वरिष्ठ कवि सविता सिंह के संपादन में आए 'समकालीन हिंदी कविता' में 'प्रतिरोध का स्त्री स्वर' से गुजर गया एक बार। अच्छा लगा कि संकलन के आधे से अधिक कवियों से मैं ढंग से परिचित नहीं था। कुछ से फेसबुक तक ही सीमित परिचय था तो इस किताब ने उनके रचनाकर्म से अपरिचय समाप्त किया।
यह
कविताएं बताती हैं कि कोई भी समय गूंगा नहीं होता। जवाब मिलता है, हर
आतंकी सत्ता को जवाब मिलता है। संकलन में वर्तमान दशक में सत्ता की
जन-विरोधी गतिविधियों का प्रतिकार करती और उन पर तार्किक सवाल उठाती
कविताएं हैं।
संकलन में
रचनाकारों के लिए 'कवि' और 'कवयित्री' दोनों शब्दों का प्रयोग है। कवयित्री
की जगह कवि शब्द के प्रयोग पर जोर दिखता है आजकल, आधुनिक स्त्री-विमर्श
के लिहाज से यह उचित भी है। फिर कवयित्री उलझन में भी डालता है लोग अक्सर
कवियत्री लिख डालते हैं। खैर, मुझे लगा कि केवल कवि शब्द का ही प्रयोग
अच्छा रहता और स्त्री-स्वर कहना भी कवयित्री लिखने की तरह अर्थ को सीमित करता है। 'प्रतिरोध के स्वर' लिखना ही पर्याप्त होता। पुस्तक में कुल बीस कवि संकलित हैं। प्रस्तुत हैं उनपर कुछ नोट्स -
संकलन का आरंभ वरिष्ठ कवि शुभा की कविताओं से होता है। शुभा का स्वर
गहन बौद्धिक है, पर उनकी संवेदना ज्ञान से पुष्ट है, इसलिए वह वृथा चुनौती
नहीं देती, बल्कि आपकी आँखें खोल आपको आपके निज के दर्शन कराती है -
वे लिंग पर इतरा रहे होते हैं
आख़िर लिंग देखकर ही
माता-पिता थाली बजाने लगते हैं
दाइयाँ नाचने लगती हैं
लोग मिठाई के लिए मुँह फाड़े आने लगते हैं...।
संग्रह में सर्वाधिक पन्ने शोभा सिंह को दिए गए हैं। शोभा सिंह के यहां सहज विवरण हैं जीवन के, और संघर्ष की मिसाल बन चुकी स्त्री
चरित्रों के चित्र हैं, बिलकिस बानो से लेकर गौरी लंकेश तक। औरत बीड़ी
मजदूर शीर्षक एक कविता है शोभा की जिसमें बीड़ी मजदूर का त्रासद जीवन दर्ज
है। संघर्ष स्थल का प्रतीक व दस्तावेज बन चुके 'शाहीन बाग' पर कई कविताएं
हैं संग्रह में शोभा लिखती हैं -
इसी मिट्टी में दफ़न हैं हमारे पुरखे
यह मिट्टी
दस्तावेज़ हमारा ।
निर्मला गर्ग की कविता का चेहरा वैश्विक है। अपने समय की मुखर आलोचना है उनके यहां। उनकी छोटी कविताएं मारक हैं -
मूर्तियो!
तुम ही कर दो इंकार
स्थापित होना
फिर प्रवाहित होना
नहीं चाहिए आस्था का यह कारोबार!
कात्यायनी के यहां संघर्ष की जमीन पुख्ता है और उनके इरादे पितृसत्ता को विचलित करने वाले हैं -
यह स्त्री
सब कुछ जानती है
पिंजरे के बारे में
जाल के बारे में
यंत्रणागृहों के बारे में
उससे पूछो
पिंजरे के बारे में पूछो...
रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबांसियाँ
इन्हें समझो।
इस स्त्री से डरो।
अजंता देव की कविताओं में वर्तमान सत्ता की वस्तुगत आलोचना है -
मैंने बहुत बाद में जाना
कुर्सी पर सफ़ेद चादर ओढ़ाने से वह हिमालय नहीं होता
गत्ते का मुकुट लगाए खड़ी वह भारत माता नहीं
मेरी सहेली है...
युद्ध
पर दो कविताएं हैं अजंता देव के यहां, 'युद्धबंदी' और 'शांति भी एक युद्ध
है'। इनमें अंतर्विरोध है। वे लिखती हैं - 'हर युद्ध की मैं बंदी हूं हर
युद्ध मुझसे छीनता रहता है नीला आसमान।' यहां 'हर युद्ध' में 'शांति' भी
शामिल हो जाती है अगर वह भी 'एक युद्ध है' तो। युद्ध को बेहतर व्याख्यायित
करती है प्रज्ञा रावत की कविता 'फतह' -
जब मनुष्य जीवन के संघर्षों में
खपता है वो कुछ फ़तह करने
नहीं निकलता
जिनके इरादे सिर्फ़ फ़तह करने
के होते हैं, झंडे गाढ़ने के होते हैं
उनसे डरो ...
प्रज्ञा के यहां इमानदारी पर जोर देती कविता है 'ईमानदार आदमी' -
पर सच तो है यही कि
ईमानदारी निहत्थी ही सुंदर लगती है ...
मुझे
लगता है ईमानदारी अपने में कोई मूल्य नहीं है, इसे संदर्भ में ही जाना जा
सकता है। यह एक हद तक वर्गगत स्वभाव है। अक्सर सुनने में आता है ईमानदार
अफसर, ईमानदार चपरासी सुना नहीं कभी। यूं प्रज्ञा के संदर्भ वैश्विक हैं और
उनका स्वर मात्र स्त्री स्वर नहीं मानुष स्वर है।
चार दशक पहले आलोक धन्वा जैसे कवि ने जैसी स्त्री की कल्पना की थी, वह सविता सिंह की कविताओं में मौजूद है -
वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी ...
सविता
की कविताएँ बताती हैं कि अब उन्हें दूसरे की करुणा और परिभाषाओं की जरूरत
नहीं। अपने हिस्से के अँधेरों को कम करना, उनसे जूझना सीख गई हैं सविता की
स्त्रियाँ -
मैं अपनी औरत हूँ
अपना खाती हूँ
जब जी चाहता है तब खाती हूँ
मैं किसी की मार नहीं सहती
और मेरा परमेश्वर कोई नहीं...।
रजनी तिलक की कविताएं विवरणात्मक हैं। कुछ वाजिब सवाल उठाए हैं उन्होंने -
पूछती हूँ तुमसे मैं
एक योनि सवर्ण बहिना की
उन्हें अपनी योनि पर
ख़ुद का नियंत्रण चाहिए
तब दलित स्त्री की आबरू पर
बाजारू नियंत्रण क्यों?
युद्ध के मसले पर रजनी साफ करती हैं कि - 'बुद्ध चाहिए युद्ध नहीं'।
निवेदिता झा की कविताओं में जीवन और संघर्ष की नई जमीन है -
हे विष्णु
हे जगत के पालनहार!
मेरा सुख तुम्हारे पाँव तले कभी नहीं था ...
स्त्री स्वर से आगे निवेदिता के यहां भी मानुष स्वर है -
मैं तुमसे तुम्हारी प्रार्थना के बाहर मिलना चाहता हूँ
मनुष्य की तरह ।
'दलित स्त्री के प्रश्नों पर लेखन में निरंतर सक्रिय' अनिता भारती दलित दिखावे पर भी सवाल खड़े करती हैं -
क्या मात्र अपने को
नीली आभा से
ढँक लेना ही
और उसका ढिंढोरा पीट देना ही
आंदोलनकारी हो जाना है?
'प्रतिघात' कविता में अनीता सरलता पर सवाल उठाती हैं -
मैंने अपने अनुभव से जाना
ज्यादा सरल होना अच्छा नहीं होता...
