मंगलवार, 18 अगस्त 2020

तुम कभी नहीं समझ सकते उस जिंदगी को

अपनी कविताओं में विधान कुछ मौलिक सवाल उठाते हैं जो आपको सोचने-विचारने को बाध्‍य करते हैं कि आपके खुद की निगाह में अजनबी होने का खतरा पैदा होने लगता है। इन कविताओं से गुजरने के बाद चली आ रही व्‍यवस्‍था को लेकर आपके मन में भी सवाल उठने लगते हैं और उसके प्रति आंखें मूंदना आपके लिए असुविधाजनक होता जाता है।

विधान की कविताएं


भाग गया ईश्वर

 
मुर्गे की जान की कीमत
एक सौ बीस रुपये
लगाने वाला कौन है?

कौन हैं वो
जो जान की क्षति पर
घोषि‍त करते हैं

चंद लाख का मुआवजा?

कौन  बेचारे मेमने पर
दो गोली दाग़ गया

इस बीच तुम्हारा  ईश्वर 
किधर भाग गया!
   
2

घर लौट रहे लोग मूर्ख नहीं
 

शायद तुम्हे मालूम न हो
कई दिनों तक भूखे पेट रहने का परिणाम

तुम्हारे पिता की मृत्यु महँगी शराब के अत्यधिक सेवन से हुई हो
या तुम्हारे भाई की मृत्यु की वजह रही हो किसी कार की तेज़ रफ़तार ।
तुमने रोटी से दब कर एक मर्द के स्वाभिमान को मरते नहीं देखा
या तुम्हारे लिए कभी घर लौटना उस बाप की तरह जरूरी नहीं रहा
जिसके दिन भर की कमाई से लाया जा सकेगा
शाम के भोजन के लिए सब्जी, आटा और चावल
अपने भूखे परिवार का पेट भरने की खातिर!

तुम कभी नहीं समझा सकते उस जिंदगी को
अनुशासन का पाठ
जो भली भांति समझता है
जिंदगी से मौत की दूरी के गणित को।

साहब ,गरीब शिक्षित नहीं पर जानता है
तुम्हारे वादों की काल्पनिकता और हकीकत के अनुपात को।
दरअसल उसे वायरस से मरने का खौफ उतना नहीं
जितना 'इस बज़्ज़ात भूख से'
अपने बाप की तरह
सरकारी मदद पहुँचने से ठीक पहले मर जाने का है!

3
मेरी फिक्र

अब जब कोई
आने लगता है करीब
इस दिल के
या फिर ये दिल जाने लगता है
 करीब किसी के

तो  बढ़ जाती है मेरी फिक्र!

सोचने लगता हूँ मैं
जगह बनाने की
अपने जख्मी बदन पर
फिर कुछ उँगलियों के
नए ज़ख्मों की ख़ातिर!
     
4

तेरी जात का                                                   

तुम्हें  मालूम नहीं   क्या?
कैसी बात करते हो तुम!
आज जिसके पास खड़े होते ही
सिकुड़ गयी थी तुम्हारी नाक
उसी धोबी ने  धोये थे कल तुम्हारे वस्त्र
वो भी मसल मसल के
 अपने शूद्र हाथोँ  से

हे राम
ये कैसी उच्च जाति से हो तुम!
कि भूल गए दहलीज पर रखे
दफ्तर जाने का इंतजार करते उस जूते को
जिसपे फेरे  हैं  सैकड़ों दफा
उस चमार ने अपनी उंगलियां
जिसकी पहचान और काम को
दूषित समझते आये हो तुम

छी छी

क्या सच तुम्हें नही आती
अपने दूध से
ग्वाले के अंगूठे की महक!
राम राम!
कितना बड़ा धोखा हुआ तुम्हारे साथ
कि तुम्हें अपने घर की दीवार, छत
बगान ,कुर्सी से ले कर मेज तक
बनाने के लिए नहीं मिले 

एक भी शुद्ध सवर्ण हाथ!

