रविवार, 3 सितंबर 2023

कला आकलन और आब्‍जर्वेशन में है - हिम्‍मत शाह

हिम्‍मत शाह से कुमार मुकुल की बातचीत

1933 में लोथल गुजरात में जन्‍मे और जयपुर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले हिम्‍मत शाह कला के क्षेत्र में विश्‍वविख्‍यात नाम है। जग्‍गूभाई शाह के शिष्‍य श्री शाह मध्‍यप्रदेश सरकार के कालिदास सम्‍मान, साहित्‍यकला परिषद अवार्ड, एलकेए अवार्ड, एआइएफएसीएस अवार्ड दिल्‍ली आदि से सम्‍मानित हो चुके हैं। भारत सरकार के एमेरिट्स फेलोशिप सहित कई फेलोशिप के तहत उन्‍होंने काम किया है। लंदन, दिल्‍ली, मुंबई सहित तमाम जगहों पर उनके कला कार्यों की प्रदर्शनियां लगती रही हैं। जवाहर कला केंद्र में नवंबर-दिसंबर 2017 में उनके काम को प्रदर्शित किया गया था। उसी दौरान उनसे यह बातचीत की गयी।

प्रस्‍तुत हैं श्री हिम्‍मत शाह से कुमार मुकुल की बातचीत के अंश -


कला आकलन और आब्‍जर्वेशन में है - हिम्‍मत शाह



आपका कला की ओर रूझान कैसे हुआ
? यह विचार कैसे आया कि चित्रकारी की जाए ?

ऐसा कोई विचार कर चित्रकारी की ओर नहीं गया मैं। मन खाली सा लगता तो चित्र बनाने लगा। पढने का पैसा नहीं था, तो पड़ोसी मकान में चूना करता तो मैं उसकी तगाड़ी उठा उसकी मदद करता, उसे दीवार रंगता देखता।

फिर एक दोस्‍त के साथ दिल्‍ली आ गया। इस बीच जहां- तहां रेखाएं खींचने की आदत लग चुकी थी। दिल्‍ली में मित्र जे स्‍वामीनाथन एक बार मुझे लेकर मैक्सिकन कवि ऑक्‍टोवियो पॉज के पास गए। पॉज नोबल से सम्‍मानित हो चुके हैं। उन्‍होंने मेरे बनाए चित्र देखे तो उसकी सराहना की। तब मुझे अंग्रेजी आती नहीं थी तो उनकी राय से अंग्रेजी के क्‍लास कर कामचलाने भर अंग्रेजी सीखी मैंने। पॉज ने ही पेरिस घूमने को फेलोशिप की व्‍यवस्‍था करायी। 1966 में मैं पेरिस-लंदन घूमा। पिकासो, मार्टिस, बराक का काम देखा। वहां के म्‍यूजियम देखे, आर्ट क्‍लासेज भी किये। वहां महीनों रहा मैं।

क्‍या मौलिकता जैसी कोई चीज होती है, या हम किसी परंपरा में विकसित होते रहते हैं?

एकदम, मौलिकता होती है। जन्‍म पहली मौलिक रचनात्‍मकता है। रचनात्‍मकता का संबंध दिमाग से नहीं दिल से है। मैं किसी चीज की नकल नहीं करता। अब एक फूल है तो मैं कितनी भी कोशिश करूं उसकी नकल नहीं कर सकता। इसलिए मैं प्रकृति जैसी शक्‍लों को आकार देने की कोशिश करता हूं। बाढ में जब कोई घर गिरता है तो वह मुझे जीवित और रचनात्‍मक लगता है, मैं उसे फिर अपनी रचना में लाना चाहता हूं।

एक तस्‍वीर में आपने लकडि़यों का ढेर जमा किया है और पीछे आकाश की पृष्‍ठभूमि है और एक ओर आप भी हैं। यह इंस्‍टालेशन बांधता है दर्शक को।

हां, एक फोटोग्राफर मित्र के साथ रेगिस्‍तानी निर्जन इलाके में महीनों रहा। इधर-उधर बिखरी लकडि़यों से खेलता उन्‍हें मनमर्जी से रखता गया। वही फिर अपना वर्क कहलाया। कुछ लोग मेरी कला को चोरी कहते हैं, कि उसने क्‍या किया, कुछ किया नहीं और आर्टिस्‍ट बन गया।

अपने देश, परंपरा के बारे में क्‍या सोचते हैं आप ?

यूं तो यह देश गुरू परंपरा का देश कहलाता है। पर अब सचेतनता नहीं रही। पश्चिम में लोग इतिहास सचेत हैं। वे लोग हमारी चीजों को भी बचाकर रखे हैं। पेरिस म्‍यूजियम देखा तो भारत की सुंदरता का पता चला। रूसो का वर्क भी अदभुत था। आज सारा विकास उनका है। हम उनका यूज करते हैं और अहंकार में रहते हैं, क्‍या कहते हैं, आत्‍मशलाघा है बस। यूं मैं परंपरा को नहीं मानता, जीवन की गति मुख्‍य है।

विश्‍व के रचनाकारों में आपको कौन प्रिय हैं और भारतीय रचनाकार...? भारतीय विचारकों में किससे प्रभावित हुए आप ?

मुझ पर किसी का प्रभाव नहीं। मैं बुद्ध को पसंद करता हूं। अप्‍प दीपों भव, महान कथन है उनका। महावीर ने, तीर्थंकर ने भी कहा कि किसी की शरण में मत जाओ। किसी का फलोवर नहीं मैं।

दॉस्‍तोयेवस्‍की, चेखोव, टाल्‍स्‍टाय, पुश्किन आदि को फिल्‍मों के माध्‍यम से जाना मैंने। दॉस्‍तोयेवस्‍की के लेखन के आगे गीता, बाईबल, कुरान सब फीके लगते हैं मुझे। अपने यहां प्रेमचंद, टैगोर बड़े लेखक हैं, गुलाबदास हैं। गांधी का तो जीवन ही मिरैकल, चमत्‍कार है। वॉन गॉग ग्रेट आर्टिस्‍ट था, उसके पत्र बहुत अच्‍छे लगे। पिकासो की अपनी जगह है। सदियों में पैदा होते हैं ऐसे एकाध।


आपने इंस्‍टालेशन
, चित्रकारी,मूर्तिकारी आदि कला के तमाम क्षेत्रों में हाथ आजमाया है, पर इनमें आपको प्रिय क्‍या है?

टेराकोटा के काम में, मिटटी के काम में मुझे मजा आता है। फिर ब्रांज पर काम करना भी पसंद है। यूं जो भी काम मुझे अच्‍छा लगता है मैं करता जाता हूं। यह नहीं सोचता कि लोग क्‍या कहेंगे, बस करते जाता हूं।

कवि आक्‍टोवियो पॉज के बारे में बताएं। उनकी संगत कैसी रही।

पॉज बड़ा पोएट हैं। आदमी सिंपल और अच्‍छा थे। मुझे अपनी बात रखनी नहीं आती थी फिर भी वे मुझे सुनते थे। हंसते भी थे। वे बोलते थे - आई लव इंडिया, कि संभावना है तो इस मुल्‍क में है। पर आज जो कुछ हो रहा, मुझे तो कोई संभावना नहीं दिख रही अब।

अन्‍य कलाओं, भारतीय संगीत आदि के बारे में आपकी क्‍या रूझान है ?

जो भारतीय संगीत को नहीं जानता, वह भारत को नहीं जानता। अमीर खान, किशोरी अमोनकर, अली अकबर, फैयाज खां, ग्‍वालियर घराना, पटियाला घराना के संगीतकारों को सुनता रहता हूं। कुमार गंधर्व, भीमसेन जोशी, अजीत चक्रवर्ती, कौशिकी चक्रवर्ती, जोहरा बाई सबको सुनता हूं।

आज की कला, कलाकारों और जीवन के दर्शन के बारे में आप क्‍या सोचते हैं ?

