाई और मेहनत की जिंदगी जीता हूं और यह ऐसी सड़क नहीं जहां किसी की मौत हो जाए। साफ है कि वह भविष्य की बाबत कह रहा था और वह सच्चाई थी, और विन्सेन्ट के बाद विन्सेन्ट की तरह भला कौन जिन्दा रहेगा ! उसके बनाये सूर्यमुखी सूर्य की तरह आज पूरी दुनिया में खिल रहे हैं उद्भासित होते अपने अनंत रंगदृश्यों के साथ।क्रिस्टीन के साथ रहने के चलते विन्सेन्ट को द हेग के सारे कलाकारों ने नीचा दिखाना शुरू किया। उसके चित्राकार भाई मॉव ने एक दिन कहा कि तुम दुष्ट चरित्रा के आदमी हो, तो विन्सेन्ट ने खुद को कलाकार बताया। मॉव ने मजाक उड़ाते हुए कहा-आज तक तुम्हारा एक चित्रा नहीं बिका और तुम कलाकार हो। विन्सेन्ट ने भोलेपन से पूछा-क्या कलाकार का मतलब बेचना होता है? मैं समझता था कि बिना कुछ पाए खोज में लगे रहना कलाकार का काम है। इसी तरह एक दिन डी वॉक ने कहा-हर कोई जान गया है कि तुमने एक रखैल रख छोड़ी है। क्या तुम्हें कोई और मॉडल नहीं मिली। विन्सेन्ट ने आपत्ति की कि यह मेरी पत्नी है। यह विवाद बढ़ता गया और उसकी रोटी पर भी आफत आने लगी। जिस माहौल से वह आई थी उसमें शराब और सिगरेट की आदतें बुरी तरह उसे जकड़े थीं। वह बीमार रहने लगी थी। उसके इलाज की व्यवस्था करता विन्सेन्ट सोचता-÷बेचारी ने अच्छाई कभी देखी ही नहीं...वह खुद अच्छी कैसे हो सकती है?' आखिर इस हद तक मानवीय होने पर दुनियावी समाज किसी को पागल ही तो समझता है, और एक दिन थक-हारकर व्यक्ति समाज के पागलपन को स्वीकृति देता हुआ अपने तथाकथित पागलपन को बचाए रखता है। आखिर वही तो उसकी पूंजी होती है। भविष्य में उसे पागल कहता समाज ही तो उसकी अरबों कीमत लगाता है, इस बात को विन्सेन्ट जैसा हर कलाकार जानता होता है।
क्रिस्टीन से शादी को लेकर एक दिन तेरेस्टीग ने भी उसकी फजीहत करते हुए कहा-÷दिमागी तौर पर बीमार आदमी ही ऐसी बातें कर सकता है।' पर विन्सेन्ट सोचता है-÷आदमी का व्यवहार, मौश्ये, काफी कुछ ड्राइंग की तरह होता है। आंख का कोण बदलते ही सारा दृश्य बदल जाता है...यह बदलाव विषय पर नहीं बल्कि देखनेवाले पर निर्भर करता है।' त्रासदी यह थी कि ये सारी बातें क्रिस्टीन के सामने संभ्रांत भाषा में होती थीं, थोड़ा बहुत क्रिस्टीन इसे समझती भी थी और दर्द से भर उठती थी। उसके मित्रा वाइसेनव्रूख ने एक दिन मजाक में कहा-÷...मैं चाहूंगा तुम्हारा चित्रा बनाना। मैं उसे ÷होली-फैमिली' कहूंगा!' इतना सुनकर विन्सेन्ट गाली बकता उसे मारने दौड़ा...।महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उसका भाई थियो, जो चित्राों का व्यापार करता था और हमेशा विन्सेन्ट की चिन्ता करता था, भी कम पागल नहीं था। उस दौर में विन्सेन्ट को उसके मित्रा चित्राकार यह कहकर डराते थे कि उसके भाई से शिकायत करेंगे वे उसके आचरण की और उसे थियो पैसे भेजना बंद कर देगा। उधर थियो था कि उसे भी भाई का दर्शन भाने लगा था। एक दिन उसने विन्सेन्ट को पत्रा लिखा कि उसने एक बीमार और आत्महत्या पर उतारू स्त्राी को अपने साथ जगह दी है और उससे शादी करना चाहता है। अभाव में क्रिस्टीन के साथ कठिन होते जीवन को देखते हुए उसने सलाह दी कि-वह इंतजार करे...उसके लिए जो संभव हो करे और प्रेम को पनपने दे, हड़बड़ी में शादी ना करे। उसकी आर्थिक स्थिति को देखते क्रिस्टीन ही शादी पर आपत्ति करने लगी थी। आखिर वह अपने गांव अपनी मां के पास लौट गया, शांति की खोज में। उसे स्टेशन छोड़ने क्रिस्टीन भी आई थी।गांव में वह पीठ पर ईजल टांगे खेतों में चित्रा बनाता घूमता रहता। इसी बीच उसके पड़ोस की एक स्त्राी मारगॉट उसके निकट आई। वह हिस्टीरिया की मरीज थी और बचपन से ही मन ही मन विन्सेन्ट को चाहती थी। एक दिन उसने मारगॉट को बताया कि प्यार करना तो आसान होता है मारगॉट ने कहा-हां, मुश्किल होता है बदले में प्यार पाना। मारगॉट ने उसे बताया कि वह सोचती थी कि बिना प्यार किए वह चालीस की नहीं होगी और उनचालीसवें साल में आखिर उसे विन्सेन्ट मिल गया। इस प्रेम ने उसके जीवन में सूखते सोते को जीवित कर दिया। मारगॉट की निगाहों में डूबा वह खेतों में घूमता चित्रा बनाता और समझाता-÷जिंदगी भी मारगॉट, एक अनंत खाली और हतोत्साहित कर देनेवाली निगाह से हमें घूरती है, जैसे यह कैनवस करता है।...लेकिन ऊर्जा और विश्वास से भरा आदमी उस खालीपन से भयभीत नहीं होता, बल्कि वह...रचना करता है और अंत में कैनवस खाली नहीं रहता बल्कि जीवन के पैटर्न से भरपूर हो जाता है।'क्रिस्टीन को बचा ना पाने के दर्द को समझते हुए मारगॉट उसे समझाती कि इसमें उसका क्या कसूर, क्या वह बोरीनाज के खदान मजदूरों को बचा पाया था। पूरी सभ्यता के खिलाफ एक आदमी क्या कर सकता है। मारगॉट की बात सही थी पर विन्सेन्ट तो वही आदमी था, पूरी सभ्यता के खिलाफ संघर्षरत, उसका रुख मोड़ देने को आतुर, वह भी प्रेम से, विश्वास की ताकत से। आखिर यह पागलपन ही तो था।