5

ये बच्चा नहीं एक देश का मानचित्र है

मुझे भ्रम होता है कि एक दिन ये बच्चा
बदल जायेगा अचानक
'मेरे देश के मानचित्र में'

और सर पर कश्मीर रख ढोता फिरेगा
सड़कों - चौराहों पर
भूख भूख कहता हुआ

मुझे भ्रम है कि कल इसके
कंधे पर उभर आयेंगी
उत्तराखंड और पंजाब की आकृतियां
भुजाओं पर इसकी अचानक उग आयेंगे 

गुजरात और असम

सीने में धड़कते दिल की जगह ले लेगा
मध्यप्रदेश

नितंबों को भेदते हुए निकल आएंगे
राजस्थान और उतरप्रदेश
 

पेट की आग से झुलसता दिखेगा 
तेलंगाना

फटे  चीथड़े पैजामे के  घुटनों से झाँक रहे होंगे
आंध्र और कर्नाटक

और पावँ की जगह ले लेंगे केरल औऱ तमिलनाडु
जैसे राज्य।

मैं जानता हूँ ये बच्चा कोई बच्चा नहीं
इस देश का मानचित्र है
जो कभी भी अपने असली रूप में आ कर

इस मुल्क की धज्जियां उड़ा सकता है!

6


क्योंकि काकी अखबार पढ़ना नहीं जानती थीं


अखबार आया
दौड़ कर गयी काकी

खोला उसे पीछे से
और चश्मा लगा पढ़ने लगी राशिफ़ल
भविष्य जानने की ख़ातिर !
वो नही पढ़ सकीं वो खबरें
जिनमें दर्ज थीं कल की तमाम वारदातें

ना ही वो जान सकीं क़ातिलों को
और उन इलाकों को
जो इनदिनों लुटेरों और क़ातिलों का अड्डा थे !

अफसोस, काकी भविष्य में जाने से पहले ही
चली गयी उस इलाके में

जहाँ जाने को मना कर रहे थे अखबार !

अब उनकी मृत्य के पश्चात -
काका खोलते हैं
भविष्य से पहले अतीत के पन्ने
जो चेतावनी बन कर आते हैं अखबार से लिपट

उनकी दहलीज़ पर!

परिचय

शिक्षा- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
संपर्क- 8130730527

सोमवार, 17 अगस्त 2020

जीवन और अंतरमन के द्वंद्व - पूनम सोनछात्रा की कविताएं

जीवन और अंतरमन के द्वंद्व व विडंबनाओं को पूनम की कविताएं बड़ी कुशलता से अभिव्‍यक्‍त करती हैं। एक स्‍त्री जब एक मनुष्‍य की तरह सोचना-विचारना चाहती है तो बराबरी व समानता के पाखंड की धज्जियां बिखरने लगती हैं। पूनम की कविताएं इन धज्जियों को बखूबी समेटती इस समाज को उसका चेहरा दिखलाती हैं।

पूनम सोनछात्रा की कविताएं

बातों का प्रेम 
**********
अनेक स्तर थे प्रेम के
और उतने ही रूप

मैंने समय के साथ यह जाना कि
पति, परमेश्वर नहीं होता 
वह एक साथी होता है 
सबसे प्यारा, सबसे महत्वपूर्ण साथी 
वरीयता के क्रम में 
निश्चित रूप से सबसे ऊपर.. 

लेकिन मैं ज़रा लालची रही.. 

मुझे पति के साथ-साथ उस प्रेमी की भी आवश्यकता रही
जो मेरे जीवन में ज़िंदा रख सके ज़िंदगी.. 
सँभाल सके मेरे बचपन को
ज़िम्मेदारियों की पथरीली पगडंडी पर.. 
जो मुझे याद दिलाए
कि मैं अब भी बेहद ख़ूबसूरत हूँ.. 
जो बिना थके रोज़ मुझे सुना सके
मीर और ग़ालिब की ग़ज़लें.. 
उन उदास रातों में 
जब मुझे नींद नहीं आती 
वो अपनी गोद में मेरा सिर रख
गा सके एक मीठी लोरी... 

मुझे बातों का प्रेम चाहिए था 
और एक बातूनी प्रेमी.. 
जिसकी बातें मेरे लिए सुकूनदायक हों.. 