आज अधिकतर कलाकार करियरिस्‍ट हैं। पर मैं सहजता को मानता हूं। साधो सहज समाधि भली, कितनी बड़ी बात है। सरहपा ने भी सहजयोग की बात की। स्‍मृति मुख्‍य है। कला आकलन में, आब्‍जर्वेशन में है। पश्चिम के लोग कला के कद्रदां हैं, भारत में नहीं हैं वैसे लोग।

हमें प्रकृति के रंग पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए। पूरा देखना होना चाहिए। इसके लिए साधना की जरूरत होती है। मोलोराय कहते हैं - करेज टू क्रियेट। पर आज सब फोटोछाप हो गया है, छिछली बातें हो रही, सब सतह पर तैर रहे।

कला स्‍वांत:सुखाय होती है। सौंदर्य वह है जो हमें अभिभूत करता है। रचनात्‍मकता दर्शन के आगे की चीज है, चेतनता सर्वोच्‍च अवस्‍था है। खुशी उसका बायप्रेाडक्‍ट है।

हर बच्‍च मुझे रचनात्‍मक लगता है। पर हम उसे दखे नहीं पाते। हमारा समाज बच्‍चों की क्रियाशीलता को रचनात्‍मकता को मार देता है। कल्‍पना बड़ी चीज है, पर हम बच्‍चे की कल्‍पना को मार देते हैं। अनुशासन, राष्‍ट्र यह सब बकवास है। स्‍कूल से निकलते बच्‍चों का शोर सुनो, उससे बड़ा संगीत क्‍या है? हम हिप्‍पोक्रेट और दिखावे के समाज की उपज हैं।

हम व्‍यर्थ से घिरे हैं, जीवन से व्‍यर्थ को हटाओ, इसके लिए बड़ी ताकत चाहिए। पर आज तो जीवन ही नहीं है। जीवन जीओ, तो विजडम मिलेगा। कृष्‍ण, पिकासो लाखों साल का विजडम लेकर आए थे। आंद्रे बेतें, सार्त्र, कामू ऐेसे रचनाकार हमारे यहां एक भी नहीं। रजनीश बड़ा मेधावी था। वह कहता है - फ्लाई विदाउट विंग्‍स, वाक विदाउट लेग।

रचना विद्रोह है, रिबेल है। कबीर विद्रोही थे, वैसा बेलाग कोई नहीं बोला। बुद्ध भी नहीं। मीरा, बुद्ध, कबीर सब तीर्थंकर थे। बुद्ध के यहां करूणा की पराकाष्‍ठा है, क्‍या बात है, है कि नहीं, क्‍या ....? कालिदास, लियोनार्दो दा विंची की तरह रचनात्‍मक कौन है ?

शनिवार, 2 सितंबर 2023

प्रतिरोध का स्त्री-स्वर कुछ नोट्स


वरिष्ठ कवि सविता सिंह के संपादन में आए 'समकालीन हिंदी कविता' में 'प्रतिरोध का स्त्री स्वर' से गुजर गया एक बार। अच्छा लगा कि संकलन के आधे से अधिक कवियों से मैं ढंग से परिचित नहीं था। कुछ से फेसबुक तक ही सीमित परिचय था तो इस किताब ने उनके रचनाकर्म से अपरिचय समाप्त किया।

यह कविताएं बताती हैं कि कोई भी समय गूंगा नहीं होता। जवाब मिलता है, हर आतंकी सत्ता को जवाब मिलता है। संकलन में वर्तमान दशक में सत्ता की जन-विरोधी गतिविधियों का प्रतिकार करती और उन पर तार्किक सवाल उठाती कविताएं हैं। 

संकलन में रचनाकारों के लिए 'कवि' और 'कवयित्री' दोनों शब्दों का प्रयोग है। कवयित्री की जगह कवि शब्द के प्रयोग पर जोर दिखता है आजकल, आधुनिक स्त्री-विमर्श के लिहाज से यह उचित भी है। फिर कवयित्री उलझन में भी डालता है लोग अक्सर कवियत्री लिख डालते हैं। खैर, मुझे लगा कि केवल कवि शब्द का ही प्रयोग अच्छा रहता और स्त्री-स्वर कहना भी कवयित्री लिखने की तरह अर्थ को सीमित करता है। 'प्रतिरोध के स्वर' लिखना ही पर्याप्त होता। पुस्तक में कुल बीस कवि संकलित हैं। प्रस्तुत हैं उनपर कुछ नोट्स -

संकलन का आरंभ वरिष्ठ कवि शुभा की कविताओं से होता है। शुभा का स्वर गहन बौद्धिक है, पर उनकी संवेदना ज्ञान से पुष्ट है, इसलिए वह वृथा चुनौती नहीं देती, बल्कि आपकी आँखें खोल आपको आपके निज के दर्शन कराती है -

वे लिंग पर इतरा रहे होते हैं 
आख़िर लिंग देखकर ही 
माता-पिता थाली बजाने लगते हैं
दाइयाँ नाचने लगती हैं 
लोग मिठाई के लिए मुँह फाड़े आने लगते हैं...।

संग्रह में सर्वाधिक पन्ने शोभा सिंह को दिए गए हैं। शोभा सिंह के यहां सहज विवरण हैं जीवन के, और संघर्ष की मिसाल बन चुकी स्त्री चरित्रों के चित्र हैं, बिलकिस बानो से लेकर गौरी लंकेश तक। औरत बीड़ी मजदूर शीर्षक एक कविता है शोभा की जिसमें बीड़ी मजदूर का त्रासद जीवन दर्ज है। संघर्ष स्थल का प्रतीक व दस्तावेज बन चुके 'शाहीन बाग' पर कई कविताएं हैं संग्रह में शोभा लिखती हैं -

इसी मिट्टी में दफ़न हैं हमारे पुरखे 
यह मिट्टी 
दस्तावेज़ हमारा ।

निर्मला गर्ग की कविता का चेहरा वैश्विक है। अपने समय की मुखर आलोचना है उनके यहां। उनकी छोटी कविताएं मारक हैं -

मूर्तियो!
तुम ही कर दो इंकार 
स्थापित होना
फिर प्रवाहित होना
नहीं चाहिए आस्था का यह कारोबार!

कात्यायनी के यहां संघर्ष की जमीन पुख्ता है और उनके इरादे पितृसत्ता को विचलित करने वाले हैं -

यह स्त्री
सब कुछ जानती है 
पिंजरे के बारे में 
जाल के बारे में 
यंत्रणागृहों के बारे में
उससे पूछो 
पिंजरे के बारे में पूछो...
रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबांसियाँ 
इन्हें समझो।
इस स्त्री से डरो।

अजंता देव की कविताओं में वर्तमान सत्ता की वस्तुगत आलोचना है -

मैंने बहुत बाद में जाना
कुर्सी पर सफ़ेद चादर ओढ़ाने से वह हिमालय नहीं होता 
गत्ते का मुकुट लगाए खड़ी वह भारत माता नहीं
मेरी सहेली है...

युद्ध पर दो कविताएं हैं अजंता देव के यहां, 'युद्धबंदी' और 'शांति भी एक युद्ध है'। इनमें अंतर्विरोध है। वे लिखती हैं - 'हर युद्ध की मैं बंदी हूं हर युद्ध मुझसे छीनता रहता है नीला आसमान।' यहां 'हर युद्ध' में 'शांति' भी शामिल हो जाती है अगर वह भी 'एक युद्ध है' तो। युद्ध को बेहतर व्याख्यायित करती है प्रज्ञा रावत की कविता 'फतह' -

जब मनुष्य जीवन के संघर्षों में 
खपता है वो कुछ फ़तह करने
नहीं निकलता
जिनके इरादे सिर्फ़ फ़तह करने 
के होते हैं, झंडे गाढ़ने के होते हैं 
उनसे डरो ...

प्रज्ञा के यहां इमानदारी पर जोर देती कविता है 'ईमानदार आदमी' -

पर सच तो है यही कि 
ईमानदारी निहत्थी ही सुंदर लगती है ...

मुझे लगता है ईमानदारी अपने में कोई मूल्य नहीं है, इसे संदर्भ में ही जाना जा सकता है। यह एक हद तक वर्गगत स्वभाव है। अक्सर सुनने में आता है ईमानदार अफसर, ईमानदार चपरासी सुना नहीं कभी। यूं प्रज्ञा के संदर्भ वैश्विक हैं और उनका स्वर मात्र स्त्री स्वर नहीं मानुष स्वर है। 

चार दशक पहले आलोक धन्वा जैसे  कवि ने जैसी स्त्री की कल्पना की थी, वह सविता सिंह की कविताओं में मौजूद है -

वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी ...

