10 फरवरी, 1967 को हाजीपुर, जहानाबाद में जन्मे अमरेन्द्र कुमार पेशे से प्राध्यापक और स्वभाव से 'फक्कड़' कवि हैं। फक्कड़ ऐसे कि वर्षों तक कविता लिखना तक भूल जाते हैं। महावीर हनुमान की तरह उन्हें उनकी स्वयं की 'प्रभुता' का स्मरण कराना होता है। एक खास तरह की 'दीनता' से भरे रहते हैं वे।
अमरेन्द्र कुमार से परिचय पुराना है। उनकी कविताओं से भी। मैं जब कभी उनके घर जाता तो उनकी डायरी खुलती और कविताओं का पाठ होता। वे अपनी कविताओं को लेकर तब भी बहुत संकोची थे। आज भी कोई खास मुखर नहीं हुए हैं, किंतु उनकी कविताएं चुप लगाना नहीं जानतीं। बातचीत में चुप की मर्यादा का पालन करनेवाले अमरेन्द्र कुमार कविताओं में काफी प्रखर रूप धारण करते हैं। उनकी कविताओं में न नारे हैं, न फतवे, बहुत छोटी-छोटी चीजों के सहारे प्रतिरोध का संसार रचते हैं वे।
उनकी कविता में चिड़ियाँ हैं, मथानी है, तो बच्चों के खिलौने भी हैं। ये बिम्ब और प्रतीक कब रोटी, गरीबी, बेरोजगारी और बच्चों की यातना में बदल जाते हैं, पता ही नहीं चलता। उनकी कविताओं में प्रकृति है और सौंदर्य की चाह है, नहीं है तो बड़बोलापन। वे कविता में अपनी बात सीधे-सीधे नारों और फतवों से नहीं बल्कि शब्दों के बाँकपन से कहते हैं - डॉ राजू रंजन प्रसाद
अमरेन्द्र कुमार की कुछ कविताएं -
छिन्न-भिन्न
चीन! चीन!! चीन!!!
हम दुखी
हम दीन
जल बिना जैसे मीन!
बातचीत-बातचीत
बात-बात मे
हुए चित्त
समझ मत श्रीहीन!
न उत्तर
न प्रतिउत्तर
एक क्या हुए तीन?
अर्थ बिना
कौन समर्थ?
फूँक मत व्यर्थ बीन!
कमर कस
बन सबल
अलख जगा नूतन-नवीन
चीन!चीन!!चीन!!!
बेहोशी के बाद
जकड़ी बीमार चूलें
हिल रही हैं!
सिर धुन रही है हवा
हहास करती!
क्षितिज को मथ
उमड़ कर
गगन को घेरने में लगा है-
बेचैन बादलों का
काला समंदर!
सो कर-
अभी-अभी तो
जगा है जीवन!
ठक-ठक-ठक
ठक-ठक -ठक
यहां कौन रहता है?
पग ध्वनि हुई नहीं
नहीं बजी सांकल
ठक-ठक-ठक
यहां ताला क्यों लटका है?
क्या यहां अंदर होना
नहीं होना है?
यहां कौन रहता है?
दुख!
रोग!
या सिसकी!
ठक-ठक-ठक
इस निस्तब्ध समय की
जंग लगी सांकल पर
बज सकता है कोई हथौड़ा?
हँसी का!
खुशी का!
कोलाहल का!
ठक-ठक-ठक!
भय
अँधेरा है बहुत!
और पलकों मे घर किए हुए
नींद भी
जमी हुई बर्फ-सी!
खर्राटों की धुन पर
नाचती हुई
चुप्पी भी!
दूर,बहुत दूर
आकाशगंगा की लहरों मे
हल्की मद्धिम टिमटिम की
हिलती परछाईं -सी
एक फुसफुसाहट!
चलो,कोई है
जो आँखों मे आँखें डाल
शुरू से आखिर तक
खड़ा तो है
बुझने से पहले तक!
कविता
हर रोज एक बुलबुला
जरूर रचता हूँ!
भय का, दुख का, ग्लानि का
साहस का, जीवन का...
एक बुलबुला
जो फूट कर
बन जाता है- पानी!
हर रोज एक बुलबुला रचता हूँ पानी का!
हर रोज कोई रचता है रात -दिन
एक एटम बम -
भूख का, गरीबी का, नाश का
दुस्साहस का, मृत्यु का...
जो फूट कर
बन जाता है - अँधेरा!
उनसे कोई क्यों नहीं पूछता?