क्या तुम जानते हो कि 
जिस रोज़ तुम
मुझे बातों की जगह अपनी बाँहों में भर लेते हो
उस रोज़ 
मैं अपनी नींद और सुकून 
दोनों गँवा बैठती हूँ... 


#
मुक्ति 
****
चरित्र के समस्त आयाम
केवल स्त्री के लिए ही परिभाषित हैं... 

मैं सिंदूर लगाना नहीं भूलती... 
और हर जगह स्टेटस में मैरिड लगा रखा है... 
जैसे ये कोई सुरक्षा चक्र हो.... 

मैं डरती हूँ
जब कोई पुरुष मेरा एक क़रीबी दोस्त बनता है... 

मुझे बहुत सोच समझ कर करना पड़ता है 
शब्दों का चयन... 

प्रेम का प्रदर्शन 
और भावों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति 
सदैव मेरे चरित्र पर एक प्रश्न चिह्न लगाती है.... 

मेरी बेबाकियाँ मुझे चरित्रहीन के समकक्ष ले जाती हैं 
और मेरी उन्मुक्त हँसी 
एक अनकहे आमंत्रण का
पर्याय मानी जाती है... 

मैं अभिशप्त हूँ 
पुरूष की खुली सोच को स्वीकार करने के लिए 
और साथ ही विवश हूँ 
अपनी खुली सोच पर नियंत्रण रखने के लिए.. 

मुझे शोभा देता है 
ख़ूबसूरत लगना
स्वादिष्ट भोजन पकाना 
और वह सारी जिम्मेदारियाँ 
अकेले उठाना 
जिन्हें साझा किया जाना चाहिए... 

जब मैं इस दायरे के बाहर सोचती हूँ 
मैं कहीं खप नहीं पाती... 

स्त्री समाज मुझे जलन और हेय की 
मिली-जुली दृष्टि से देखता है... 
और पुरुष समाज 
मुझमें अपने अवसर तलाश करता है... 

मेरी सोच.. मेरी संवेदनाएँ... 
मेरी ही घुटन का सबब बनती हैं... 

मैं छटपटाती हूँ... 
क्या स्वयं की क़ैद से मुक्ति संभव है....? 


#
अपराध बोध
**********

वक़्त बीत जाने पर मिलने वाला प्रेम
नहीं रह पाता उस गुलाब की कली के जैसा 
जिसे बड़े जतन से 
जीवन की बगिया में खाद और पानी के साथ
उगाया गया हो..

ये बात और है कि 
उसमें शिउली की महक होती है 
रात रानी की तरह ही 
वो रात के अंधेरे में 
अपनी भीनी-भीनी ख़ुशबू से पूरी बगिया महकाता है 
लेकिन दिन के उजाले में 
उसे खो जाना होता है 
ज़िम्मेदारियों की पथरीली पगडंडी पर..

एक प्रेमिका 
पति की बाँहों में 
जब प्रेमी की बातें याद कर मुस्कुराती है
उसकी आत्मा को 
शनैः शनैः एक अपराध बोध ग्रस लेता है..

जब कभी उफन जाता है दूध
जल जाती है सब्ज़ी 
हो नहीं पाती बिटिया के कपड़ों पर इस्त्री 
रह जाता है अधूरा उसका होम वर्क 
या छूट जाती है 
सुबह-सवेरे स्कूल की बस

सवालों के कटघरे में केवल प्रेम होता है ...

वक़्त बीत जाने पर 
पूरी होने वाली इच्छाएँ 
केवल और केवल अपराध बोध देती हैं....


#
नौकरी पेशा औरतें 
***************

काफ़ी कुछ कहा जाता है इनके बारे में 
उड़ने की चाह लिए 
पैर घुटनों तक ज़मीन में गड़ाए... 
दोहरी ज़िंदगी जीने वाली ये औरतें 
ईश्वर की बनायी 
एक ऐसी आटोमेटिक मशीन हैं 
जो कभी भी 
सिर्फ़ पैसों के लिए काम नहीं करतीं.. 