सविता की कविताएँ बताती हैं कि अब उन्हें दूसरे की करुणा और परिभाषाओं की जरूरत नहीं। अपने हिस्से के अँधेरों को कम करना, उनसे जूझना सीख गई हैं सविता की स्त्रियाँ -

मैं अपनी औरत हूँ 
अपना खाती हूँ 
जब जी चाहता है तब खाती हूँ 
मैं किसी की मार नहीं सहती 
और मेरा परमेश्वर कोई नहीं...।

रजनी तिलक की कविताएं विवरणात्मक हैं। कुछ वाजिब सवाल उठाए हैं उन्होंने -
 
पूछती हूँ तुमसे मैं 
एक योनि सवर्ण बहिना की 
उन्हें अपनी योनि पर 
ख़ुद का नियंत्रण चाहिए 
तब दलित स्त्री की आबरू पर 
बाजारू नियंत्रण क्यों?

युद्ध के मसले पर रजनी साफ करती हैं कि - 'बुद्ध चाहिए युद्ध नहीं'। 

निवेदिता झा की कविताओं में जीवन और संघर्ष की नई जमीन है -
 
हे विष्णु
हे जगत के पालनहार!
मेरा सुख तुम्हारे पाँव तले कभी नहीं था ...

स्त्री स्वर से आगे निवेदिता के यहां भी मानुष स्वर है -

मैं तुमसे तुम्हारी प्रार्थना के बाहर मिलना चाहता हूँ 
मनुष्य की तरह ।

'दलित स्त्री के प्रश्नों पर लेखन में निरंतर सक्रिय' अनिता भारती दलित दिखावे पर भी सवाल खड़े करती हैं -

क्या मात्र अपने को 
नीली आभा से 
ढँक लेना ही 
और उसका ढिंढोरा पीट देना ही
आंदोलनकारी हो जाना है?

'प्रतिघात' कविता में अनीता सरलता पर सवाल उठाती हैं -

मैंने अपने अनुभव से जाना 
ज्यादा सरल होना अच्छा नहीं होता...

यहां वीरेन डंगवाल याद आते हैं -

इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी..

हेमलता महेश्वर अपनी कविताओं में समकालीन संघर्ष को मुखर करती हैं, ये कविताएं साबित करती हैं कि शिक्षा शेरनी का दूध है -

मैंने जन्मजात प्रतिभा की मान्यता को अर्जित योग्यता में बदला 
बेगार करना छोड़ 
रोज़गार अपनाया...

हेमलता की तरह वंदना टेटे की कविताओं में भी आज का संघर्ष मुकम्मल ढंग से जाहिर होता है। वर्तमान संघर्ष की ठोस शक्ल आदिवासी समाज की स्त्रियों के लेखन में दिख रही, प्रतिरोध का मुख्य स्वर वहीं से आ रहा -

चेहरा हमारा
सदियों से सूर्पनखा है, बहन 
और इतिहास हमारी नाक
जिसे काटते रहते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम ...

रीता दास राम की कविताओं में प्रतिरोध का स्वर स्पष्ट नहीं है। उनका विश्वास बरकरार है पुरानी स्त्री पर -

हार भी तुम में 
मानवता की जीत भी तुम ...

नीलेश रघुवंशी की कविताओं में दृष्टि की गहनता आश्वस्त करती है -

खेल की आड़ में युद्ध-युद्ध खेलोगे 
तो मैदान नहीं बचेंगे फिर 
बिना खेल मैदान के 
पहचाने जाएँगे हम ऐसे देश के रूप में 
जो युद्ध को एक खेल समझता है ...

अपने समय की विकृतियों पर वे बारहा सवाल करती हैं -

ये कैसा समय है.
जिसमें

दूध की मुस्कान में भी 
खोजे जाते हैं अर्थ ...

निर्मला पुतुल की कविताओं में वैचारिकता बढ़ी है, स्त्रियां दलित व सर्वहारा होती हैं, से आगे बढ़कर स्त्रियों के वर्ग की शिनाख्त करती हैं वो -

एक स्त्री गा रही हैं 
दूसरी रो रही है
और इन दोनों के बीच खड़ी एक तीसरी स्त्री 
इन दोनों को बार-बार देखती कुछ सोच रही है ...

निर्मला दिखलाती हैं कि आदिवासी समाज में भी स्त्री उसी तरह प्रताड़ित है -

हक़ की बात न करो मेरी बहन ... 
सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की चर्चा न करो, बहन 
मिहिजाम के गोआकोला की सुबोधिनी मारंडी की तरह तुम भी
अपने मगज़हीन पति द्वारा 
भरी पंचायत में डायन करार कर दंडित की जाओगी 
माँझी हाड़ाम पराणिक गुड़ित ठेकेदार, महाजन और 
जान-गुरुओं के षड्यंत्र का शिकार बन...

सीमा आजाद के एक्टिविज्म से मेरा परिचय कराया था फेसबुक ने। सीमा के यहां संघर्ष को मुखर करने का अंदाज नया है। उनके जीवन संघर्ष की जीवंतता जिस तरह उनकी कविताओं में आकार पाती है वह नया आगाज है संघर्षशील कविता की दुनिया में -

ब्रह्मांड की तरह फैलते
मेरे वजूद को
तुमने समेट दिया
तीन फुट चौड़ी आठ फुट लंबी
कब्र जैसी सीमेंटेड सीट में
मैने इसके एक कोने में
सज़ा लिया
अमलतास के लहलहाते फूलों का गुच्छा ... 
मारिया सिसो की कविता का पोस्टर चिपका दिया है ठीक आँख के सामने...।

जीवन और कविता की सहज वैश्विकता को साधती हैं सीमा आजाद।
पारंपरिक भारतीय अहम को सुशीला टाकभौरे की कविताएं चुनौती देती हैं -

सूरज,
तुम आना इस देश अंधकार फैला है ...

वे देखती हैं कि किस तरह कोरोना काल में ईश्वर को चुनौती मिलती है। कोरोना-काल की विडंबनाएं सुशीला की कई कविताओं में दर्ज हैं  -

यह कैसा समय आया है 'कोरोना-काल' में 
ईश्वर को ही कर दिया है बंद 
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों में ...

कविता कृष्ण पल्लवी की कविताओं में भी संघर्ष की इबारत चमक रही है और जीवन को अपने विवेक से जीने का जज्बा परवान चढ़ता दिखता है -

ख़ुद ही मैंने जाना 
असफलता के सम्मान के बारे में 
भीड़ के पीछे न चलने का 
फैसला मैंने ख़ुद लिया...

भीड़ की भेड़ चाल से बचने और असफलता के सम्मान की बात कविता करती हैं। यह स्पष्ट तथ्य है कि सफलता मात्र वह लहर है जो बाकी लहरों के ऊपर दिखती है, क्षणभर को, यह समंदर या जीवन का सच नहीं है। यू कविता के यहां गुस्सा काफी है और गुस्से में वह कुत्तों के गू की 'ढेरी' तक ढूंढ लेती हैं। 

जसिंता केरकेट्टा के पास अपने समय को देखने और विश्लेषित करने की द्वंद्वावात्मक दृष्टि है। 'पहाड़ और प्यार' उनकी महत्वपूर्ण कविता है, जिसमें वे भारतीय सामाजिक जीवन में प्रेम की त्रासदी को देखती हैं और दिखाती हैं। वे दिखाती हैं कि एक ओर तो प्रेम का बाजार है फिल्मी और दूसरी और प्रेम के नाम पर गला काट ले जाते हैं लोग -

प्यार जीवन से कब निकल गया
और किसी सिनेमा हॉल के
बड़े से पर्दे पर पसर गया 
पता ही नहीं चला...

प्रेम पर विचार करते हुए वे पहाड़ और जमीनी विस्तार के अंतर को रेखांकित करती हैं -

पहाड़ स्त्री के नाम की गालियाँ नहीं जानता ...

'स्त्रियों का ईश्वर' कविता में वे स्त्री जीवन की विडंबना को दर्शाती हैं और उस पर सवाल खड़े करती हैं -

सबके हिस्से का ईश्वर 
स्त्रियों के हिस्से में क्यों आ जाता है? 