मारगॉट से प्यार के वक्त वह इकतीस का था। फिर उसकी पांच बहनें अविवाहित थीं। दोनों के घरवाले विवाह को तैयार नहीं थे। सबसे ज्यादा आपत्ति मारगॉट की बहनें कर रही थीं। विन्सेन्ट के इस तीसरे प्यार की त्राासदी ने उसके कैनवस के रंगों को और प्रभावी बनाया। उसे वाइसेनब्रूख का जीवन-दर्शन सही लगता-÷मैं कभी भी यातना को छिपाने का प्रयास नहीं करता, क्योंकि अक्सर यातना ही कलाकार की रचना को सबसे मुखर बनाती है।' इस यातना से कब पीछा छूटना था विन्सेन्ट का और अब वह नये रूप में आनेवाली थी। मारगॉट प्रसंग के चलते विन्सेन्ट ने अपना गांव ब्रेबेन्ट छोड़ा और नुएनेन में एक किसान परिवार के साथ मित्राता की। वहां उसे एक किसान की लड़की सत्रह साल की स्टीन मिली, जिसमें ÷हंसने की नैसर्गिक प्रतिभा थी।' वह उसके पास मॉडल के रूप में काम करने आती थी। गुस्साने पर वह विन्सेन्ट के चित्राों पर काफी फेंक देती या आग में झोंक देती। इसी किसान परिवार का आलू खाते चित्रा बनाया था विन्सेन्ट ने जो ÷द पोटैटो इटर्स' नाम से ख्यात हुआ। फिर स्टीन को लेकर भी स्थानीय पादरी ने आपत्तियां शुरू कीं। आजिज आकर वह अपने चित्राों के साथ पेरिस आ गया। अपने प्यारे भाई थियो के निकट।विन्सेन्ट को वही चित्रा पसंद थे जो कि वैसे बनाई गए हों जैसे कि वो नजर आ रहे थे। चाहे वो बदसूरत ही हों। वैसे चित्रा उसे जीवन पर धारदार वक्तव्य जैसे नजर आते रहे। उसकी नजर में वही सौेंदर्य था। विन्सेन्ट सोचता-चित्राों में नैतिकता थोपना या कोरी भावुकता में उन्हें चित्रिात करना उन्हे बदसूरत बना देना है।पेरिस में चित्राकार लात्रोक को यही समझा रहा था विन्सेन्ट। चित्राों के व्यापारी उसके भाई को पेरिस के सभी चित्राकार जानते थे और विन्सेन्ट को वहां अच्छी मंडली मिल गई। पाल गोगां, जॉर्जेस, स्योरो, लॉत्रोक आदि। प्रेम में लगातार मिली विफलता, भूख और अथक श्रम ने विन्सेन्ट को त्रास्त कर दिया था। अब एक उन्माद में वह खुद को झोंकता रहता था काम में। जीवन में मिली यातनाओं को रूपाकार देता वह पागल की तरह भिड़ा रहता था। अतीत से जूझता वह हिस्टीरिया के मरीज सा हो गया था। उसे दौरे भी पड़ने लगे थे। एक बार उसके चित्राों को देखते हुए पाल गोगां ने कहा-÷क्या तुम्हें दौरे पड़ते हैं, विन्सेन्ट।...तुम्हारे चित्राों को देखकर लगता है कि जैसे... वे कैनवस से फटकर बाहर आ जाएंगे...ऐसी उत्तेजना छा जाती है कि मैं उस पर काबू नहीं कर पाता।...वे हफ्‌ते भर में मुझे पागल कर देंगे।' गोगां ने कितना सच कहा था, विन्सेन्ट के बाद पूरी दुनिया उसके चित्राों के पीछे पागल है।
हड्डियों में घुसती पेरिस की ठंड से आजिज वहां के चित्राकार अक्सर सूरज की चर्चा करते। विन्सेन्ट ने भी एक दिन अपने भाई थियो से सूरज की रोशनी में दिन बिताने के लिए अफ्रीका जाने की जिद की। थियो ने कहा कि वह तो दूर है। अंततः उसने एक पुरानी रोमन बस्ती आर्लेस जाना तय किया। आर्लेस की धूप कुछ ज्यादा ही तेज थी। तिस पर विन्सेन्ट बिना हैट के सारा दिन पीठ पर ईजल टांगे यहां-वहां चित्रा बनाता दिन बिताता। वहां के लोग उसे सनकी पागल कहते।
विन्सेन्ट सोचता-शायद मैं पागल हूं, पर मैं क्या कर सकता हूं। घर, पत्नी, बच्चों और परिवार के बिना यातना से भरा जो उसका जीवन था उसका हल उसे इस पागलपन में सूझता था। एक रचनात्मक ऊर्जा में बदल रहा था वह इस यातना को। यह सूरज की रोशनी और उसकी आग में खुद को डुबो देने का पागलपन था। भूखों मरने का पागलपन था। वह सोचता-बना हुआ कैनवस खाली कैनवस से अच्छा होता है और वह लगातार कैनवसों पर काम करता रहता। गरीब कामगार लोगों के बीच काम करते उसे लगता कि ये कितने पवित्रा लोग हैं, अनंत काल तक ÷निर्धन बने रहने की प्रतिभा' से पूर्ण। अर्लेस में ही एक पेशेवर लड़की रैचेल से विन्सेन्ट की भेंट होने लगी थी। पांच फ्रैंक में वह विन्सेन्ट का साथ देने को तैयार हो जाती थी। पर विन्सेन्ट के पास जब पांच फ्रैंक भी नहीं रहते तो वह मजाक में कहती तब तुम बदले में अपने कान दे देना। और एक दिन जब विन्सेन्ट के पास पांच फ्रैंक भी नहीं थे तो यातना से भन्नाया विन्सेन्ट शीशे के सामने गया और चाकू से अपना दायां कान काट उसे रूमाल में लपेट रैचेल को देने चल दिया। रूमाल में कटे कान देख वह बेहोश हो गिर पड़ी। उधर घर पहुंच कर वह खुद बेहोश हो गया। सुबह उसे अस्पताल में भर्ती किया गया और किसी तरह बचाया गया। डॉक्टर ने बताया कि ऐसा सनस्ट्रोक के कारण हुआ।सामान्य होते ही वह फिर वैसे ही बिना हैट लगाये तेज धूप में पागलों सा ईजल लिए मारा-मारा फिरने लगा। डाक्टर रे ने एक दिन उसे समझने और समझाने की कोशिश करते हुए कहा-÷...कोई भी कलाकार सामान्य नहीं होता। सामान्य लोग कला की रचना नहीं कर सकते। वे सोते हैं, खाते हैं, सामान्य धंधे करते हैं और मर जाते हैं। तुम जीवन और प्रकृति को लेकर ज्यादा संवेदनशील हो ...