ये सुनती हैं पास-पड़ोस की कानाफूसी से लेकर
पति की मीठी झिड़की तक
साथ ही सास के कर्कश ताने भी 
"कौन सा हमारे लिए कमाती हो "
ये बात और है कि 
अगर ये पैसे न कमाएँ.. 
तो सूखी ब्रेड पर कभी बटर न लगे.. 

ये बड़ी - बड़ी पार्टियों में 
पति का स्टेटस सिंबल होती हैं 
अगर अपनी आँखों के नीचे के काले घेरे 
पूरी कुशलता के साथ मेकअप से छुपा सकें ..

सास की भजन मंडली के लिए 
बेहतर नाश्ते के साथ 
बेहतर उपहारों की व्यवस्था कर
ये अपनी सास के गर्व का कारण बनती हैं.. 

सुबह बस पकड़ने की दौड़ लगाते समय 
जो बात इन्हें सबसे ज़्यादा परेशान करती है 
वो यह कि निकलने के पहले गैस का नाॅब बंद किया या नहीं.. 
और वापस लौटते समय 
यह परेशानी रात के खाने, सुबह के नाश्ते से लेकर
बच्चों के होमवर्क तक 
चिंता के एक पूरे ब्रह्माण्ड का सृजन करती है.. 

सुबह से सुबह की इस दौड़ में 
अगर उनकी चेतना को 
पूर्ण रूप से कोई झकझोरता है 
तो वो है सुबह का अलार्म.. 

रात एक चुटकी बजाते निकल जाती है... 
वे इतना थक जाती हैं 
कि यह भी भूल जाती हैं
कि वो क्या वजहें थीं
जिनके लिए वे नौकरी करना चाहती थीं.. 

स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई में 
स्वयं को ही गँवा देना.. 
आप ही बताइए 
ये कहाँ तक उचित है..?


#
अंतिम विदा
*********
पृथ्वी का वह बिंदु 
जहाँ उत्तरी ध्रुव मिलता है दक्षिणी ध्रुव से 
उसी जगह हुई थी
मेरी और तुम्हारी मुलाक़ात.. 

तुमसे बातें करते वक़्त 
मैंने हमेशा यह सोचा
कि मेरे जैसी लड़की को
तुम्हारे जैसे लड़के से 
कभी भी बात नहीं करनी चाहिए.. 
हो सकता है 
कि ठीक यही तुमने भी सोचा हो.. 

तभी तो हम दोनों ही अक्सर 
एक-दूसरे से ये कहते रहे 
कि ऐसी बातें सिर्फ़ तुम्हारे साथ की जा सकती हैं.. 

तुम्हारी बेबाकी मेरी पहली पसंद थी 
हो सकता है 
तुम्हें मेरा अल्हड़पन पसंद रहा हो

हाँ, मैं यह मानती हूँ 
कि प्राथमिकताओं के क्रम में हम-दोनों ही
कभी भी एक दूसरे के लिए सर्वोपरि नहीं रहे

लेकिन इस सच की स्वीकृति ही
हमारे रिश्ते का आधार थी
और हमारे संवाद 
हमारे चमत्कारिक रिश्ते की प्राणवायु.. 

ठीक उसी पल
जिस पल तुमने संवादों के पुल को तोड़ा 
हमारे रिश्ते का अंत तुमने स्वयं चुना...

मुझे अब भी लगता है 
कि प्रत्येक रिश्ता कम से कम 
एक अंतिम विदा का हक़दार अवश्य है..

#
पत्थर 
*****
मैं तुम्हारे नाम पर कविताएँ लिख कर
कुछ इस तरह छोड़ देती हूँ.. 
जिस तरह कोई मंदिर में
बुत के पैरों पर पूजा के फूल रख कर चला जाए..

क्या फ़र्क़ पड़ता है
दोनों पत्थर ही हैं...

#
अपवाद 
*******

मैंने कहा, 
"तुम्हारे होंठ काले हैं...
उफ़्फ़... कितनी सिगरेट फूँकते हो..."

उसने बड़ी बेरूख़ी से जवाब दिया,
"और तुम तो ज़िंदगी फूँकती हो... 