शोषित आदिवासियों का पक्ष निर्मला पुतुल के यहां उभरता है तो जसिंता के यहां वह प्रतिरोध को सन्नध दिखता है -

कविता चलाती है उसकी पीठ पर हँसिया
तोड़ देती है उसकी गन्दी अँगुलियाँ 
और चीखती है 
बंद करो कविता में ढूँढ़ना आदिवासी लड़कियाँ ।

रुचि भल्ला की कविताओं से संकलन का अंत होता है। उनकी कविताओं में एक रोचक खिलंदड़ापन है। अपनी कविता  में वे गंभीर सवाल खड़े करती हैं -

कब्र खोदने के इस दौर में 
देश न खो बैठे अपना नाम

सच है यह भय कि नाम बदलने का यह खेल कहीं देश के नाम खोने तक ना चला जाए। आखिर जंबूद्वीप, आर्यावर्त आदि कई नाम खो चुका है यह देश। 

कुल मिलाकर प्रतिरोध के जज्बे को यह संकलन नई गति देता है। इस संग्रह के बाहर भी तमाम नाम हैं, जो संघर्ष को नई सूरत देते रहते हैं। जैसे- रूपम मिश्र, ज्योति शोभा, अनुपम सिंह आदि। भविष्य में संग्रह के दूसरे, तीसरे भाग संभव किए जा सकते हैं। संकलन में दो पेज की संपादकीय भूमिका में भाषा और लिंग की चार-छह भूलें खटकती हैं। जैसे- वेबसाइट की जगह बेवसाइट लिख देना आदि।

समकालीन जनमत में प्रकाशित

शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

सप्तपदीयम् /// सात कवि

सप्तपदीयम् हिंदी के सात ऐसे कवियों की कविताओं का संकलन है जो पारंपरिक रूप से कवि यश: प्रार्थी नहीं रहे कभी। जिन्हें जीवन और उनके पेशे ने कवि होने, दिखने की सहूलियत उस तरह नहीं दी। एक दौर में और जब-तब उन्होंने कविता के फॉर्मेट में कुछ-कुछ लिखा कभी-कभार, कहीं भेजा, कुछ छपे-छपाये पर कवि रूप में अपनी पहचान के लिए उतावले नहीं दिखे।

लंबे समय से मैं इनके इस रचनाकर्म का साक्षी रहा। इनमें अपने पड़ोसी राजू रंजन प्रसाद के साथ पिछली बैठकियों में यह विचार उभरा कि क्‍यों न ऐसे गैर-पेशेवर कवियों की कविताओं का एक संकलन लाया जाए। फिर यह विचार स्थिर हुआ और ऐसे समानधर्मा रचनाकारों के नाम पर विचार हुआ, एक सूची तैयार हुई जिसमें से सात कवि इस संकलन में शामिल किये गये।
***
लेकर सीधा नारा
कौन पुकारा
अंतिम आशा की सन्‍ध्‍याओं से ...
 
शमशेर की उपर्युक्‍त पंक्तियों के निहितार्थ को DrRaju Ranjan Prasad की कविताएं बारहा ध्‍वनित करती हैं। राजूजी की कई कविताएं मुझे प्रिय हैं जिनमें ‘मैं कठिन समय का पहाड़ हूं’ मुझे बहुत प्रिय है -

मैं कठिन समय का पहाड़ हूं
वक्त के प्रलापों से बहुत कम छीजता हूं
मैं वो पहाड़ हूं
जिसके अंदर दूर तक पैसती हैं
वनस्पतियों की कोमल, सफेद जड़ें
मैं पहाड़ हूं
मजदूरों की छेनी गैतियों को
झूककर सलाम करता हूं।

यह कविता राजूजी के व्‍यक्तित्‍व को रूपायित करती है। वक्‍त की मार को एक पहाड़ की तरह झेलने के जीवट का नाम राजू रंजन प्रसाद है। पर समय की मार को झेलने को जो कठोरता उन्‍होंने धारण की है वह कोमल वनस्पतियों के लिए नहीं है फिर यहां पथरीली जड़ता भी नहीं है। यह
विवेकवान कठोरता श्रम की ताकत को पहचानती है और उसका हमेशा सम्‍मान करती है।
खुद को पहाड़ कहने वाले इस कवि को पता है कि कठोरता उसका आवरण है कि उसके पास भी अपना एक ‘सुकुमार’ चेहरा है और कोमल, सफेद जड़ों के लिए, जीवन के पनपने के लिए, उसके विस्‍तार के लिए वहां हमेशा जगह है।

तमाम संघर्षशील युवाओं की तरह Sudhir Suman भी सपने देखते हैं और उनके सपने दुनिया को बदल देने की उनकी रोजाना की लड़ाई का ही एक हिस्सा हैं। जन राजनीति के ज्वार-भाटे में शामिल रहने के कारण उनकी कविताओं की राजनीतिक निष्पत्तियाँ ठोस और प्रभावी बन पड़ी हैं। उदाहरण के लिए, उनकी ‘गांधी’ कविता को देखें कि कैसे एक वैश्विक व्यक्तित्व की सर्वव्यापी छाया सुकून का कोई दर्शन रचने की बजाय बाजार के विस्तार का औजार बनकर रह जाती है—

‘अहिंसा तुम्हारी एक दिन अचानक
कैद नजर आई पाँच सौ के नोट में
उसी में जड़ी थी तुम्हारी पोपली मुसकान
उस नोट में
तुम्हारी तसवीर है तीन जगह
एक में तुम आगे चले जा रहे पीछे हैं कई लोग
तुम कहाँ जा रहे हो
क्या पता है किसी को?’

सुधीर के यहाँ प्यार अभावों के बीच भावों के होने का यकीन और ‘दुःख भरी दुनिया की थाह’ और ‘उसे बदलने की चाह’ है—

‘सोचो तो जरा
वह है क्या
जिसमें डूब गए हैं
अभावों के सारे गम...
...
जी चाहता है
मौत को अलविदा कह दें।’ 

हमारे यहाँ प्यार अकसर सामनेवाले पर गुलाम बनाने की हद तक हक जताने का पर्याय बना दिखता है, पर सुधीर का इश्क हक की जबान नहीं जानता। सुधीर की कविताओं से गुजरना अपने समय के संघर्षों और त्रासदियों को जानना है। यह जानना हमें अपने समय के संकटों का मुकाबला निर्भीकता से करने की प्रेरणा देता है।

जैसे किसान जीवन का जमीनी दर्द कवि Chandra की कविताओं में दर्ज होता है उसी तरह एक मजदूर की त्रासदी को Khalid A Khan स्‍वर देते हैं –

मैं नहीं जनता था
कि मैं एक मज़दूर हूँ
जैसे मेरी माँ नहीं जानती थी
कि वो एक मज़दूर है, मेरे पिता की

मार खाती, दिन भर खटती
सिर्फ दो जून रोटी और एक छत के लिए

जैसे चंद्र के यहां आया किसान जीवन उससे पहले हिंदी कविता में नहीं दिखता अपनी उस जमीनी धज के साथ, खालिद के यहां चित्रित मजदूरों की जटिल मनोदशा भी इससे पहले अपनी इस जटिलता के साथ नहीं दिखती। इस अर्थ में दोनों ही हिंदी के क्रांतिकारी युवा कवि हैं। दोनों से ही हिंदी कविता आशा कर सकती है पर उस तरह नहीं जैसी वह आम मध्‍यवर्गीय कवियों से करती है। क्‍योंकि दोनों ही की कविताओं की राह में बाधाएं हैं जैसी बाधाएं उनके जीवन में हैं। यह अच्‍छी बात है कि दोनों का ही कैनवस विस्‍तृत है और क्रांतिकारी कविता का विश्‍वराग दोनों के यहां बजता है –

मैंने पूछा उनसे कि
क्यों चले जाते हो
हर बार सरहद पर
फेंकने पत्थर
जबकि तुम्हारा पत्थर नहीं पहुंचता
उन तक कभी
पर उनकी गोली हर बार तुम्हरे
सीने को चीरती हुई निकलती है…।

Anupama Garg की कविताएं इस समय समाज के प्रति एक स्‍त्री के सतत विद्रोह को दर्ज करती हैं। यह सबला जीवन की कविताएं हैं जो आपकी आंखों में आंखें डाल आपसे संवाद करती हैं –

क्योंकि, जब समझ नहीं आती,
तरीखें, न कोर्ट की, न माहवारी की।
तब भी,
समझ जरूर आता है,
बढ़ता हुआ पेट,
ये दीगर बात है,
कि उसका इलाज या उपाय तब भी समझ नहीं आता।

अनुपमा की कविताएं पितृसत्‍ता से बारहा विद्रोह करती हैं, तीखे सवाल करती हैं पर पिता के मनुष्‍यत्‍व को रेखांकित करने से चूकती भी नहीं –