पर यदि तुमने ख्याल नहीं किया तो तुम्हारी यह अतिसंवेदनशीलता तुम्हें तबाह कर देगी...।' अब उस इलाके के बच्चे उसके पीछे सारा दिन पड़े रहते, उसे पागल कह चिढ़ाते, उससे उसका दूसरा कान मांगते हुए। एक दिन तंग आकर उसने खिड़की से सारा सामान बच्चों पर फेंक मारा और खुद बेहोश हो गिर पड़ा। फिर तो उसे खतरनाक पागल घोषित कर गिरफ्‌तार कर लिया गया। अब डाक्टर की सलाह से उसे विस्तृत मैदानोंवाले एक पागलखाने में भर्ती किया गया। वहां डाक्टर पेरॉन उसकी देख-रेख के लिए थे। डाक्टर ने उसे धार्मिक गतिविधियों में भाग न लेने की छूट दिला दी और उसे कई बार नहाने की सलाह दी।आस-पास के पागलों को देख विन्सेन्ट परेशान हो जाता तो डाक्टर उसे समझाते-÷...इन्हें अपने बंद संसारों में जीने दो...तुम्हें याद नहीं ड्राइडन ने क्या कहा था? अवश्य ही पागल होने में भी आनंद है, जिसे केवल पागल ही जान सकता है...'। मजदूर और किसान हमेशा से विन्सेन्ट को पसंद थे। वह खुद को किसानों से नीचा समझता था। वह उनसे बोला करता-आप खेतों में हल चलाते हैं, मैं कैनवस पर। दुनिया कभी उसे ठीक से समझ नहीं पाई। जब वह पागलखाने में था तब फ्रांस की एक पत्रिका में जी अल्बर्ट ऑरेयर ने उसके चित्राों के बारे में लिखा-÷विन्सेन्ट वॉन गॉग हॉल्स की परंपरा का कलाकार है, उसका यथार्थवाद अपने स्वस्थ डच पूर्वजों के कार्य से कहीं आगे के सत्य को उद्घाटित करता है। उसके चित्राों की विशेषता है आकृति का सचेत अध्ययन, प्रत्येक वस्तु के मूल तत्त्व की खोज और प्रकृति और सत्य के प्रति उसका बाल सुलभ प्रेम। क्या यह सच्चा कलाकार और महान आत्मा दोबारा से जनता द्वारा स्वीकार किए जाने के अनुभव को पा सकेगा? मैं नहीं समझता। वह काफी साधारण है और साथ ही हमारे समकालीन बुर्जुआ समाज के समझने के लिए काफी जटिल भी, उसे उसके साथी कलाकारों के अलावा कभी भी कोई नहीं समझ पाएगा।
अंत में विन्सेन्ट को एक होमियोपैथिक डाक्टर गैशे मिले जो दिमागी बीमारियों के ही नहीं, चित्राकारों के भी विशेषज्ञ थे। विन्सेन्ट ने उनके अनगिनत चित्रा बनाये जो दुनिया की सबसे महंगी तस्वीरों में शुमार हुए।विन्सेन्ट के अंतिम दिनों के हालात देख मुक्तिबोध, निराला के अंतिम दिन याद आते हैं। दरअसल ये वो कलाकार हैं जो गालिब की तरह दुनिया की हकीकत समझते हैं पर उससे दिल बहलाने की जगह उस हकीकत का पर्दाफाश करना चाहते हैं। और पागल घोषित कर दिये जाते हैं क्यों कि दुनिया के बाकी तमाशाईयों की तरह ये अपने पीछे कोई कुनबा, गिरोह या अनुयायियों की फौज खड़ी कर अपने इलहाम को निर्वाण घोषित करने की बेहयाई नहीं कर पाते। उससे बेहतर वे अपने दर्द और अकेलेपन में डूब मरना मानते हैं। आखिर उनके मत को भी दुनिया समझती है और किसी भी मत के माननेवालों से ज्यादा बड़ी तादात होती है उनकी, पर वह एक घेरा नहीं बनाती, उसका लाभ उठाने को, क्योंकि स्वतंत्राता के विचार का सम्मान करना वे उससे सीख चुके होते हैं।
दोनों भाईयों को लेने डाक्टर गैशे खुद स्टेशन पहुंचे थे। भाई थियो ने अकेले में जब आशंका जाहिर की। विन्सेन्ट की दिमागी हालत की बाबत तो गैशे ने समझाया-÷हां, वो सनकी है...सारे कलाकार सनकी होते हैं...किसने कहा था, ÷कि हर आत्मा के भीतर थोड़ा-बहुत पागलपन मिला होता है। शायद एरिस्टोटल ने।' एक दिन गैशे उसके बनाए सूरजमुखी को देखते हुए बोला-÷अगर मैं ऐसा एक भी चित्रा बना पाता तो मैं समझता कि मैंने अपने जीवन के साथ न्याय किया है, विन्सेन्ट! मैंने पूरी जिन्दगी लोगों के दर्द का इलाज करने में काटी...वे सब अंत में मर गए...क्या फर्क पड़ा इस सबसे? ये सूरजमुखी तुम्हारे, ये लोगों के दिलों का इलाज करेंगे...ये लोगों के पास खुशियां लाएंगे...सदियों तक...।' एक दिन विन्सेन्ट ने डाक्टर गैशे से बातचीत के दौरान पूछा कि आखिर मिर्गी के उन मरीजों का क्या होता है डाक्टर, जिनका दौरा आना नहीं रुकता। गैशे ने कहा कि वे पूरी तरह पागल हो जाते हैं। यह बात विन्सेन्ट के दिमाग में घर कर गई और उसने सोचा कि वह एक पागल की मौत नहीं मरेगा।एक दिन उसने मकई के खेत में काम करते हुए कौओं का चित्रा बनाया और शीर्षक दिया ÷क्रोज अबव ए कार्नफिल्ड'। फिर इसी तरह एक दिन खेतों में खडे+ सूर्य को निहारते हुए उसने अपनी कनपटी पर गोली मार ली। घायल अवस्था में वह एक दिन जिन्दा रहा। गोली उसके मस्तिष्क में फंसी रही। उस दौरान थियो उसे बता रहा था कि वह अपनी पहली प्रर्दशनी विन्सेन्ट के चित्राों की लगाएगा। पर उसे देखने के लिए विन्सेन्ट जिन्दा नहीं रहा। उसकी मृत्यु के छह माह बाद थियो भी मर गया। गालिब की तरह ख्यालों से मन बहलाने का शौक नहीं था विन्सेन्ट को, उसके पास मन बहलाने का एक ही तरीका था काम करना और करते जाना। श्रम की इस निरंतरता ने उसकी कला को अनंत बना दिया, उसकी मृत्यु अनंत हो गई।(इरविंग स्टोन लिखित उपन्यास लस्ट फॉर लाइफ महान चित्राकार विन्सेन्ट वॉन गॉग के जीवन पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण कृति है जिसका अनुवाद अशोक पांडे ने किया है। संवाद प्रकाशन, मेरठ से आई इस किताब को पढ़ना वॉन गॉग के जीवन से गुजरने के समान है।)