कमाल तो बस इतना है
कि उसके बाद भी इतनी ख़ूबसूरत हो..." 

मैं उसे कैसे समझाती, कि
व्याकरण के नियमों के भी अपने अपवाद होते हैं..

#
अदृश्य डोर 
*********

कई दिनों से देख रही हूँ
घर के पीछे
एक पुराने पेड़ पर
एक नई पतंग अटकी हुई है

हवा की दिशा में
बदलती है कोण और फलक
कभी इस डाल तो कभी उस डाल
उड़ने को बेक़रार
लेकिन उस लगभग अदृश्य डोर से बँधी
जो उस पुराने पेड़ की
डालियों में बेतरह उलझी हुई है

मुझे उस पतंग में अपना अक्स नज़र आता है.. 

नहीं मिलती
तो बस वो अदृश्य डोर...
परिचय

नाम - पूनम सोनछात्रा
शिक्षा - एम.एस.सी.,बी. एड.
व्यवसाय - दिल्ली पब्लिक स्कूल में गणित की शिक्षिका, स्वतंत्र लेखन
रेख़्ता में ग़ज़लें एवं 'अहा ज़िंदगी' सहित अन्य पत्र-पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन

आत्मा की भाषा - मंजुला बिष्ट

मंजुला गृहिणी हैं पर उनका विश्‍वास कविता पर है, भाषा पर है और यह इस हद तक है कि वे इसकी बदौलत इस कठोर दुनिया को चुनौती देने की हिम्‍मत रखती हैं। मंजुला के लिए कविता घरेलू जद्दोजहद भरी जिंदगी में जीवन का कोमल अहसास है। इन कविताओं में उस बौद्धिकता के दर्शन होते हैं जिन्‍हे मंजुला ने दैनिक जीवन की चक्‍की में पिस कर मिटने नहीं दिया है। यह बौद्धिकता उन्‍हें घर-बाहर के सूत्रों को जोड़ने, उसे नये सिरे से देखने-समझने की ताकत देती है। 

मंजुला बिष्ट की कविताएं

1)

निहत्थे का हथियार

कठोर होती इस दुनिया में 
अभी भी एक कलम इतनी उद्दात है
कि वह आपकी मुलाक़ात 
कागज़ पर एक कविता से करा देती है

जहाँ धीरे-धीरे
कविता की देह भरने लगती है
उसके भीतर ही कहीं
आप बार-बार स्वयं से स्पर्शित होते रहते हैं

अब जबकि मेरी ही तरह 
आप भी अपनी आत्मा की भाषा को लगभग भुला चुके हैं
तब यह स्पर्श 
कितना मायने रखता है न !

कविता की उमगती देह के परे
मुझे कोई एक कुंद हथियार तक नहीं दिखता है
जिसे थामकर
मैं अपने हत्यारों का सामना कर सकूँ
उन्हें अडिग-चुनौती दे सकूँ

कविता 
मेरे जैसे निहत्थे के लिए
कुछ अधिक साँसों को बचा लेने का कुशलतम हथियार है ;
बाक़ी तो..जिंदगी हर पल प्रारम्भ है ही।

2)
मृत्यु से लौटती हव्वाएँ

वह जितनी बार मुट्ठी कसकर
मरने के तरीक़े सोचती
उतनी ही बार 
एक ज़रूरी काम पुकार लेता उन्‍हें

दुःखों के बीज नाभि से निकाल फेंकती रही वह

उसे याद आती
वह एक हव्वा
जो निकली तो थी
रेल की पटरी पर लेटने को 
लेक़िन साँझ होते ही लौट आयी थी

दबे पाँव पालने के पास खड़ी हो ख़ुद को ललचाती 
"छाती से दूध उतर रहा...सूखने तक ठहर जाऊँ क्या?"

दहलीज़ के पार भले ही किसी ने 
उसे पटरी की तरफ जाते देख शक़ किया हो
लेक़िन दहलीज़ ने कभी संलग्न दीवारों तक को नही बताया
कि अमूनन हव्वाओं की छातियाँ कभी नहीं सूखती 

हव्वाओं की दूध उतरती छाती
सभी दुःख झेल जाने की असीम क्षमता रखती है

जो हव्वाएँ सन्तति को ले कुएँ में उतर गई
या जो पटरी पर पायी गयी कई टुकड़ों में ..
उन्होंने जरूर दुःखों को दिल पे ले लिया होगा
नाभि पर नहीं!