तुम हो पिता जिसकी खोज रहती है, विलग व्यक्तित्त्व के पार भी
वो कैसा पुरुष होगा, जो कर सकेगा मुझे, तुम जैसा स्वीकार भी?
जो सह सकेगा तेज मेरे भीतर की स्त्री का, मेरा मुंडा हुआ सर, और मेरे सारे विचार भी?
वो तुम जैसा होगा पिता,
जो मेरे साथ सजा, सींच सकेगा, सिर्फ अपना घर नहीं, पूरा संसार ही |

अनुपमा की आत्‍मसजगता परंपरा की रूढिवादी छवियों को हर बार अपनी कसौटी पर जांचती है और उनका खंडन-मंडन करती है। इस रूप में उनकी आत्‍मसजगता राजनीतिक सजगता का पर्याय बनती दिखती है –

जब संन्यासी चलाने लगें दुकान,
तो मेरी सोच में,
क्यों न रह जाए सिर्फ,
रोटी कपड़ा, मकान …।

#आभा की कविताएं ऐसी स्‍त्री की कविताएं हैं जिसके सपने पितृसत्‍ता के दबाव में बिखरते चले जाते हैं। पराया धन से सुहागन बन जाती है वह पर अपने होने के मानी नहीं मिलते उसे। पारंपरिक अरेंज मैरेज किस तरह एक लड़की के व्‍यक्तित्‍व को ग्रसता चला जाता है इसे आभा की कविताएं बार-बार सामने रखती हैं –

हरे पत्‍तों से घिरे गुलाब की तरह
ख़ूबसूरत हो तुम
पर इसकी उम्‍मीद नहीं
कि तुम्‍हें देख सकूँ

इसलिए
उद्धत भाव से
अपनी बुद्धि मंद करना चाहती हूँ।

कैसे हमारा रुढिवादी समाज एक स्‍त्री की स्‍वतंत्र चेतना को नष्‍ट कर एक गुलाम समाज के लिए जमीन तैयार करता है इसे आभा की कविताएं स्‍पष्‍ट ढंग से सामने रखती हैं। आभा की कविताएं भारतीय आधी आबादी के उस बड़े हिस्‍से के दर्द को जाहिर करती हैं जिनके शरीर से उनकी आत्‍मा को सम्‍मान, लाज, लिहाज आदि के नाम पर धीरे-धीरे बेदखल कर दिया जाता है और वे लोगों की सुविधा का सामान बन कर रह जाती हैं –

कभी कभी
ऐसा क्यों लगता है
कि सबकुछ निरर्थक है

कि तमाम घरों में
दुखों के अटूट रिश्ते
पनपते हैं
जहाँ मकड़ी भी
अपना जाला नहीं बना पाती...।

Navin Kumar की कविताओं में आप कवियों के कवि शमशेर और मुक्तिबोध को एकमएक होता देख सकते हैं। उन्‍होंने अधिकतर लंबी कविताएं लिखी हैं जो आम अर्ध शहरी, कस्‍बाई जीवन को उसकी जटिलताओं और विडंबनाओं के साथ प्रस्‍तुत करती हैं। वे आलोक धन्‍वा की लंबी कविताओं की तरह दिग्‍वजय का शोर नहीं रचतीं बल्कि अपने आत्‍म को इस तरह खोलती हैं कि हम उसके समक्ष मूक पड़ते से उसे निहारने में मग्‍न होते जाते हैं –

मैं रोना चाहता था और
सो जाना चाहता था

कल को
किसी प्रेम पगी स्त्री का विलाप सुन नहीं सकूँगा
पृथ्वी पर हवाएं उलट पलट जाएंगी
समुद्र की लहरें बिना चांदनी के ही
अर्द्धद्वितीया को तोड़-तोड़ उर्ध्वचेतस् विस्फोट करेंगी

अपनी एक कविता में आभा लिखती हैं कि वे उद्धत भाव से अपनी बुद्धि मंद करती हैं। नवीन की कविताओं और उनके एक्टिविज्‍म से भरे जीवन को देख कर ऐसा लगता है कि उन्‍हेांने भी कविता और लोकोन्‍मुख जीवन में जीवन को चुना और कविता की उमग को आम जन की दिशा में मोड़ दिया -

नई नई जगहों में
लाचारी का, सट्टा का, दारू भट्टी का
नहीं तो बिल्डिंगों का कारोबार है
चारों तरफ होम्योपैथ की दवा सी तुर्श गंध है
या नहीं तो सड़ रहे
पानी, कीचड़, गोबर की
यहां की कविता में तो इतना गुस्सा है
कि यह अपने पसीने-मूत्र की धार में ही
बहा देना चाहती है सब कुछ …।

Amrendra Kumar की कविताएं पढते लगा कि अरसा बाद कोई सचमुच का कवि मिला है, अपनी सच्‍ची जिद, उमग, उल्‍लास और समय प्रदत्‍त संत्रासों के साथ। काव्‍य परंपरा का बोध जो हाल की कविता पीढी में सिरे से गायब मिलता है, अमरेन्‍द्र की कविताओं में उजागर होता दिखता है। इन कविताओं से गुजरते निराला-पंत-शमशेर साथ-साथ याद आते हैं। चित्रों की कौंध को इस तरह देखना अद्भुत है –

आसमान से
बरसती चांदनी में
अनावृत सो रही थी श्‍यामला धरती
शाप से कौन डरे ?

रामधारी सिंह दिनकर की कविता पंक्तियां हैं –

झड़ गयी पूंछ, रोमांत झड़े
पशुता का झड़ना बाकी है
बाहर-बाहर तन संवर चुका
मन अभी संवरना बाकी है।

अपनी कुछ कविताओं में अमरेन्‍द्र पशुता के उन चिह्नों की ना केवल शिनाख्‍त करते हैं बल्कि उसके मनोवैज्ञानिक कारकों और फलाफलों पर भी विचार करते चलते हैं –

खेल-खेल में ...
सीख लो यह
कि तुम्‍हें घोड़ा बनकर जीना है !
यह जान लो कि
तुमसे बराबर कहा जाता रहेगा
कि तुम कभी आदमी थे ही नहीं !

अपने समय की सा‍जिशों की पहचान है कवि को और उस पर उसकी सख्‍त निगाह है। बहुत ही बंजर और विध्‍वंसकारी दौर है यह फिर ऐसे में कोई कवि इस सबसे गाफिल कैसे रह सकता है सो अमरेन्‍द्र के यहां भी मुठभेड़ की कवियोचित मुद्राएं बारहा रूपाकार पाती दिखती हैं –

खेत बंजर होते जा रहे हैं
लेकिन, भूख बंजर नहीं हो सकती ...
और भड़कती भूख की आग
कुछ भी चबा सकती है।

शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

' राजकमल चौधरी और फणीश्‍वर नाथ रेणु दो गुरु हैं मेरे ... ' - आलोक धन्वा

वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से युवा कवि कुमार मुकुल की बातचीत '


 

परिंदे में प्रकाशित 

 

बातचीत - 2 

 

अपनी बातचीत में आप हिंदी कविता, कहानी के महत्‍वपूर्ण हस्‍ताक्षरों राजकमल चौधरी और फणीश्‍वर नाथ रेणु का जिक्र बारहा करते हैं। आपको इनकी संगत का लाभ उठाने का मौका मिला है। उन प्रसंगों की बाबत कुछ बताएं।

 

वह भारत – पाक युद्ध का समय था। हम तीन दोस्‍त थे। एक थे डॉ एस एस ठाकुर, पटना के बड़े डाक्‍टर और दूसरे थे शंभु। उस समय लोगों को उत्‍साहित करने वाले कवि – सम्‍मेलन होते रहते थे हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन भवन में, बाद में सम्‍मेलन बहुत गलत लोगों के हाथों में चला गया। तब वहां बाबा नागार्जुन भी आते रहते थे। राजकमल चौधरी भी तब पटना में ही रहते थे। सतेन्‍द्र नारायण सिंह जिन्‍हें छोटे साहब कहते थे लोग, वे भी हमें बहुत मानते थे। एक पत्रकार साथी थे दिनेश सिंह। ये सब इमानदार लोग थे। ‍