कोई क्यों नहीं लेता
हमारे रिसते हुए घावों का हिसाब?
जीवन
मेरा जन्म
श्मशानों मे हुआ है
मैं डरते-डरते
बड़ा हुआ हूँ
मैंने वहां प्रेम को रोते देखा है-
जार-जार!
मैं बस्ती मे बने
घरों मे रहना चाहता हूँ
लोगों के बीच!
लोगों के साथ!
मैं आँखों के रास्ते
हृदय की गहराई में उतर कर
उसकी घनी छाँह मे
सुस्ताना चाहता हूँ-
पल-दो-पल!
क्योंकि मैं जीवन हूँ
असंग,
असहाय,
बेघर!
चट्टान पर उगते सपने
हम मुँह खोल ही नहीं सकते
इसलिए कुछ सपने खड़े ही नहीं हो पाते
क्योंकि उनके पाँव नहीं होते
जैसे - सुकून से जीने के सपने!
हम बोलते ही रहते हैं
बोलते ही रहते हैं बिना थके
इसलिए कुछ सपने मुँह के बल गिर पड़ते हैं
क्योंकि इनके पाँव कहने के लिए होते हैं
जैसे-परिवर्तन के सपने!
हम आँख खोल ही नहीं सकते
इसलिए कुछ सपने जमे ही रहते हैं
दरवाजे के ठीक बीचोबीच
जैसे - मृत्यु और भय के सपने!
बैठे रहते हैं धरती की छाती पर
जैसे - बैठे रहते हैं भीमकाय पर्वत
काश! हम चला सकते अपने हाथ!
तोड़ पाते कोई चट्टान!
बना पाते कहीं कोई रास्ता!
मुतिया के राम
कबीर!
अगर राम नहीं होते
तुम कहाँ जाते?
कबीर!
अगर तुम नहीं होते तब
अगर तुम नहीं होते तब
राम कैसे होते?
राम ने मुतिया को सम्मान देना कबूल लिया
बदले मे
मुतिया ने भी उनकी रस्सी की फाँस
अपने गले मे डाल ली
और डाले रखा आखिरी साँस तक
कितनों ने धिक्कारा!
कितनों ने फटकारा!!
पत्थरों की वर्षा के बीच तुम
लहूलुहान घूमते रहे
रात-दिन
सोते-जागते
उस राम के लिए जिसके मन मे
मुतिया के लिए प्यार था!
मुतिया जब तक रहा
राम भाग नहीं पाए
मुँह फेर नहीं पाए
मुतिया ने रंग रखा था उन्हें
अपने ही रंग मे
मुतिया जब तक रहा
राम उसके ही रहे!
मुतिया के जाते ही
लूट मच गई
कारोबारी उठा ले गए उसके राम को
राम ने भी मुँह फेर लिया
अब राम
मुतिया के राम नहीं रहे!
मुतिया! अब तेरे राम
बदल गए हैं
मुतिया ! अब तेरे राम
रोज-रोज बदलते जा रहे हैं
मुतिया! अब तेरे राम
राम नहीं रहे।
कंगाल होती धरती
खेत बंजर होते जा रहे हैं
लेकिन, भूख बंजर नहीं हो सकती
बंजर होती भूख भड़कती है
और भड़कती भूख की आग
कुछ भी चबा सकती है-
कुछ भी!
जल स्रोत सूखते जा रहे हैं
लेकिन प्यास नहीं सूख सकती
सूखती प्यास भड़कती है
भड़कती प्यास की चाह-
कुछ भी जला सकती है
कुछ भी!
धरती कंगाल होती जा रही है
लेकिन इच्छाएँ कंगाल नहीं हो सकतीं
कंगाल होती इच्छाएँ भड़कती हैं
भड़कती इच्छाएँ सब कुछ मिटा सकती हैं
सब कुछ!
हवा
हवा को चलने दो
उसके पैरों मे पत्थर मत बाँधो
ताकि परिंदे उड़ सकें
और हमारे बच्चे भी
हवा को हँसने दो
ताकि बची रहे हमारी हँसी
और सलामत रहे
हम सबकी गुदगुदी
हवा को जीने दो
ताकि फूल खिल सके
और बदरंग ना हो
हमारे सपनों की
थोड़ी - सी दिल्लगी
हवा को चलने दो।
गुलजार की कविता धूप को आने दो पढ़ने के बाद।
1 टिप्पणी:
Bahut sundar likhe ho Amrendra. Very proud!
एक टिप्पणी भेजें