यहां वीरेन डंगवाल याद आते हैं -
इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी..
हेमलता महेश्वर अपनी कविताओं में समकालीन संघर्ष को मुखर करती हैं, ये कविताएं साबित करती हैं कि शिक्षा शेरनी का दूध है -
मैंने जन्मजात प्रतिभा की मान्यता को अर्जित योग्यता में बदला
बेगार करना छोड़
रोज़गार अपनाया...
हेमलता
की तरह वंदना टेटे की कविताओं में भी आज का संघर्ष मुकम्मल ढंग से जाहिर
होता है। वर्तमान संघर्ष की ठोस शक्ल आदिवासी समाज की स्त्रियों के लेखन
में दिख रही, प्रतिरोध का मुख्य स्वर वहीं से आ रहा -
चेहरा हमारा
सदियों से सूर्पनखा है, बहन
और इतिहास हमारी नाक
जिसे काटते रहते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम ...
रीता दास राम की कविताओं में प्रतिरोध का स्वर स्पष्ट नहीं है। उनका विश्वास बरकरार है पुरानी स्त्री पर -
हार भी तुम में
मानवता की जीत भी तुम ...
नीलेश रघुवंशी की कविताओं में दृष्टि की गहनता आश्वस्त करती है -
खेल की आड़ में युद्ध-युद्ध खेलोगे
तो मैदान नहीं बचेंगे फिर
बिना खेल मैदान के
पहचाने जाएँगे हम ऐसे देश के रूप में
जो युद्ध को एक खेल समझता है ...
अपने समय की विकृतियों पर वे बारहा सवाल करती हैं -
ये कैसा समय है.
जिसमें
दूध की मुस्कान में भी
खोजे जाते हैं अर्थ ...
निर्मला
पुतुल की कविताओं में वैचारिकता बढ़ी है, स्त्रियां दलित व सर्वहारा होती
हैं, से आगे बढ़कर स्त्रियों के वर्ग की शिनाख्त करती हैं वो -
एक स्त्री गा रही हैं
दूसरी रो रही है
और इन दोनों के बीच खड़ी एक तीसरी स्त्री
इन दोनों को बार-बार देखती कुछ सोच रही है ...
निर्मला दिखलाती हैं कि आदिवासी समाज में भी स्त्री उसी तरह प्रताड़ित है -
हक़ की बात न करो मेरी बहन ...
सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की चर्चा न करो, बहन
मिहिजाम के गोआकोला की सुबोधिनी मारंडी की तरह तुम भी
अपने मगज़हीन पति द्वारा
भरी पंचायत में डायन करार कर दंडित की जाओगी
माँझी हाड़ाम पराणिक गुड़ित ठेकेदार, महाजन और
जान-गुरुओं के षड्यंत्र का शिकार बन...
सीमा
आजाद के एक्टिविज्म से मेरा परिचय कराया था फेसबुक ने। सीमा के यहां
संघर्ष को मुखर करने का अंदाज नया है। उनके जीवन संघर्ष की जीवंतता जिस तरह
उनकी कविताओं में आकार पाती है वह नया आगाज है संघर्षशील कविता की दुनिया
में -
ब्रह्मांड की तरह फैलते
मेरे वजूद को
तुमने समेट दिया
तीन फुट चौड़ी आठ फुट लंबी
कब्र जैसी सीमेंटेड सीट में
मैने इसके एक कोने में
सज़ा लिया
अमलतास के लहलहाते फूलों का गुच्छा ...
मारिया सिसो की कविता का पोस्टर चिपका दिया है ठीक आँख के सामने...।
जीवन और कविता की सहज वैश्विकता को साधती हैं सीमा आजाद।
पारंपरिक भारतीय अहम को सुशीला टाकभौरे की कविताएं चुनौती देती हैं -
सूरज,
तुम आना इस देश अंधकार फैला है ...