दिनेश सिंह नवराष्‍ट्र पत्रिका के संपादक थे। वे चाहते थे कि पटना में एक कवि – सम्‍मेलन आयोजित हो। वे मुझसे भी कविता पाठ करवाना चाहते थे। मैंने कहा कि उसमें मुझे कौन जाने देगा, तो उन्‍होंने कहा कि कैसे नहीं जाने देगा, मैं हूं ना।

कवि सम्‍मेलन हुआ तो उसमें तमाम बड़े कव‍ि शामिल हुए। रामगोपाल रूद्र, केदारनाथ मिश्र प्रभात, आरसी प्रसाद सिंह जैसे मशहूर लोग उसमें थे। कवि सम्‍मेलन के दौरान मैंने एक चिट पर अपना नाम लिखकर मंच पर बढाया। सम्‍मेलन की अध्‍यक्षता राजकमल चौधरी कर रहे थे। मैं देख रहा था कि लोग मेरी पर्ची पर ध्‍यान नहीं दे रहे थे और सम्‍मेलन अपने अंत की ओर बढ रहा था। युद्ध के चलते कुछ समय बाद ब्‍लैक आउट हो जाता और पूरे इलाके की बिजली गुल कर दी जाती सुरक्षा को लेकर, तो कवि सम्‍मेलन भी बंद हो जाता। मुझे लगा कि अब मेरा नंबर नहीं आएगा।

तब राजकमल जी ने कहा कि अब तो सबका पाठ हो गया अब एक कोई नौजवान हैं, आलोक धन्‍वा। उनसे मेरी गुजारिश है कि वे मंच पर आएं और अपनी कविता पढें।

तब मैं मंच पर गया और एक कविता पढी। वह कविता फिर कहीं छपी नहीं।

 

कौन सी कविता थी वह, क्‍या कुछ याद है ?

 

हां, अभी भी उसकी कुछ पंक्तियां याद हैं -

 

सुनती हो मां

अब तो मुझको नींद नहीं आती है

भीतर ही भीतर कोई स्‍तूप उबलता है

नीली नीली नसें सुलगती ही जाती हैं

अंबाला के सैनिक वाले अस्‍पताल पर बम गिरता है

एक नर्स सीढि़यां उतरती मर जाती है

मरने पर भी उसकी आंखों में एक हरी गर्दन चिल्‍लाती है ...

 

इस कविता ने सबका मेरी ओर ध्‍यान खींचा। राजकमल जी ने भी कहा कि लड़का अच्‍छा लिख रहा है।

 

इतनी ही थी कविता या पूरी कविता याद नहीं आपको ?

 

इसमें आगे भी कुछ पंक्ति‍यां थीं -

 

उड़ी, पूंछ के बीच जमी

पत्‍थर वाली शहतीर

तुम्‍हारी जय हो ...

 

इस तरह से थी कविता।

 

इस कविता के पाठ के बाद राजकमल जी से टाइम लिया हमलोगों ने। उस समय मेरे साथ गद्यलेखक और यूएनआई के पत्रकार साथी रत्‍नधर झा भी थे। राजकमल जी से मुलाकात के दौरान रेणु जी की चर्चा हुई। राजकमल जी ने पूछा कि रेणु जी से मिलना चाहते हैं आप।

मैंने कहा - हां, जरूर मिलना चाहेंगे।

जिस घर में राजकमल रहते थे वह खपरैल की थी जिस पर कद्दू फले थे। तो राजकमल ने कहा कि अगर आपको रेणु जी के यहां चलना है तो आपको वहां तक उनके लिए यहां से एक कद्दू लेकर चलना होगा।

 

उस समय तक तो रेणु जी हिंदी की दुनिया में काफी लोकप्रिय हो चुके थे ?

 

हां, राजेन्‍द्र नगर के एक फ्लैट में रेणु जी रहते थे। उन्हें कौन नहीं जानता था। वहां कौन नहीं आया। अज्ञेय आये थे, रघुवीर सहाय आये, सर्वेश्‍वर जी आए।

तो जब रेणु जी के यहां चलने की बात हुई तो मैंने कहा कि मुझे आप वहां ले जा रहे हैं पर उनके यहां एक कुतिया है, नवमी।

तो राजकमल बोले - मत डरो, मैं तो भैरव का भक्‍त हूं। कुत्‍ते से भय नहीं होना चाहिए।

 

अच्‍छा तो आप कुत्‍ते से एक जमाने से डरते आ रहे ! पर आपको पहले से कैसे पता था कि रेणु जी कुत्‍ता रखते हैं ?

 

अरे मत कहअ, मउअत से हमरा डर ना लागे, बस कुकुर से डर लागे ला। (भोजपुरी में बोलते हैं वे।)

यह सब अखबारों से पता चल जाता था। रेणु जी बहुत लोकप्रिय थे। फिर वे खुद भी जनता अखबार निकालते थे।

तो वहां पहुंचने पर राजकमल जी ने मैथिली में रेणु जी से कहा - कि यह जो लड़का है मेरे साथ वह बहुत डरता है कुत्‍ता से। सो नवमी को बांध दीजिए।

तो रेणु जी ने लतिका जी से कहा - कि यह लड़का बहुत डरता है कुत्‍ते से सो उसे उस कमरे में ले जाओ तब तक।

फिर चाय आदि आयी। चाय पीते हुए मैं रेणु जी को पहली बार इस तरह नजदीक से देख रहा था। वे बहुत सुदर्शन थे और काफी लंबे थे, मैं समझता हूं छह फीट से अधिक लंबे थे वे। सांवले थे पर बहुत सुंदर। घुंघराले केस थे, हैंडसम क्‍लीन शेव्‍ड। वे चलते तो लगता कोई लोकनर्तक चल रहा। बहुत मधुर आवाज थी उनकी।

कोशी के इलाके की जो धारा थी लेखन की उसमें तीन बड़े लेखक थे - राजकमल, रेणु और नागार्जुन। रेणु राजकमल से सीनियर थे।

 

तब उन्‍होंने खाने के लिए पूछा - तो मैंने कहा कि मैं खाउंगा तो नहीं।

तब उन्‍होंने लतिका जी से कहा - नौजवान आया है घर पर पहली बार तो कुछ इसके लिए मिठाई आदि लाओ।

तो मिठाई आयी रसगुल्‍ला या हम समझते हैं कि बर्फी होगी। हमने और राजकमल ने खाया फिर नमकीन और चाय ली।

फिर बातचीत चलने लगी। दोनों ज्‍यादातर मैथिली में बात कर रहे थे। जिसे मैं भी समझ रहा था। थोड़ी देर के बाद हमलोग निकलने लगे तो रेणु जी ने कहा कि इधर आइए तो आ जाइए यहां भी। इसके बाद उनसे ज्‍यादातर काफी हाउस में मुलाकात होती थी।

फिर राजकमल चौधरी बीमार रहने लगे। उनका पेट चीरा गया तो पता चला कैंसर है तो उसे बिना छेड़छाड़ के फिर सी दिया गया। क्‍योंकि शंका थी कि चीर - फाड़ से वह पूरे शरीर में फैल जाएगा।

फिर मैं कुछ दिन पटना से बाहर रहा। आया तो पता चला कि राजकमल जी गुजर गये। यह 1967 जून की बात है। उनसे 1965 में पहली मुलाकात हुई थी।

 

इस बीच आप लोगों की कितने मुलाकातें हुईुं, आपलोग कितना साथ रहे ?

 

भेंटे तो कम ही हुई थीं। पर जब भी हमलोग जाते तो वे प्रेम से मिलते। उनकी बीमारी का दौर था तो उन्‍हें कई तरह की सलाह देने वाले लोग वहां मिलते थे। बीमारी से आतंकित होने वाले आदमी नहीं थे राजकमल जी।

 

कविता पर भी काई बात होती थी राजकमल जी से ?

 

कविता पर हमलोग बहुत कम बात करते थे। क्‍या बोलते, हमलोग बहुत यंग थे उस समय। हमलोग सुनते थे उनको। वे गद्कार थे। उनकी किताब ‘मछली मरी हुई’ छप चुकी थी। कहानियां उनकी बहुत मशहूर थीं । कविताओं की उनकी पुस्‍तक ‘कंकावती’ भी मशहूर थी।

बहुत ही संघर्ष का जीवन था राजकमल जी का। ‘ज्‍योत्‍सना’ नाम की एक पत्रिका निकलती थी पटना से, उसमें वे काम भी करते थे। पर वहां से कुछ खास पारिश्रमिक नहीं मिलता था हमेशा आर्थिक संकट रहता था।

बीमारी के कारण जब वे अस्‍प्‍ताल में भर्ती हुए तो हमलोग उनसे नियमित मिलते थे। नंदकिशोर नवल और उस समय के चर्चित गीतकार चंद्रमौली उपाध्‍याय आते थे उन्‍हें देखने। उपाध्‍याय जी कलकत्‍ते से आते थे।

 

रेणु जी भी तब पटना ही रहते थे, वे भी आते-जाते होंगे ?

