तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे है
लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी '
‘अकेला तू तभी ’ कविता की ये पंक्तियाँ ठेठ देसी मिजाज के कवि वीरेन डंगवाल के मूल स्वर का परिचय देती हैं। विष्णु खरे के बाद जिस तरह हिंदी कविता में मानी-बेमानी डिटेल्स बढ़ते जा रहे थे और कविता के कलेवर में मार तमाम तरह की गदहपच्चीसियाँ जारी हैं, वीरेन की छोटे कलेवर की कविता कटु-तिक्त बीज की तरह हैं। हिंदी कविता के लिए वीरेन नये प्रस्थान बिंदु की तरहे हैं। मेधा की दुर्जयता के टंटों के इस दौर में ऐसी हरकतों से खुद को दूर रखते हैं वे। बड़ी और महान कविता रचने से ज्यादा वह बड़ी जमात की बात कहने में विश्वास रखते हैं। बड़प्पन का घड़ा वह हर जगह पटक कर फोड़ते दिखाई देते हैं। ‘रात-गाड़ी’ कविता में वह लिखते हैं -
' इस कदर तेज वक्त की रफ्तार
और ये सुस्त जिंदगी का चलन
अब तो डब्बे भी पाँच एसी के
पाँच में ठुंसा हुआ, बाकी वतन...'
इस ‘बाकी वतन ’ की चिंता वीरेन के यहाँ हर जगह देखी जा सकती है। पहले संग्रह की पहली कविता ‘ कैसी ज़िंदगी जिएँ ’ जो इस संकलन की भी पहली कविता है में ही उन्होंने लिखा था -
' हवा तो खैर भरी ही है कुलीन केशों की गंध से
इस उत्तम बसंत में
मगर कहाँ जागता है एक भी शुभ विचार
खरखराते पत्तों में कोपलों की ओट में
पूछते हैं पिछले दंगों में कत्ल कर डाले गए लोग
अब तक जारी इस पशुता का अर्थ...'
और यह पशुता जारी है आज भी, परंपरा और राष्ट्रवाद के नाम पर और बाद की कविताओं में भी कवि का संघर्ष जारी है, इस पशुता के खिलाफ, उसके छद्म रूपों के खिलाफ।
इस व्यवस्था से गहरी चिढ़ है वीरेन को, क्योंकि वह किसी के मन का कुछ होने नहीं देती और कवि दुखी हो जाता है कि -
'...झंडा जाने कब फुनगी से निकलकर
लोहे की अलमारी में पहुँच जाता...
इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक
कभी असल झंडा...'
असली झंडा ना छू पाने की यह जो कचोट है कवि के मन में, यह आम जन की टकटकी का रहस्य खोलती है। यह टकटकी, जो मुग्धता और तमाम विशिष्टताओं को पा लेने की, उन्हें मिसमार कर देने की हिंसक चाह के बीच झूलती रहती है। यह जो टकटकी है, निगाह है कवि की, झंडे से प्रधानमंत्री के पद तक की बंदरबांट कर लेने की, वह बहुतों को नागवार गुजरती है। खासकर हिंदी के चिर किशोर व नवल आलोचकों को, जिन्हें बेरोजगारी से ज्यादा, बेरोजगारों द्वारा समीक्षा का स्तर गिराए जाने की बात परेशान करती है। यहाँ हम उन तथाकथित आलोचकों को भी याद कर सकते हैं, जो इससे पहले नागार्जुन में इस लुंपेन मनोवृत्ति को चिन्हित करते रहे हैं, दरअसल ऐसी फिकराकशियाँ उस अभिजात, अकादमिक विशिष्टता बोध से पैदा होती हैं, जो खुद को अलग और खास बतलाने-दिखलाने की कोशिश करते हैं।
धूमिल ने कभी तीसरे आदमी के सवाल पर संसद के मौन को लेकर आवाज बुलंद की थी। ‘सभा’ शीर्षक छोटी-सी कविता में वीरेन भी एक संजीदा सवाल उठाते हैं -
' भीतरवालों ने भितरघात किया
बाहरवालों ने बर्हिगमन
अध्यक्ष रूठे कुछ देर को
संविधान के अनुच्छेदों के निर्देशानुसार
सदन स्थगित हुआ
भत्ता मगर मिला सबको...'
