सोमवार, 8 जुलाई 2024

हम चोर नहीं हैं

 यात्रा कथा  - यादवेन्द्र


कुछ साल पहले की बात है, मैं रेल के स्लीपर में पटना से श्रमजीवी एक्सप्रेस से मुरादाबाद जा रहा था। मेरी बर्थ किनारे वाली सीट पर नीचे थी और सामने की छह सवारियों में से दो दिल्ली में बच्चों के इलाज के लिए जाने वाले लोग थे जिनके साथ खुद बच्चे भी थे - बार बार की यात्राओं में मैं देखता रहा हूं कि लाइलाज मुश्किल बीमारियों और गाँव में कोई सुविधा न होने पर चमत्कार की आशा लेकर एम्स की ओर रुख करने वालों की संख्या बढ़ रही है। बात तब की है जब पटना में एम्स नहीं खुला था।

एक व्यक्ति करीब साठ साल का था जो अपनी घूंघट निकाले पत्नी को पहली बार दिल्ली ले जा रहा था - लगभग सोई सोई  चल रही थी उसकी पत्नी। उसकी बर्थ ऊपर की थी और बार बार की कोशिशों के बाद भी वह ऊपर चढ़ नहीं पा रही थी - दिल्ली में उसका पति बरसों से रह रहा था और कोई छोटा मोटा काम करता था।उसका पति अपनी पत्नी की यह उछाड़ पछाड़ बड़े निस्पृह भाव से देख रहा था...मदद करना तो दूर, हर बार स्त्री की कोशिश नाकाम होते देख कर दुनिया भर के ताने देता जा रहा था। दोपहर की गर्मी में उसने ठण्डा बेचने वाले से कोक की एक बोतल ली, ज़िद करने पर पत्नी ने बड़ी अनिच्छा से एक घूँट भरी और गला जलने की बात कह के परे हट गयी। बातचीत में खुलासा हुआ कि गांव में रहने वाली उसकी पत्नी को लो बी पी की शिकायत रहती है और पति उसका इलाज करवाने के लिए दिल्ली ले जा रहा था।

एक आठ दस साल के बच्चे के साथ उसका पिता जा रहा था जो उन सब में लगभग वाचाल होने की हद तक सबसे ज्यादा मुखर था .... लो बी पी की बात सुनते एक लाइन से उसने आठ दस दवाइयों के नाम धड़ल्ले से बता दिए और सामने वाले यात्री से पूछने लगा कि उसकी पत्नी कौन सी गोली खाती है। उस आदमी के गोली का नाम न बता पाने पर हिकारत और हैरानी से भरी नौजवान की प्रतिक्रिया से मैं विचलित हो गया - कई बार मैं भी तो अपनी दवाई का नाम नहीं याद रख पाता। तो क्या यह ऐसा गुनाह है जिसके लिए किसी को जलालत भुगतनी पड़े ?पूछने पर उसने बताया कि बिहार शरीफ़ में वह दवा का कारोबार करता है और एक ही साँस में नए नए सरकारी नियम के चलते इस बिजनेस में भारी मुनाफे में कैसी कमी हुई है उसका अर्थशास्त्र भी मुझे और सबको समझा गया। दूसरे बीमार बच्चे के युवावस्था में ही अधेड़ जैसे दिखाई देने वाले मां पिता बेटे की उम्र के अनुकूल शरीर और दिमाग की वृद्धि न हो पाने से दुखी और हताश थे ...गाँव से बार बार पटना आकर काफी पैसा फेंकने के बाद उन्होंने भी दिल्ली जाकर एम्स में दिखाने का हौसला किया था। करीब दस साल का बच्चा खूब सुदर्शन था पर न बोल सकता था न ही स्वयं चल फिर पाता था। अबतक डाक्टर यही बोलते रहे थे कि पंद्रह सोलह की उम्र तक आते आते बच्चे की दशा अपने आप सुधर जायेगी -- शायद दिल्ली के बड़े डाक्टरों से भी ऐसा भरोसा मिलने की आस लिए वे पटना से बाहर निकले थे , बड़बोला दवा कारोबारी उनको एम्स में दिखाने के अपने तजुर्बे और ट्रिक समझा रहा था। शाम होते होते बच्चे को लेकर बाथरूम गए माँ पिता के वहाँ से ओझल होते ही उसने बैठे हुए अन्य लोगों के बीच अपना एक्सपर्ट ओपीनियन दे दिया कि बच्चा बस कुछ दिनों का मेहमान है और सभी डाक्टर सिर्फ़ पैसे चूस रहे हैं और माँ पिता को बेवकूफ बना रहे हैं। बार बार यह भी बोलता कि बच्चे के माँ पिता जान पहचान के होते तो वह उनको असलियत बता देता और खा म खा पैसे पानी में फेेंकने से बचा लेता --- मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह उसकी इंसानियत/ सदाशयता बोल रही है या अधकचरे ज्ञान का दम्भ?