 

हां यहीं रहते थे और आते थे। अस्‍पताल में तो नहीं आते थे रेणु जी पर जब ‘मुक्तिप्रसंग’ के प्रकाशन के बाद अज्ञेय उनसे मिलने पीएमसीएच सर्जिकल अस्‍प्‍ताल में आते तो रेणु जी भी उनके साथ रहते। टाइम्‍स ऑफ इंडिया के पत्रकार जिते्न्‍द्र सिंह भी साथ होते थे। मुक्तिप्रसंग अज्ञेय जी को ही समर्पित है।

पर राजकमल को बचाया नहीं जा सका। उनको याद करते बाबा नागार्जुन ने कविता भी लिखी थी। रेणु जी ने भी अवश्‍य ही कुछ लिखा होगा। मिथिलांचल के ये दोनों ही लेखक राजकमल के गुजरने से बहुत व्‍यथित हुए थे। राजकमल हिंदी, मैथिली, बांग्‍ला और अंग्रेजी के भी जानकार थे।

 

उस समय तक तो रेणु का लेखन पर्याप्‍त चर्चा पा चुका था ?

 

उस समय रेणु जी की इतनी ख्‍याति हो चुकी थी कि उन्‍हें इग्‍नोर नहीं किया जा सकता था। उनसे मिलने बड़े बड़े लोग आते थे। एमएलए व पार्षद सब उनको घेरे रहते। कुछ लोग उनसे कॉफी हाउस आकर मिलते थे और कुछ उनके निवास पर मिलते थे। कॉफी हाउस में जब काफी लोग आते तब कई टेबलों को जोड़कर एक टेबल बना दिया जाता था।

सर्वेश्‍वर जी पटना आते तो उनके घर पर रूकते थे।  अज्ञेय, निर्मल वर्मा, बी पी कोइराला और गिरजा प्रसाद कोइराला आते थे उनसे मिलने। बीपी कोइराला ने नेपाल में पहली बार लोकतंत्र लाने की कोशिश की थी। रेणु जी नियमित काफी हाउस आते थे। बीच बीच में वे अपने गांव औराही हिंगना भी जाते थे।

उस समय एक विद्यार्थी हेमंत दयाल था जो सितार बजाता था। हेमंत और शरत दयाल बिहार के एक आइएएस डॉ एल दयाल  के बेटे थे। तो हेमंत हमलोगों को ‘मैलाआंचल’ का पहला पन्‍ना पढ कर सुनाता था। पढाई तो छोड़ दी थी मैंने पर बड़े लोगों को सुनना और किताबें पढना मेरी आदतों में शुमार था और भटकना।

रेणु जी का बहुत ही गहरा स्‍नेह था मेरे प्रति।

कई बार ऐसा होता कि कॉफी हाउस से निकलते रेणु जी मुझसे पूछते कि आप कहीं और जाएंगे।

मैं कहता कि नहीं मैं तो भिखना पहाड़ी अपने आवास जाउंगा।

वे कहते कि तब दिनकर चौक तक आप मेरे साथ चलिए।

तो वहां तक वे साथ आते। वे पान के शौकीन थे तो अपने पनबट्टे में वे पान लेते। वहीं पास ही मैग्‍जीन कार्नर था जहां से वे पत्रिकाएं लेते। फिर वहां से रिक्‍शे पर बैठ आगे चले जाते और मैं टहलता हुआ अपने डेरे पर चला आता। जहां मेरे बड़े भाई रहते थे।

 

आप पान आदि नहीं खाते थे ?

 

कभी कभी खाते थे। सिगरेट पीते थे।

 

रेणु जी भी पीते थे सिगरेट ?

 

नहीं रेणु जी नहीं पीते थे। उन्‍हें कभी सिगरेट पीते नहीं देखा।

 

वे कभी आपके सिगरेट पीने पर कुछ बोलते थे ?

 

नहीं, उनके सामने मैं सिगरेट नहीं पीता था। यह लिहाज था। हालांकि सामने पीते तो वे कुछ बोलते नहीं। वे बहुत खुले दिल के आदमी थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि वे किसी को भी तुम नहीं बोलते थे। हमलोग जो कि उनसे इतने छोटे थे उनसे, हमलोगों को भी वे हमेशा आप कहते थे। आप क्‍या लिख रहे हैं इन दिनों, कहते वे।

 

उस समय तो दिनकर जी भी थे। वे भी क्‍या काफी हाउस की बैठकी में शामिल होते थे। उनसे मुलाकात होती थी आपकी ?

 

दिनकर जी के तो रेणु जी भक्‍त थे। दिनकर जी से मेरी पहली मुलाकात रेणु जी ने ही करवायी थी। वही मुझे छह नंबर रोड में उनके घर लेकर गये थे।

जाने के पहले रेणु जी ने कहा कि उनके यहां चलना है तो जरा ठीक ठाक होकर आइएगा। बाल वाल कुछ बना लीजिएगा।

 

तो उसी समय भी आप लंबे बाल, दाढ़ी रखते थे। आप कहते हैं कि राजकमल और रेणु आपके गुरु रहे। दोनों क्‍लीन शेव्‍ड रहते थे। फिर आपने यह बाल, दाढी वाली गुरूता कहां से प्राप्‍त की , किससे प्रेरित थे आप, टैगोर से या निराला से ?

 

नहीं, किसी से प्रेरित नहीं थे। बहुत बड़ी दाढ़ी टैगोर जैसी तो नहीं रखते थे हम। हां कुछ बड़ी रखते थे। मुझे अच्‍छा लगता था।

तो रेणु जी ने कहा कि आप ठीक ठाक होकर आइए और चलकर दिनकर जी को अपनी कविता ‘जनता का आदमी’ का एक अंश सुनाइए।

 

तो उस समय आप ‘जनता का आदमी’ लिख चुके थे, और उसे रेणु जी को सुना चुके थे ?

 

मतलब लिख रहे थे उसको। रेणु जी उसका एक हिस्‍सा सुन चुके थे। जनता का आदमी कविता 1972 में छपी आगे। दिनकर जी की जो डायरी ज्ञानपीठ अवार्ड मिलने के बाद प्रकाशित हुई थी उसमें उन्‍होंने जनता का आदमी कविता के रेणु जी और उनके सामने हुए उस पाठ की चर्चा की है।

वह चीन और भारत की लड़ाई का समय था और दिनकर जी उससे बहुत आहत थे। वे पंडित नेहरू से जुड़े हुए थे। 1964 में इन्‍हीं परिस्थितियों में नेहरू गुजर गये और इससे दिनकर बहुत दुखी थे।

रेणुी जी दिनकर के अलावे जेपी से भी बहुत जुड़े थे। दिनकर को रेणु जी बड़ा कवि मानते थे। रेणु हमलोगों को कहते थे कि दिनकर जी को पढकर ही हमलोगों में गांव से आसक्ति पैदा हुई थी।

जयप्रकाश जी ने जो आंदोलन शुरू किया था तो उनका जो अभियान चलता था उसमें तमाम लोग शामिल थे। उनमें सत्‍येन्‍द्र नारायण जी, गोपीवल्‍लभ जी, नागार्जुन, रामवचन राय आदि थे। जेपी आंदोलन के समय नागार्जुन, रेणु नुक्‍कड़ सभाएं करते थे। नुक्‍कड़ पर बाबा जब कविता सुनाते तो खूब भीड़ जमा होती थी।

 

आप भी उसमें शामिल रहते होंगे ?