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

आलोचना के संदिग्ध संसार में एक वैकल्पिक स्वर : प्रकाश

इधर के वर्षों में हिंदी आलोचना का वरिष्ठ संसार बड़ी तेजी से संदिग्ध और गैरजिम्मेदारन होता गया है। आलोचना की पहली, दूसरी...परंपरा के तमाम उत्तराधिकारी, जिनकी अपनी-अपनी विरासतों पर निर्लज्ज दावेदारी है, आलोचना के मान- मूल्यों और उसकी मर्यादा से क्रमश: स्खलित होते चले गए हैं। खासकर काव्य-आलोचना पर यह नैतिक संकट ज्यादा गहराया है। हमारी वरिष्ठ आलोचना बगैर किसी अन्वेषण-विश्लेषण के ऐसे किसी भी नए कवि को कबीर, प्रसाद, पंत की छवि में नि:संकोच फिट कर देती है, जिनकी न तो भाषा को बरतने का बुनियादी सलीका आता है और न ही वे काव्य-कर्म के मर्म से समग्रत: परिचित होते हैं। हमारी युवा कविता के अधिकांश कवि ‘रेडिमेड’ हैं और दुर्भाग्य से हमारी वरिष्ठ आलोचना भी ‘रेडिमेड’ तरीके से उनका मूल्यांकन करती है।
    ऐसे परिदृश्य में कुमार मुकुल के पहले ही आलोचना-कृति को पढ़कर प्रीतिकर आश्चर्य हुआ। मुकुल मूलत: कवि हैं। एक कवि के रूप में अपने वरिष्ठ और समकालीन कवियों को पढ़ते हुए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने जो टिप्पणियां, आलेख और काव्य-कृतियों की समीक्षाएं लिखीं, उनको संकलित कर एक स्वतंत्र आलोचना-कृति के रूप में प्रकाशित किया गया हैं अंधेरे में कविता के ‘रंग’ नाम से।
    पुस्तक चार खंडों में विभाजित हैं- ‘कविता का नीलम आकाश’, ‘जख्मों के कई नाम’, ‘उजाड़ का वैभव’ और ‘जहां मिल सके आत्मसंभवा’। पुस्तक की शुरुआत में एक भूमिका है, जो लेखक की सृजनात्मक भाव-भूमि को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। आखिरकार पूरी पुस्तक में काव्य-आलोचना ही क्यों? ‘भूमिका’ में वर्णित लेखक का बचपन से कविता, और वह भी संघर्षशील, प्रतिवादी स्वर की कविताओं की ओर झुकाव यह स्वष्ट कर देता है कि लेखक मूलत: असहमति का कवि है और जब यह कवि आलोचना के क्षेत्र में उतरता है तो कविता को ही अपना क्षेत्र बनाता है, और उसमें भी असहमति की कविताएं उसको प्रिय है।
इस पुस्तक में भी लेखक ने सविता सिंह, अनामिका, विजय कुमार, आलोक धन्वा, लीलाधर जगूड़ी, विष्णु खरे, अरुण कमल, केदारनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, वीरेन डंगवाल, विजेंद्र, रघुवीर सहाय और राजकमल चौधरी की कविताओं का मूल्यांकन किया गया है। सविता सिंह की कविताओं की मूल भावभूमि की खोज करते हुए आलोचक उन्हें पितृसत्तात्मक समाज के विरूद्ध मातृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था का सशक्त प्रवक्ता सिद्ध करता है। वहीं अनामिका कविताएं उसे ‘औसत भारतीय स्त्री जीवन की डबडबाई अभिव्यक्ति’ मालूम पड़ती है। विजय कुमार के कविता-संग्रह ‘रात-पाली’ की विवेचना करते हुए उन कविताओं में आलोचक को जीवन के वे तमाम छोटे-छोटे ब्यौरे मिलते हैं, जो एक भयंकर नाउम्मीदी, भय और आशंका में कांप रहे हैं।
आलोक धन्वा के संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ की सुप्रसिद्ध कविताओं ‘सफेद रात’, ‘ब्रूनों की बेटियां’, ‘जनता का आदमी’, ‘भीगी हुई लड़कियां’ आदि की बड़ी मार्मिक पड़ताल पुस्तक में है। वीरेन डंगवाल की कविता पर टिप्पणी के बहाने आलोचक जारी समय की कविता पर भी सार्थक बात कहता है- ‘‘ विष्णु खरे के बाद जिस तरह हिंदी कविता में मानी-बेमानी डिटेल्स बढ़ते जा रहे हैं और कविता के कलेवर में मार तमाम तरह की गदंह पच्चीसियां जारी हैं, वीरेन की संक्षिप्त कलेवर की कविताएं ‘कटु विरक्त’ बीज की तरह हैं।’’ फिर अरुण कमल की ‘नए इलाके’ की खोज है, जो आलोचक ‘असल पुराने इलाके की ही खोज’ लगती है। इसी तरह आलोचक विजेंद्र की ‘लोकजन की ओर उन्मुख’ कविताओं, ‘रघुवीर सहाय की स्त्री की अवधारणा’, ‘केदारनाथ अग्रवाल की श्रम-संस्कृति की प्रतिपादक कविताओं’ और केदारनाथ सिंह और राजकमल की कविता के विविध आयामों की सूक्ष्म पड़ताल करता है।
    पुस्तक का दूसरा खंड अलग से रखने का विशेष औचित्य नहीं था। इस खंड में भी नए-पुराने अनेक कवियों के काव्य-संकलनों की अलग-अलग आलोचना है। यह आलोचना ‘पुस्तक समीक्षा’ की शैली में है। जैसे मिथिलेश श्रीवास्तव के पहले काव्य-संग्रह ‘किसी उम्मीद की तरह’, के संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’, विष्णु नागर के संग्रह ‘हंसने की तरह रोना, राजेश जोशी के संग्रह ‘चांद की वर्तनी’ और ज्ञानेन्द्रपति के संग्रह ‘गंगातट’ की समीक्षाएं इस खंड में शामिल हैं। इनके अलावा सुदीप बनर्जी, लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप की कविताओं पर स्वतंत्र-सी मालूम होती विवेचना है।
    पुस्तक के तीसरे खंड ‘उजाड़ का वैभव’ में कुछेक वरिष्ठ कवियों जैसे विष्णु खरे, कुमार अंबुज के अलावा अपेक्षाकृत नए कवियों निलय उपाध्याय, प्रेम रंजन अनिमेष, पंकज चतुर्वेदी, निर्मला पुतुल, वर्तिका नंदा, पंकज कुमार चौधरी, आर-चेतन क्रांति, रुंजय कुंदन और तजेंदर सिंह लूथरा की कविताओं का सह्दयता से किया गया आब्जर्वेशन है।
    आखिरी खंड में सिर्फ दो आलेख हैं। इसमें पहले आलेख में है हमारे अस्थिर समय में भटकाव की शिकार हिंदी कविता की वस्तुस्थिति का आकलन और उसके कारणों की शिनाख्त की गई है। आखिरी आलेख कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह की एक महत्वपूर्ण कविता ‘सूर्यग्रहण’ पर केंद्रित है। मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ की पृष्ठभूमि में कुमारेंद्र की कविता ‘अंधेरे में’ के वर्षों बाद रची गई और मुकुल जी इस कविता को अंधेरे में की पुनर्रचना मानते हैं। यह सिद्ध करने   की उन्होंने पर्याप्त कोशिश की है।
    कुमार मुकुल की यह कृति समकालीन हिंदी कविता को समझने की मुख्यधारा की दृष्टि के बरक्स एक वैकल्पिक दृष्टि प्रदान करती है। यह दृष्टि गिरोहबंदी और तमाम किस्म के पूर्वग्रहों से मुक्त और पारदर्शी है। लेखक की विवेचना पद्धति और चुनाव भी विश्वसनीय है। हमारे समय के घोर अंधेरे में सच्ची कविता अब भी है जहां-तहां चमक रही है। उसके विविध रंगों को कुमार मुकुल की इस पुस्तक ने सफलतापूर्वक उभारकर हमारे सामने रखा है। समकालीन हिंदी कविता की विविधआयामी छटा का दिग्दर्शन करने की इच्छा रखने वाले पाठकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है।