3)

भोथरा-सुख

क्यों नहीं भोथरे हो जाते हैं
ये हथियार,बारूद व तीखें खंजर
जैसे हो गई है भोथरी
धूलभरे भकार में पड़ी हुई 
मेरी आमा की पसन्दीदा हँसिया!

पूछने पर मुस्काती आमा ने बताया था
कि अब कोई चेली-ब्वारी जंगल नहीं जाती 
एलपीजी घर-घर जो पहुंच गई है।

क्या अभी तक हम नहीं पहुंचा सकें हैं
रसद व सभी जरूरी चीजें
जो एक आदमी के जिंदा बने रहने को नितांत ज़रूरी हैं
जो ये हथियार अपने पैनेपन के लिए
बस्तियों पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं।

क्यों नहीं 
कोई आमा के पास बैठकर
अपने हथियार चलाने के कौशल को
भूलकर सुस्ताता है कुछ देर
और समझ लेता है 
एक हँसिया के भोथरे हो जाने के पीछे का निस्सीम-सुख

क्या हथियार थामे हाथ नहीं जानते हैं सच
कि हत्थे पर से नहीं मिटती है रक्तबीज-छाप
हथियारे की!

हथियारों से टपकती नफ़रते
चूस लेती है सारा रक्त
राष्ट्र की रक्तवाहिनियों से;
हथियार अगर सन्तुष्ट होकर लुढ़क भी जाएं
एक खाये-अघाये जोंक की मानिंद
तो रक्तवाहिनियों में निर्वात भर जाता है

येन-केन प्रकारेण
अपने हथियारों के बाजार बढ़ाते देशों के लिए
आख़िर यह समझना इतना कठिन क्यों है कि
दुनिया के सारे हथियारों की अंतिम जगह
मेरी आमा का धूलभरा भकार है।

4)

 बगैर 'सुसाइड-नोट'

यदि मिली ख़बर के मुताबिक़
उसने कलाई नहीं काटी
चलती रेल के सामने नहीं कूदा
कनपटी पर गोली नहीं दागी
पेट मे छूरा नहीं घोंपा
खूब ऊँचाई से नहीं कूदा
फंदे से नहीं झूला
आग में पूरा जला नहीं

बस..
उसने चुपचाप निगल ली कुछ 
ज्यादा स्लीपिंग पिल्स
या खा लिया ..अन्य को भी खिला दिया
कुछ विषाक्त खाद्य-पदार्थ
बगैर छोड़े कोई भी'सुसाइड नोट'
नहीं छोड़ गया कोई जी का जंजाल
चुन ली थी
एक शांत गरिमामयी असमय मौत

तो इसका अर्थ क्या यह था कि
वह ज्यादा डरपोक था
पूर्व तरीकों से मरे
आत्महत्या करने वालों से !

क्या 
जो जिंदा विचरते हैं अभी तक
वे सचमुच
बहुत ज्यादा खुश हैं
स्वयं से व इस संसार से!

5)

 रोना निषेध है

लड़के सुनते रहे अपने पिता से
"लड़कियों की तरह क्या रोता है!"
लड़कियां भी सुनती रही अपनी माँ से
"यह लड़कियों की तरह रोना बन्द करों!"

रोना
एक तरह की सामान्य व नैसर्गिक क्रिया न होकर
स्त्रियोचित कमजोरी व अवगुण सिद्ध किया गया

लड़के को पुरूष बने रहने के लिए
कठोर बने रहना था
और लड़की को पुरुष जैसा बनने के लिए
अधिक कठोर होना था

अब तुम अफसोस करते हो कि
यह दुनिया इतनी कठोर क्यों होती जा रही है!