आखिर जब सदन अकारण स्थगित कर दिया जाता है, तो फिर भत्ता क्यों नहीं स्थगित होता है।
वीरेन डंगवाल की कविताओं में ‘रामसिंह’ चर्चित रही है। इस संकलन में भी उसके वजन की दूसरी कविता नहीं है। फौजियों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करने वाली यह कविता मनुष्यता के पक्ष में बड़ी मुहिम की तरह है। ब्रेख्त ने एक चर्चित कविता में लिखा था, चेतावनी के स्वर में -
' जनरल, बहुत मजबूत है तुम्हारा टैंक
लेकिन इसमें एक दोष है
इसे एक आदमी की जरूरत है
जनरल, आदमी बहुत उपयोगी जीव है
लेकिन उसमें भी एक दोष है
वह सोच भी सकता है।'
‘रामसिंह’ कविता में वीरेन ने इसी एक आदमी की संभावनाओं को अभिव्यक्त किया है। वीरेन जानते हैं कि अगर यह आदमी विचार करने लगता है, सोचने लगता है तो बुश जैसे दिवालिया महानायकों की मंशा फुस हो सकती है, जो अफगानिस्तान, इराक के बाद अब ईरान के लोगों का इलाज करने की फिराक में लगा है। ‘रामसिंह’ की पंक्तियाँ हैं -
' तुम किसकी चाकरी करते हो रामसिंह?
तुम बंदूक के घोड़े पर रखी किसकी उंगली हो?...
...कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढ़ते रहते हैं
...वे तुम्हें गौरव देते हैं और इस सबके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हुई
लड़कियों से बचपन में सीखे गए गीत ले लेते हैं...'
ऐसा नहीं है कि वीरेन ‘रामसिंह’ को लड़ाई के मोर्चे से भाग जाने को कहते हैं, बल्कि वे उसे सही मोर्चों पर जाने को कहते हैं, जहाँ लोग बर्फ के खिलाफ इकट्ठे होते हैं, जहाँ आदमी हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ता है। वह ‘रामसिंह’ को याद दिलाते हैं -
' याद करो कि वह किसका खून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलाने से पहले हर बार?
कहाँ की होती है वह मिट्टी
जो हर रोज साफ करने के बावजूद
तुम्हारे भारी बूटों से चिपक जाती है?'
ऐसा नहीं है कि वह अपनी माटी से, धरती से प्यार नहीं करते, वे उसे माटी का ढेर नहीं, कल्याणी पुकारते हैं। पर छद्म राष्ट्रवाद या आतंकवाद के नाम पर अंध उन्माद में खून बहाने को वह सहन नहीं कर पाते। वह मरने-मारने को बहादुरी नहीं मानते। उनके लिए बहादुर वह है, जो जीवन के पथ की बाधाओं को हटाने में अपने प्राण लगा देता है।
वीरेन की कविताओं का एक पहलू उनका मनमौजीपन भी है, जैसे कि कुछ विषयों पर वह झख मारकर कुछ लिख देते हैं, तो फिर लिख देते हैं, उस पर विचार नहीं करते। जैसे ‘कवि-2’ में वह लिखते हैं -
' मैं पपीते को
अपने भीतर छिपाए
नाजुक खयाल की तरह...'
फिर ‘पपीता’ कविता में वह लिखते हैं -
'असली होते हुए भी नकली लगता है उसका रंग
पेड़ पर रहता है तो भी मुँह लटकाए...'।
इस तरह की चीज़ें दुनिया को ठेंगे पर रखने की मनोवृत्ति से भी पैदा होती हैं। फिर ठेंगे पर रखने की झख ऐसी, कि वीरेन खुद को भी ठेंगे पर रखने से बाज नहीं आते। इस मनोवृत्ति के पीछे हम एक चिर जिज्ञासु मानस को भी देख सकते हैं। जो किसी भी तरह की यथास्थिति को बर्दाश्त नहीं कर पाता।
आज की हिंदी कविता संदर्भहीनता का आख्यान बनती जा रही है। सारे युवा कवि कविता के नाम पर विचार बुक कर रहे हैं, वह भी केवल सामने वाले के बारे में। उनको पढ़कर कवि के परिवेश का, उसकी पसंद-नापसंद का, उसके खान-पान, रहन-सहन का कुछ पता नहीं चलता। नतीजा पाठकों के जेहन में उनकी कोई तस्वीर नहीं बनती। कविताएँ क्षणिक भावोत्तेजना का बायस बनकर फुस्स हो जाती हैं। वीरेन की कविताएँ इस मामले में अपवाद-सी हैं। ‘गाय’, ‘जलेबी’, ‘चूना’, ऐसी ही कविताएँ हैं, जो बताती हैं कि जीवन बस एक महान विचार मात्र नहीं है, वह इन छोटी-बड़ी-ज़रूरी-गैर ज़रूरी चीज़ों का समुच्चय भी है।
कुछ कविताएँ वैदिक देवताओं को लेकर लिखी हैं, वीरेन ने। ये हिंदी में वैदिक ऋचाओं-सी हैं। वैदिक काल की ऋचाओं की सहजता को समझने में ये सहायक हो सकती हैं।
‘मेरी नींद में अपना गरम थूथन डाले/पानी पीती थी एक भैंस’। बुखार के पाले कौन नहीं पड़ता, पर उसे इस तरह भाषा में कितने कवि ला पाते हैं। ये कुछ खूबियाँ हैं वीरेन की, जो उन्हें अलहदा साबित करती हैं।
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