बुधवार, 14 नवंबर 2018

संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है - कुमार मुकुल

समय का संक्षिप्‍त इतिहास  कुछ नोटस

संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है : स्‍टीफेन हाकिंग

 

'पूरा सच कभी किसी एक के हिस्‍से नहीं पड़ता' -

स्‍टीफेन हाकिंग को पढते हुए लगता है कि पूरा सच कभी किसी एक के हिस्‍से नहीं पड़ता। अरस्‍तू से हाकिंग तक सब थोड़ा-थोड़ा बता पाते हैं। हां हाकिंग के पास पिछले अनुभवों को जोड़ने की सुविधा थी जो अरस्‍तू के पास सबसे कम थी। पर किसी आधुनिक वैज्ञानिक ने नहीं दार्शनिक अरस्‍तू ने पहली बार बतलाया था कि धरती चपटी नहीं गोल है पर उन्‍होंने यह गलत अनुमान भी लगाया था कि पृथ्‍वी स्थिर है और सूरज-चांद-तारे उसका चक्‍कर लगाते हैं।
धर्मसत्‍ता के विरूद्ध सबसे बड़ी और समझदारी भरी क्रांतिकारी स्‍थापनाएं वैज्ञानिकों ने की। धर्म हमेशा विज्ञान को ब्रह्मांड संबंधी उतनी ही जानकारी देने की छूट देता था जिससे उसके आकाशी स्‍वर्ग-नरक की परिभाषा अक्षुण्‍ण रहे। चर्च की कड़ी निगाह हमेशा विज्ञान को अनुशासित रखने की फिराक मे रहती थी।
सूर्य के चारों ओर बाकी ग्रहों के घूमने की बात भी किसी वैज्ञानिक ने नहीं पहली बार एक पुरोहित निकोलस कॉपरनिकस ने 1514 में की थी। पर अपने ही चर्च के भय से उसने यह बात गुमनाम प्रसारित की और इस सच्‍चाई तक पहुंचने में दुनिया को और सौ साल लग गए। 1609 में गैलीलियो ने कॉपरनिकस की बातों पर सहमति जाहिर की। गैलीलियो की बातों को योरप में समर्थन भी मिला पर पर चर्च के भय से आस्‍थावान गैलीलियों ने कॉपरनिकस के विचारों से खुद को दूर कर लिया। हाकिंग की यह पुस्‍तक समय का संक्षिप्‍त इतिहास इन संघर्षों का इतिहास सा है। और करीब-करीब गैलीलियों की तरह वे ईश्‍वर की अवधारणा को नकारते हुए हुए भी कहीं-कहीं उसे गोल-मोल ढंग से स्‍वीकारते भी दिखते हैं। अब यह समय पर है कि वह उनके छुपाने को किस तरह दिखाता है।
न्‍यूटन और सेव की कहानी पर संदेह करते हुए हाकिंग लिखते हैं कि जब न्‍यूटन चिंतनशील थे तो सेव के गिरने ने उनकी समस्‍या का हल निकाला। हाकिंग ने उनके गुरूत्‍वबल सिद्धांत के अंतरविरोधों पर भी उंगली रखी है कि यह विचार न्‍यूटन के भीतर भी उठा था कि अगर ब्रह्मांड में गुरूत्‍वबल समान है तो तारों को भी एक दूसरे को आकर्षित करना चाहिए था पर ऐसे में तारे स्थिर क्‍योंकर हैं।