जबकि
सबसे आसान था
मद्धिम रोकर कोमल बने रहना।

6)

यथोचित बहन

साथिन ने बतायें थे
कुछेक किस्से
कि कैसे वह भाई की प्रेमिकाओं तक
छिटपुट-पुरचियाँ पहुंचाती रही थी
स्कूल-कॉलेज के दिनों में

वह अब भी पहचानती है
लगभग उन सभी प्रेमिकाओं के नाम-पतें
व राज़ कुछ उनके मध्य के

ये सब बताते हुए 
पहले तो लम्बी शरारती मुस्कान थिरकी
फ़िर लगा
जैसे गझिन उदासी कांधों पर उतरी आई है 

पूछा तो 
पल्लू झाड़कर उठ खड़ी हुई

अब इतनी भुलक्कड़ मैं भी नहीं 
कि याद न रख सकूँ
उसकी वो दीन-हीन कंपकँपी
जो नैतिक शास्त्र की किताब के बीच
मिले एक खुशबुदार गुलाबी ख़त से छूटी थी

जिसे सिर्फ एक बार ही देखा..
आधा-अधूरा पढ़ भी लिया था शायद
फ़िर तिरोहित किया,
ऐसा उसकी एक साथिन ने फुसफुसाया था

ऐसे अवसरों पर उसे 
भाई याद आ जाता था
"तू अगर गलत नहीं तो...पूरी दुनिया से लड़ लूँगा!"

उस गर्वोक्ति को दुहराते हुए
उसने हर बार 
प्रेम को बहुत गलत समझा
व दुनिया को प्रेम-युद्ध की मुफीद जगह!

लेक़िन भाई की प्रेमिकाओं के पते बदस्तूर याद रहें!

7)

मुहावरे की व्याख्या
एक वृक्ष 
जिसकी देह पर
कई जोड़ी उम्रदराज़ आँखें उग आयी थी
मैंने उसकी वसीयत के बाबत पूछा--

उसने पत्तियों को..वस्त्र व संदेशवाहक कहा
डालियों को..नीड़,झोपड़ी व झूलों के लिए चुन लिया
फूलों को..श्रद्धा,प्रेम,अभिनन्दन व विदा हेतु सहेजा
जड़ों को... जीवन में सम्भावना व विश्वास पुकारा 

फ़िर अंत में 
तने को..भविष्य 
व बीज को ..सगर्व उत्तराधिकारी घोषित किया

उसने मेरे सम्मुख
पुरखों के समय से लिखी यह वसीयत पढ़ी
फ़िर.. और अधिक झुककर खड़ा हो गया

तभी मनुष्य आया
उसने तने को पूरा काट डाला!

कुछ दिनों के बाद
ठूँठ पर कोपलें निकली
जिसे मनुष्य की बकरी ने चरा

और वह मनुष्य ठूँठ पर बैठ
अपनी सन्तति को
"अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना" मुहावरे की व्याख्या कर रहा था!

8)

मनचाहा इतिहास 

हर शहर में 
कुछ जगहें जरूर ऐसी छूट गयी होंगी
जहाँ मनचाहा इतिहास लिखा जा सकता था

वहाँ बोई जा सकती थी
क्षमाशीलता की ईख भरी खेती
जिन्हें काटते हुए अँगुलियों में खरोंच कुछ कम होती

वहाँ ज़िद इतनी कम हो सकती थी
कि विरोधों के सामंजस्य की एक संभावना 
किसी क्षत-विक्षत पौड़ी पर जरूर मिलती

वहाँ किसी भटकते मासूम की पहचान 
किसी आतातायी झुंड के लिये
उसके देह की सुरक्षा कर रहे धर्म-चिह्न नही
मात्र उसका अपना खोया 'पता' होता।
वहाँ किसी खिड़की पर बैठी ऊसरता से

जब दैनिक मुलाकात करने एक पेड़ आता
जो उसे यह नही बताता कि;
उसने भी अब अपने ही अंधकार में रहने की शिष्टता सीख ली है
क्योंकि उसकी देह-सीमा से बाहर के बहुत लोग संकीर्ण हो गए हैं

लेक़िन ..
इतिहास के हाथ में बारहमासी कनटोप था
जिसे गाहे-बगाहे कानों पर धर लेना 
उसे अडोल व दीर्घायु रखता आया है

शहर की कुछ वैसी ही जगहें
अभी तक 'वर्तमान' घोषित हैं
मगर कब तक...!