 

हम उस आंदोलन को लेकर क्रिटिकल थे। हमलोगों का अलग मंच था। हमारा सोचना था तब कि भ्रष्‍टाचार को लेकर इतना बड़ा आंदोलन चलाने की क्‍या जरूरत है, जयप्रकाश जी को। भ्रष्‍टाचार तो सिस्‍टम का बायप्रोडक्‍ट है तो लड़ाई सिस्‍टम बदलने को होनी चाहिए और उसमें मजदूरों को भी भाग लेना चाहिए। जेपी आंदोलन में मजदूर किसान कम संख्‍यां में थे। सीपीआई भी उस आंदोलन के विरोध में थी पर हमारा स्‍टैंड सीपीआई का नहीं था। हमलोग बीच का कोई रास्‍ता निकालना चाहते थे।

 

रेणु जी की इस पर क्‍या राय थी। क्‍या वे आपके मंच में शामिल होते थे?

 

रेणु जी से इस पर बात नहीं होती थी। वे हमारे मंच पर नहीं आते थे। कभी कभी सतनारायण जी आ जाते थे हमारे मंच पर। सायंस कालेज और पटना कालेज के विद्यार्थी इस सोच में हमलोगों के साथ थे। अरुण कमल और नंद किशोर नवल भी एक बार हमलोगों के साथ मंच पर आए थे। नागार्जुन के बेटे सुकांत सोम भी हमलोगों के साथ रहते थे। वे भी कविताएं लिखते थे और किसी की परवाह नहीं करते थे।

 

दिनकर जी तो शामिल थे जेपी आंदोलन में। उनकी कविताएं तो उस आंदोलन का हिस्‍सा बनी थीं - सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ?

दिनकर जी भी शामिल नहीं थे। उनकी कविता किसी ने पढ़ी होगी। दिनकर जी की कविता जयप्रकाश जी पढते थे।

उस समय हमलोग मंच से गीतों का पाठ करते थे। एक गीत हमलोग पढते थे, गीतकार का नाम याद नहीं आ रहा, दिल्‍ली के थे।

 

दिल्‍ली से वे गीतकार क्‍या पटना आए थे, आंदोलन में भाग लेने ?

 

नहीं उनका गीत हमलोगों ने मंच से गाने के लिए चुना था  - गीत था -

 

नई चहिए नई चहिए

सरकार सयानी नई चहिए

अमेरिका का दाना पानी नई चहिए।

 

उस समय एक छात्र युवा संघर्ष समिति थी उसमें शिवानंद तिवारी, सुशील मोदी, नीतिश कुमार आदि शामिल थे।

 

क्‍या रेणु से परिचित थे नीतिश कुमार ?

 

रेणु को सबलोग जानते थे।

 

नीतिश कुमार की कोई साहित्यिक रूचि तो नहीं रही होगी

 

नहीं, ऐसी रूचि बहुत लोगों की थी। मैला आंचल को तो मांस बेसिस पर पढा गया। आप इसका अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि मैला आंचल इतनी लोकप्रिय कृति हुई कि राजकमल प्रकाशन की शीला संधू ने  ...

 

रेणु जी के लेखन को आप किस रूप में देखते हैं, उसकी रिपोर्ताज शैली को लेकर आपका क्‍या सोच है ?

 

हां, मैला आंचल है, परती परिकथा है। रेणु जी पर कुछ लोगों ने सवाल उठाया था कि उनकी भाषा रिपोर्ताज शैली की है। रेणु जी अखबारों में रिपोर्ताज और कॉलम लिखते भी थे। इसका जवाब देते आचार्य नलिन विलोचन शर्मा जी ने कहा कि यह एक अद्भुत शैली है यथार्थ को देखने की, इसके फार्म पर मत जाइए। फार्म महत्‍वपूर्ण नहीं है। हर लेखक अपना अलग फार्म लेकर आता है। पर उस फार्म को उसके कथ्‍य के आलोक में ही देखना चाहिए। जो रचना की अंतरवस्‍तु है उसी के अनुरूप उसका फार्मेट निर्मित होता है। रेणु जी गांव की तमाम गतिविधियों से परिचित थे और रेणु जी का यथर्थवाद उसी ग्रामधारा का विकास है।

 

कुछ लोग रेणु जी के लेखन पर ‘ढोढाय चरित मानस’ के रचनाकार सतीनाथ भादुड़ी की छाया देखते हैं इसे आप किस तरह लेते हैं ?

 

हां रेणु जी उनसे मिलकर प्रभावित हुए थे और उनकी कृतियों से भी प्रभावित हुए थे। उनकी कृति ‘जागोरी’ और ‘ढोढाय चरित मानस’ से प्रभावित थे वे जिसे भारती भवन वालों ने भी छापा था। पर रेणु जी का सोचने का अपना स्‍वच्‍छंद तरीका था। आजादी के बाद का जो भारत है उसमें हमारे समाज की जो विषमताएं हैं और उनकी जो चुनौतियां हैं उसको रेणु जी ने बहुत गहराई से समझा है। जातियों की जो समस्‍या थी जिसमें तमाम जातियां और समाज परिवर्तन करने वाले लोगों का आचार व्‍यवहार था, उसे रेणु जी ने गहराई से चित्रित किया है अपनी कृतियों में।

रेणु जी बहुत बड़े एक्टिविस्‍ट भी थे। अपने समय के तमाम सामाजिक आंदोलनों से वे प्रभावित होते थे और उस प्रभाव को अपनी कृतियों में बहुत सादगी से जाहिर करते थे।

रेणु जी कभी लगातार शहर में नहीं रहते थे दो तीन महीने शहर में रहकर वे उससे उब जाते तो गांव चले जाते थे। उनके कई ग्रामीण पात्र सजीव नामधारी थे।

 

रेणु की कहानियों में आपकी स्‍मृति में कौन सी कहानियां किस रूप में हैं ?

 

उन्‍होंने अद्भुत कहानियां लिखीं। लाल पान की बेगम, रसप्रिया, आदिम रात्रि की महक आदि उनकी चर्चित कहानियां हैं। तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम जिस पर राजकपूर ने फिल्‍म बनाई। पहली बार फिल्‍म नहीं चली और सदमें में शैलेंद्र की जान चली गयी। दूसरी बार वह खूब चली। उसके गाने भी शैलेन्‍द्र ने लिखे थे।

शैलेन्‍द्र एक ऐसे लेखक थे जिन्‍हें नागार्जुन का भी सान्निध्‍य मिला था। उनके मन में किसी के प्रति कोई दराव नहीं था। रेणु में भी जाति को लेकर कोई आग्रह नहीं था।

पंचलाइट उनकी अद्भुत कहानी है। लाल पान की बेगम , रसप्रिया के अलावे संबदिया है। मुझे उनकी रसप्रिया और संबदिया कहानी बहुत प्रिय है। इन कहानियों में महाकाव्‍यात्‍मक आख्‍यान हैं। भारत पाक का विभाजन और एक टूटते हुए सामंती समाज की पीड़ाएं उसमें अभिव्‍यक्‍त हुई हैं। वे समाज को बहुत गहराई से देख पाते थे और उसे कहानियों में लाते थे।  कल्‍पना से भी ज्‍यादा उनमें जिज्ञासा थी।

 

विश्‍व साहित्‍य में रेणु जी की रूचि कैसी थी, किन कृतियों का वे जिक्र करते थे बातचीत ?

 

दुनिया के श्रेष्‍ठ साहित्‍य से अच्‍छी तरह परिचित थे वे। मिखाइल शोलोखोव के बारे में उन्‍होंने ही मुझे बताया था। वे बोले कि उनको पढिए। उनको पढकर आप लड़ाई के बारे में तो जानेंगे ही आप घोड़ों के बारे में भी जानेंगे और अनोखी दुर्लभ स्त्रियों के बारे में भी। बोले कि उसे पढते हुए आप दौड़ते घोड़ों के पसीने की गंध तक महसूस करेंगे।

रेणु जी की घ्राण शक्ति भी अद्भुत थी जिसके प्रयोग से वे अपनी भाषा को ताकत देते थे।

रेणु ने भिखारी ठाकुर से सीखा। प्रेमचंद से भी सीखा। कर्पूरी जी से सीखा। डॉ लोहिया और आचार्य नरेन्‍द्र देव से सीखा। उनकी पढाई बीएचयू से हुई थी और वे केदारनाथ सिंह आदि से परिचित थे। आगे उन्‍हें पढाई में मन नहीं लगा। अपना गांव घर ज्‍यादा याद आता था। तो उन्‍होंने पढाई बीच में छोड दी और गांव लौट गये थे। उन्‍होंने नौकरी भी की थी इलाहाबाद रेडियो में, तब तक वे मशहूर हो चुके थे।

 


परिंदे में प्रकाशित