'कोई भी भौतिक सिद्धांत एक अस्‍थायी परिकल्‍पना होता है' - - -

स्‍टीफेन हाकिंग का कहना है कि हमने कभी इस बाबत नहीं सोचा कि ब्रह्मांड फैल रहा है या सिकुड़ रहा है...। ऐसा ब्रह्मांड के बारे में शाश्‍वत आध्‍यात्मिक धारणा के कारण हुआ। हाकिंग ब्रह्मांड के फैलने संबंधी बीसवीं सदी की धारणा को एक क्रांतिकारी स्‍थापना मानते हैं और उस पर एक अध्‍याय ही लिख डालते हैं।
हाकिंग को पढ़ते हुए एक मजेदार बात पहली बार सामने आती है कि विज्ञान के विकास में अगर धर्म हमेशा अवरोध की तरह आया तो दैवीर हस्‍तक्षेप की गंध को पसंद नहीं करने जैसे कारकों ने भी विवेचकों केा गलत निष्‍कर्ष पर पहुंचाया।
जैसे अरस्‍तू ने दैवी हस्‍तक्षेप को पसंद ना करने के कारण बह्मांड की उत्‍पत्ति के विचार को ही खारिज कर दिया। उन्‍होंने माना कि संसार सदा से है और सदा रहेगा। यह प्रलय की दैवी अवधारणा के विरूद्ध था और अवैज्ञानिक भी। जबकि प्रलय-पुनर्जन्‍म की अवधारणा खुद काल्‍पनिक और अवैज्ञानिक है।
1929 की एडविन हब्‍बल की इस खोज ने कि आकाशगंगा हमेशा हमसे दूर जा रही है ने साबित किया कि ब्रह्मांड का विस्‍तार हो रहा है। मतलब कभी यह ब्रह्मांड केंद्रित और सिमटा था। यह शुरूआत लगभग दस या बीस हजार साल पहले हुई थी। इससे यह बात सामने आई कि जब ब्रह्मांड केंद्रित था उसी समय महाविस्‍फोट नाम से एक समय था। वहीं से समय का आरंभ माना जा सकता है क्‍योंकि वहीं से ब्रह्मांड का विस्‍तार आरंभ होता है।
ब्रह्मांड के विस्‍तार पर ही हाकिंग स्रष्‍टा या ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर सवाल उठाते हैं कि माना कि ब्रह्मांड का कोई स्रष्‍टा हो पर चूंकि ब्रह्मांड लगातार फैल रहाहै तो कहां किस बिंदू पर उसके काम को पूरा हुआ माना जाए...। स्रष्‍टा के साथ विज्ञान की भी सीमा बताते हाकिंग कहते हैं कि - इसका अस्तित्‍व केवल हमारे मस्तिष्‍क में होता है। उनके अनुसार कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत श्रेणियों के प्रेक्षणों के सही आकलन पर निर्भर करता है और उसमें स्‍वेच्‍छाचारिता जितनी ही कम होगी वह उतना ही वैज्ञानिक होगा। दूसरे कि वह सिद्धांत भविष्‍य की कहां तक निश्चित भविष्‍यवाणी करता है इस पर उसकी आयु निर्भर करती है। वे बतलाते हैं कि कोई भी भौतिक सिद्धांत एक अस्‍थायी परिकल्‍पना होता है जिसे कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता। किसी भी मान्‍य सिद्धांत के आधार पर की गई भविष्‍यवाणियां जब-तक सही साबित होती हैं उसकी वैज्ञानिकता बरकरार रहती है पर अगर कभी एक भी नया प्रेक्षण उसके प्रतिकूल पड़ता है तो हमें वह सिद्धांत त्‍यागना पड़ता है। हां प्रेक्षक की क्षमता पर भी हम सदा सवाल उठा सकते हैं।

ब्रह्मांड के बारे में कोई एक तय सिद्धांत नहीं - - -

हाकिंग स्‍वीकारते हैं कि ब्रह्मांड के बारे में कोई एक तय सिद्धांत बनाना कठिन है। इसलिए हम उसका खंड-खंड ही अध्‍ययन कर पाते हैं। हालांकि विज्ञान का यह तरीका एकदम गलत है पर अब-तक की सारी वैज्ञानिक प्रगति इसी तरीके से संभव हुई है। वे कहते हैं कि व्‍यवहार में अधिकांश नया अभिकल्पित सिद्धांत किसी पूर्व सिद्धांत का विस्‍तार होता है। दरअसल समय का संक्षिप्‍त‍ि इतिहास लिखते समय उन्‍होंने विज्ञान का इतिहास भी लिख डाला है और इस रूढि को तोड़ा है कि वैज्ञानिक खोज व्‍यक्ति के निजी प्रयासों और सनकभरी खोजों का परिणाम मात्र होते हैं। वे स्‍थापित करते हैं कि विज्ञान निजी प्रयासों और सनकभरी खोजों का नहीं , खंड-खंड में ही पर एक दूसरे से जुड़े और पूरक प्रयासों का नतीजा होता है।
इतिहास और दर्शन की तरह विज्ञान की भी रूढियां होती हैं। जो नयी खोजों से टूटती रहती हैं। हाकिंग ने पहली बार विज्ञान को मनुष्‍य की जिज्ञासा और उसके दर्शन , इतिहास संबंधी अभिरूचियों से जोड़ा है। इससे पहले आइंस्‍टाइन ने भी ऐसा किया था। आइंस्‍टाइन ने समाजवाद और गांधीवाद पर भी अपना दृष्टिकोण जाहिर किया था। इस तरह हाकिंग विज्ञान के इतिहास में आइंस्‍टीन की अगली कड़ी हैं। इस तरह हाकिंग विज्ञान की उस धारा को आगे बढाते हैं जो विज्ञान को सनक से जोड़कर धर्म को उसकी राह में अवरोध खड़ा करने की छूट नहीं देता है। आइंस्‍टीन के विरूद्ध उनके समय में सौ लेखकों ने मिलकर एक किताब लिखी थी , जिसके बारे में आइंस्‍टीन का जवाब था कि - यदि मैं गलत होता तो मेरे लिए एक ही काफी होता।
हाकिंग ने अपनी पुस्‍तक में उपसंहार के बाद आइंस्‍टाइन, गैलीलियों, न्‍यूटन आदि की अति संक्षिप्‍त और रोचक चर्चा भी की है। ये तीनों अलग-अलग विज्ञान की तीन धाराओं का प्रतिनिधित्‍व करते हैं। तीनों में गैलीलियो जहां धर्मभीरू हैं न्‍यूटन तानाशाह हैं तो वहीं आइंस्‍टाइन खरी बोलने वाले हैं। हाकिंग न्‍यूटन के प्रति एक हद तक अपनी नापसंदगी भी दिखलाते हैं। न्‍यूटन की तानाशाही को बाद में एक सनक के रूप में प्रचारित किया गया।
मीडिया में हाकिंग की चर्चा उनकी विकलांगता और कंम्‍पयूटर के चमत्‍कारों को लेकर है जो उनसे चिपका है। उनकी चेतना की चर्चा कम हाती है जो हाकिंग को हाकिंग बनाती है। यह हमारी मानसिक विकलांगता भी है कि हम कोई भी चर्चा चमत्‍कारों और उनकी दयनीयता से अलग हटकर नहीं कर पाते। क्‍येांकि चमत्‍कारेां को कभी भी दैवीय एंगल दिया जा सकता है और चूं-चूं करती दया भी इसमें सहायक होती है। जबकि हाकिंग पहली बार विज्ञान को ऐतिहासिक और सुसंब्‍द्धता प्रदान कर धर्म के विरूद्ध विज्ञान की पिछली चुनौतियों को तीखा करते हुए उसे एक सुचिंतित आधार प्रदान करते हैं।

