तुम्हारी ट्रेन चली जा रही है
कोइलवर पुल पर
छुक छुक करती
और एक लडका
दूर इधर नदी के पार
हाथ हिला रहा है तुम्हें
दूर से तुम्हें वह लाल झंडे सा दिख रहा होगा
और तुम चिढ रही होगी
कि तुम्हारा यह प्यारा रंग उसने क्यों हथिया लिया है
पर उसने हथियाया नहीं है यह रंग
यही उसका असली रंग है
इस व्यवस्था की शर्म में डूबकर
लाल हुआ हाथ है वह
ओर इस पूरे शर्मनाक दृश्य को
अपने क्षोभ से भिंगोता हुआ
यह रक्तिम हाथ हिला जा रहा है
इधर तट पर नावें हैं
किनारे से लगी हुयी
इन्हें कहीं जाना भी है
पता नहीं
पर तुम्हारी यह ट्रेन तो चली जा रही है
ये रक्तिम हाथ उसे रोकने को नहीं उठे हैं
वे बस हिल रहे हैं
इस खुशी में कि
तुमने इन हाथों का दर्द समझा
और शर्म से लाल तो हुयी
फिर तो फिराक को पढा ही है तुमने
हुआ है कौन किसी का उम्र भर फिर भी ....
यूं यह फिर भी तो
उम्र भर
परेशान करता ही रहेगा...
3 टिप्पणियां:
ये रक्तिम हाथ उसे रोकने को नहीं उठे हैं...
फिर तो फिराक को पढा ही है तुमने
हुआ है कौन किसी का उम्र भर फिर भी ....
-बहुत उम्दा!
अच्छी कविता ..शिल्प और कथ्य दोनों की दृष्टि से.
एक टिप्पणी भेजें