वे देखती हैं कि किस तरह कोरोना काल में ईश्वर को चुनौती मिलती है। कोरोना-काल की विडंबनाएं सुशीला की कई कविताओं में दर्ज हैं -
यह कैसा समय आया है 'कोरोना-काल' में
ईश्वर को ही कर दिया है बंद
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों में ...
कविता कृष्ण पल्लवी की कविताओं में भी संघर्ष की इबारत चमक रही है और जीवन को अपने विवेक से जीने का जज्बा परवान चढ़ता दिखता है -
ख़ुद ही मैंने जाना
असफलता के सम्मान के बारे में
भीड़ के पीछे न चलने का
फैसला मैंने ख़ुद लिया...
भीड़
की भेड़ चाल से बचने और असफलता के सम्मान की बात कविता करती हैं। यह
स्पष्ट तथ्य है कि सफलता मात्र वह लहर है जो बाकी लहरों के ऊपर दिखती है,
क्षणभर को, यह समंदर या जीवन का सच नहीं है। यू कविता के यहां गुस्सा काफी
है और गुस्से में वह कुत्तों के गू की 'ढेरी' तक ढूंढ लेती हैं।
जसिंता
केरकेट्टा के पास अपने समय को देखने और विश्लेषित करने की द्वंद्वावात्मक
दृष्टि है। 'पहाड़ और प्यार' उनकी महत्वपूर्ण कविता है, जिसमें वे भारतीय
सामाजिक जीवन में प्रेम की त्रासदी को देखती हैं और दिखाती हैं। वे दिखाती
हैं कि एक ओर तो प्रेम का बाजार है फिल्मी और दूसरी और प्रेम के नाम पर गला
काट ले जाते हैं लोग -
प्यार जीवन से कब निकल गया
और किसी सिनेमा हॉल के
बड़े से पर्दे पर पसर गया
पता ही नहीं चला...
प्रेम पर विचार करते हुए वे पहाड़ और जमीनी विस्तार के अंतर को रेखांकित करती हैं -
पहाड़ स्त्री के नाम की गालियाँ नहीं जानता ...
'स्त्रियों का ईश्वर' कविता में वे स्त्री जीवन की विडंबना को दर्शाती हैं और उस पर सवाल खड़े करती हैं -
सबके हिस्से का ईश्वर
स्त्रियों के हिस्से में क्यों आ जाता है?
शोषित आदिवासियों का पक्ष निर्मला पुतुल के यहां उभरता है तो जसिंता के यहां वह प्रतिरोध को सन्नध दिखता है -
कविता चलाती है उसकी पीठ पर हँसिया
तोड़ देती है उसकी गन्दी अँगुलियाँ
और चीखती है
बंद करो कविता में ढूँढ़ना आदिवासी लड़कियाँ ।
रुचि
भल्ला की कविताओं से संकलन का अंत होता है। उनकी कविताओं में एक रोचक
खिलंदड़ापन है। अपनी कविता में वे गंभीर सवाल खड़े करती हैं -
कब्र खोदने के इस दौर में
देश न खो बैठे अपना नाम
सच है यह भय कि नाम बदलने का यह खेल कहीं देश के नाम खोने तक ना चला जाए। आखिर जंबूद्वीप, आर्यावर्त आदि कई नाम खो चुका है यह देश।
कुल मिलाकर प्रतिरोध
के जज्बे को यह संकलन नई गति देता है। इस संग्रह के बाहर भी तमाम नाम हैं,
जो संघर्ष को नई सूरत देते रहते हैं। जैसे- रूपम मिश्र, ज्योति शोभा, अनुपम सिंह आदि।
भविष्य में संग्रह के दूसरे, तीसरे भाग संभव किए जा सकते हैं। संकलन में दो
पेज की संपादकीय भूमिका में भाषा और लिंग की चार-छह भूलें खटकती हैं।
जैसे- वेबसाइट की जगह बेवसाइट लिख देना आदि।
समकालीन जनमत में प्रकाशित
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