योग्‍यता वस्‍तुत: वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना है - - -

जीवन जगत के सवालों को हम कहां तक हल कर सकते हैं का जवाब देते हुए हाकिंग अपना जवाब डार्विन के प्राकृतिक चयन पर आधारित करते हुए उस आगे बढाते हैं। डार्विन का कहना है कि - जीवन की विभिन्‍नताएं जाहिर करती हैं कि कुछ लोग:प्रजाति अन्‍य से ज्‍यादा योग्‍य है। इस योग्‍यता को पहले ताकत के रूप में देखा जाता था इसलिए इसे - वीर भोग्‍या वसुंधरा - कहा जाता था और इसे आलोचित भी किया जाता था। पर हाकिंग ने यह कहकर इसे आगे बढाया कि - योग्‍यता वस्‍तुत: वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना है। इस तरह जो मानव समूह वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता गया वह उत्‍तरजीवितता के इस संघर्ष में आगे बढा। यहां पर वे विज्ञान की ध्‍वंसात्‍मक शक्ति की ओर भी ईशारा करते हैं। और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को गलत तरीके से लागू करने से ब्रह्मांड के मनुष्‍यों-जीवों सहित विनाश की संभावना से भी इनकार नहीं करते। दरअसल ऐसा कहते हुए वे विज्ञान के रूढि बनने की ईशारा करते हुए उससे बचने की बात करते हैं।
डार्विन को खारिज करते हुए हिन्‍दी के कवि निराला लिखते हैं- योग्‍य जन जीता है , पश्चिम की उक्ति नहीं गीता है गीता है। हाकिंग के हिसाब से ऐसी रूढियां खतरनाक हो सकती हैं। गीता में विज्ञान रहा होगा पर आज अगर विज्ञान विकास के नये सोपान पर जा चुका है तो चाहे वह पश्चिम में हो या पूरब में हमें गीता काल के विज्ञान पर नहीं अटके रहना चाहिए। वर्ना हम नष्‍ट हो जाएंगे।
हाकिंग की किताब अंतरद्वंद्वों को जबरदस्‍त ढंग से उभारती है पर पाठक पर अपना कोई मत थोपने से भी बचती है। उसे वह अपना पक्ष चुनने की स्‍वतंत्रता देती है। वह पक्षों के खतरे से भी उन्‍हें अवगत कराती चलती है। वे इस जिज्ञासा को बल प्रदान करती चलती हैं कि हम कभी ना कभी जीवन-जगत के प्रश्‍नों का हल तलाश कर लेंगे। पर वह काल कल आएगा या कई प्रकाश वर्ष दूर होगा इसकी घोषणा से भी बचते हैं। जैसे जीनोम की खोज पर कुछ लोग बवेला मचा रहे हैं कि अब दुनिया से जैसे गैरबराबरी मिट जाएगी। चूंकि सबकी जैविक बनावट निकट की है , पर हमें गैरबराबरी जमीन पर मिटानी होगी , खोजों से बराबरी साबित कर देने से बराबरी नहीं आने वाली।

संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है - - -

हाकिंग संयोगों की सत्‍ता पर विशेष जोर देते हैं। इस सत्‍ता को पुष्‍ट करने वाले‍ विज्ञान के क्‍वांटम सिद्धांत और अनिश्चितता के सिद्धांत को वह विश्‍व की आधारभूत संपत्ति मानते हैं। अनिश्चितता का सिद्धांत बीसवीं सदी के जर्मन वैज्ञानिक वर्नर हाइजेनवर्ग की खोजों पर टिका है। उनकी खोजों का आधार यह है कि - किसी भी कण के वेग और उसकी स्थिति को आप एक साथ शुद्ध-शुद्ध नहीं नाप सकते। और अगर एक कण की स्थिति को आप नहीं नाप सकते तो ब्रह्मांड का आकलन ठीक-ठीक कैसे किया जा सकता है। आइंस्‍टाइन ने भी क्‍वांटम के सिद्धांत में सापेक्षता का सिद्धांत जोड़ और इसके लिए ही उन्‍हें नोबेल से नवाजा गया था। यूं आइंस्‍टाइन नहीं स्‍वीकार सके कि ब्रह्मांड संयोगों से नियंत्रित होता है,इसीलिए आइंस्‍टाइन का सिद्धंत परंपरिक कहलाया।
दरअसल संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है। जहां सब-कुछ ईश्‍वर की मर्जी से पहले से तय होता है। आइंस्‍टाइन का प्रसिद्ध कथन है- ईश्‍वर पासा नहीं फेंकता।
ज‍बकि हाइजेनवर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत इस पर निर्भर है कि कण कुछ हद तक तरंगों की तरह व्‍यवहार करते हैं,उनकी कोई निश्चित स्थिति नहीं होती।
अधिकांश वैज्ञानिक अक्‍सर अपने पिछले आकलनों को ही आगे नकारने लगते हैं। हाकिंग से आइंस्‍टाइन तक सबका यही हाल है और यह भैतिक विज्ञान की प्रामाणिकता पर एक प्रश्‍न चिन्‍ह है। एक तरफ न्‍यूटन जैसे वैज्ञानिक हैं जो अपने विपरीत पड़ने वाले किसी भी शोध और शोधक को आगे आने से रोकने में सारी ताकत लगा देते हैं। उनके लिए अपना सच अंतिम होता है दूसरी ओर हाकिंग और आइंस्‍टाइन जैसे ढुल-मुल लोग हैं।
कृष्‍णविवर काले नहीं श्‍वेत तप्‍त होते हैं। जो कृष्‍णविवर जितना छोटा होता है वह उतना ही ज्‍यादा चमकता है और उनका पता लगाना आसान होता है। हाकिंग का कहना है कि एक छोटा कृष्‍णविवर पृथ्‍वी के पास होतो उसके सामने एक विशाल द्रव्‍यराशि को रखकर कृष्‍णविवर को धरती पर उसी तरह खींचा जा सकता है जैसे एक गदहे को गाजर दिखाकर। और उसे पृथ्‍वी के चारेां ओर की कक्षा में स्‍थापित किया जा सकता है। पर आगे हाकिंग अपनी इस कल्‍पना या परिकल्‍पना को खुद अव्‍यावहारिक बताते हैं और कहते हैं कि अपनी आयु पूरी करने पर कृष्‍ण विवरों का विस्‍फोट होता है।