9)

 उम्मीद बाक़ी है

होश सम्भालते ही 
धरा के हर हिस्से की बाबत
मुझे यही ताक़ीद किया गया कि
"हर रोज़ सूरज के डूबने का अर्थ--घर लौट आना है
उसके बाद किसी पर-पुरूष का कोई भरोसा ही नहीं है!"

अब आप समझ सकते हैं कि
मेरी ज़ात
दुनिया पर भरोसा करते रहने के लिए
सूरज के उगने का कितना इंतजार करती है!

और क्या आप यह समझ सकते हैं कि
हमारे लिए अँधेरें के बाद 
किसी पर किया जाने वाला भरोसा
कितनी दुर्लभ घटना है!

अगर मैं यह कहूँ कि
मेरी ज़ात सिर्फ व सिर्फ अँधेरे से डरती है
तो उन तमाम अव्यक्त थरथराहटें का क्या?

जो उनके भीतर 
उजाले को देखकर भी पैदा होता है
घर के परदों की घनी मोटाई के पीछे
वे अपने हिस्से के अँधेरें को रोज़ गाढ़ा करती हैं।

अँधेरे-उजालों में अपने भय को रोज़
घटाती-बढ़ाती मेरी हमजातों 
की कमर कसते रहने की सौ जिद को
आप भले ही ऐतिहासिक पल का दर्जा देने लगे हों

लेक़िन 
मैं अभी भी उसे इतिहास पुकारने का पाप नहीं करना चाहती।

10)

कपड़े व चरित्र

उनके पास कपड़े थे
किसी के पास ढेर सारे
तो किसी के पास बनिस्पत कुछ कम
जिन्हें पहनकर निकलने पर
कुछ लोगों ने उन्हें नग्न कहा

और जिन लोगों ने नग्न कहा
उनके पास भी खूब कपड़े थे
तो किसी के पास बनिस्पत कुछ कम
जिन्हें पहनकर निकलने पर
उन्हें कोई नग्न नहीं कह सकता था

फिर हुआ यह कि
कपड़ों व चरित्र के मध्य नैतिक जंग छिड़ गई
यह ज़ुबानी जंग धीरे-धीरे उनकी देह-आत्मा पर उतर आई...

अब 
हालात यह है कि
पहले वे पायी जाती थीं
अधमरी या पूरी तरह गला घोंटी हुई
रेल-पटरियों पर कटी-फटी 
गीली सड़ी-गली लाश के रूप में

अब वे बरामद होने लगीं हैं
अधजली...या पूरी तरह जिंदा भुने हुए गोश्त के रूप में
जिनकी चिरमिरायी गन्ध से मानसिक-विचलन तो है
कि हमारी गेंद किस पाले में होनी चाहिए

लेकिन सबकी पीठ
धरा पर बढ़ते जा रहे
इन जिंदा सुलगते श्मशानों की तरफ़ है
हमारी व्यक्तिगत-प्रतिबद्धताएं मुँह बाये खड़ी है..!

प्रतीक्षा करें!
शीघ्र ही...हम सब 
फ़िर अगली तीख़ी नैतिक-ज़ुबानी जंग हेतु लामबंद होंगे!        

            
          

परिचय

गृहणी,स्वतंत्र -लेखन
कविता व कहानी लेखन में रुचि
उदयपुर (राजस्थान)में निवास

रचनाएँ -
हंस ,अहा! जिंदगी,विश्वगाथा ,पर्तों की पड़ताल,माही व स्वर्णवाणी पत्रिका में, दैनिक-भास्कर,राजस्थान-पत्रिका,सुबह-सबेरे,प्रभात-ख़बर समाचार-पत्र में व समालोचन ब्लॉग,हस्ताक्षर वेब-पत्रिका ,वेब-दुनिया वेब पत्रिका व हिंदीनामा ,पोशम्पा ,तीखर पेज़ व बिजूका ब्लॉग में रचनाएँ प्रकाशित हैं।