टिप्‍पणियां-


दिनेशराय द्विवेदी ने कहा… तारे क्या चीज हैं। कुछ भी स्थिर नहीं है। स्थिर हो तो काल जई नहीं हो जाएगा। जो आज तक कोई नहीं हुआ।June 23, 2008 2:41 AM

Pallavi Trivedi ने कहा… ham to aaj tak kauparnikas ko scientist hi samajhte aaye the..pahli baar pata chala ki wah ek purohit tha!June 23, 2008 5:09 AM

Udan Tashtari ने कहा… पूरा सच समझने के लिए अगले भाग का इन्तजार कर रहे हैं.दिनेशराय द्विवेदी ने कहा… बहुत दिलचस्प पुस्तक है। कोई दस वर्ष पहले पढ़ी। फिर मेरी प्रति कोई पढ़ने को ले गया लौट कर आज तक नहीं आई। विश्वोत्पत्ति के सिद्धान्त ही हो सकते हैं। नियम नहीं, और सिद्धान्त होंगे तो अनेक होंगे। हॉकिन्स ने यह भी कहा है कि पहले वैज्ञानिकों को आगे बढ़ने के लिए दार्शनिक रास्ता सुझाते थे। वैज्ञानिक उन की अवधारणाओं को पुष्ट या खारिज करते थे। लेकिन अब लगता है दार्शनिक चुक गए हैं और विज्ञान को आगे का मार्ग स्वयं तलाशना पड़ रहा है। आप लिखिए। इस पुस्तक के बारे में लिखा जाना और पढ़ा जाना जरूरी है। वैसे अंग्रेजी में यह ई-पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। मेरे पास उस की एक प्रति सुरक्षित है।August 9, 2008 10:10 PM
उन्मुक्त ने कहा… मैंने यह पुस्तक अंग्रेजी में पढ़ी है। हिन्दी में भी प्रकाशित हो गयी जानकर अच्छा लगा।पर यह उतनी पसन्द नहीं आयी जितना इसका नाम है।August 10, 2008 1:17 AM

संगीता पुरी ने कहा… जब से पंडितों, पुरोहितों ने परंपरागत व्यवसाय के रूप में धर्म और ज्ञान को स्थान दे दिया ,स्थिति विकट होती चली गयी। वैज्ञानिकों का काम बढ़ता चला गया।August 10, 2008 1:33 AM

Umesh ने कहा… जितना हम जानते है, उससे अनंत गुणा ऐसा है जो हम नही जानते । स्टीफन हाकिंगस की पुस्तक मे बहुत सी बातें दिमाग के उपर से निकल जाती है । हम खुद को बुद्धीजीवी दिखाने के लिए भी ईस प्रकार की पुस्तकों की प्रशंसा करते है । नेपाली मे एक पुस्तक पढी थी, " माया तथा लिला ", यह पुस्तक बेजोड है । वेदांत तथा क्वांटम थ्योरी के साम्य तथा ब्रहमाण्ड उत्पती के सिद्ध्न्तो पर से बखुबी से पर्दा उठाने का प्रयास करती है यह पुस्तक । लेखक का नाम शायद अरुण कु सुबेदी है ।August 10, 2008 6:49 AM

हकीम जी ने कहा… हॉकिन्स के विचारों की मैं बहुत कद्र करता हूँ ..पुस्तक में लेखक भी अपनी ही बात पर अडा होना चाह रहा है ..ब्रह्माण्ड की उत्पत्ती कैसे हुई .. इस विषय पर दुनीया में कई सिद्धांत विभिन्न कालो में प्रतिपादित होते रहे . कई प्राचीन सिद्धांतो कों नवीन रूप दिया गया तो कई प्राचीन सिन्द्धान्तो का निरूपण किया गया ..बफ़्फन कांट , चैम्बरलैंड, मोलटन, जींस ,जेफ्रीज, नॉर्मन, हेनरी,रोजगन, शिमन्ड,वेज्सेकर और भी ना जाने कीतने ही विद्वानों ने समय समय पर ब्रामांड के बारे में जानने की कोशीश की ,, .. मुआफ करना दोस्त अब जो मैं बात कहने जा रहा हूँ शायद वो आपके दील के संवेदनशील भाग से गुजरे...हिन्दुस्तान में कभी भी हमने धर्म से अलग होकर नहीं सोचा तर्क की कसौटी भारत में बेअसर है ..और ना ही हम लोगो ने दर्शन और इतिहास से बहार नीकल कर सोचा ..एक इतिहास कार या दार्शनिक ब्रामांड के बारे में क्या बता सकता है सिवाय दार्शनिकता के..जरुरत है उन नई तकनीको और ज्ञान की जो इस बारे में हमें सच्चाई कों बताये अपने सिद्धांतो से तर्क का निरूपण करे...मुर्ख व्यक्ती तो हमेशा येही कहता रहेगा की तो फिर तारे कहा से बने , इस संसार कों कौन चला रहा है ,सूरज किसने बनाया , वे कारण नहीं खोजते ..खासतौर से हिन्दुस्तान में अगर आप इन चीजो के सही कारण खोजोगे तो वे आपको धर्म का विरोधी करार कर देंगे...