अँधेरा होने के बाद जब बत्ती बुझा कर सोने का उपक्रम किया जाने लगा तो बूढ़े ने नीचे की सीट हथिया ली और बीमार और ऊपर चढ़ने में अबतक नाकाम पत्नी को ऊपर जाकर सोने का फरमान सुना दिया -- हिंया चोरी चमारी के डर हो ,जा ऊपर सूत रह! फिसल कर दो बार गिरने पर भी जब वह ऊपर नहीं चढ़ सकी तो मैने साथ की दूसरी स्त्री से कहा कि हाथ लगा कर उस यात्री को सहारा दे दे। जैसे तैसे वह ऊपर पहुँची ही थी कि पूरे डिब्बे में उसके पति के खर्राटे गुंजायमान होने लगे।

सोते सोते रात में शोर शराबे से अचानक नींद टूटी -- बगल के कूपे से "पकड़ो, चोर.. चोर" का आहवान। आनन फानन में बुझी हुई लाइटें जलने लगीं और जिसको मौका मिला शोर वाले कूपे की ओर लपकता भागता हुआ दिखाई दिया। हम भी दौड़े, हमारे कूपे के सहयात्री भी दौड़े -- तभी गुलाबी रंग की शर्ट पहने एक लड़के पर सबकी नजर गयी जिसको उस कूपे में यात्रा कर रहे औरत मर्द ( गिनती में औरतें ज्यादा थीं ) बुरी तरह से पीटते जा रहे थे। दवा कारोबारी भी हो हल्ला करता हुआ वहाँ पहुँच गया और पिटते बच्चे की बुशर्ट पहचान कर सकपका गया --- उसके मुँह से "मारो साले को ...चोर को भागने मत देना" ... निकलते निकलते बीच में ठहर गया - आधा अंदर आधा बाहर। बिजली का जैसे करेंट लगा हो, उसको एकदम समझ आ गया कि पिटने वाला बच्चा कोई चोर नहीं बल्कि उसका अपना बीमार बेटा ही था। वह बेटे को पूरी तरह से घेर कर जमीन पर लेट गया अपनी अदम्य सामाजिक सक्रियता का प्रमाण देने को लालायित सारी भीड़ को जैसे काठ मार गया हो। देखते ही देखते अपना अपना चेहरा झुकाये हुए लोगबाग अपनी जगह खिसक लिये। जैसे ही अराजक शोर शराबा थोड़ा थमा, बच्चे की बिलखती हुई आवाज सुनायी दी - "हम चोर नहीं हैं, पानी प्यास लगा था उसी को लेने गए थे।" उसके बाद देर तक वह अपने पिता की गोद में दुबक कर रोता रहा और अबतक सबको ज्ञान और तजुर्बे का रौब झाइ रहे दवा कारोबारी के मुँह में बोल नहीं थे -  अपने आपको कोसने के सिवा उसके हाथ में कुछ नहीं बचा था।वह बार बार अपने माथे पर हाथ मार मार कर अफ़सोस कर रहा था कि सफ़र में भला उसको इतनी गहरी नींद क्यों सोना चाहिए था ,बच्चे को कुछ हो गया होता तो ? दर असल हुआ यह था कि प्यास लगने पर ऊपर की बर्थ से बच्चा नीचे उतरा और पिता के पास रखी पानी की बोतल टटोलने लगा। जब बोतल खाली मिली तो उस मासूम ने सोचा क्यों न जा के बाथरूम के पास लगी टोंटी से ही पानी पी ले... टोंटी में भी पानी नहीं था। लौटते हुए अंधेरे में वह अपनी बर्थ भूल गया और बगल के कूपे को अपना समझ कर सोये हुए अन्य यात्रियों को छू कर पिता को ढूँढने लगा। तभी अनजान उँगलियों की छुअन से सोया हुआ यात्री अचकचा कर उठ गया और चोरी या उठाईगिरी की आशंका से चोर चोर चिल्लाने लगा --- एक का चिल्लाना सुनकर दूसरे तीसरे भी चिल्लाने लगे। उस अफरा तफरी में बच्चे की "हम चोर नहीं हैं "की चोट खायी घबरायी आवाज़ किसी को भला कहाँ सुनायी देती।

नींद उचट गयी थी और मन गहरी उदासी से भरा हुआ था... लेटे लेटे सोचने लगा शम्भु मित्रा की 1956 की फ़िल्म "जागते रहो" में तमाम जलालत के बाद प्यासे राजू ( राज कपूर ) को शहर की बाहर से न दिखाई देने वाली दुनिया ने भी ऐसे ही धकियाया और चोर चोर कह के हॉका था....उसके "मेरा कसूर क्या है ?" जैसे निर्दोष और बुनियादी सवाल का जवाब भी किसी आक्रमणकारी किरदार के पास नहीं था।पर फिल्म में इतनी जद्दोजहद के बाद रात के खत्म होते होते नरगिस जैसी सुंदरी सुरीले गाने के साथ पानी पिलाने को मिल गयी थी लेकिन हमारी यात्रा के दौरान प्यासे बीमार बच्चे को दर्जनों घूसों की मार तो मिल गई पर क्षमायाचना और पानी फिर भी नहीं मिला --- मध्यरात्रि में पानी बेचने वाले भी नहीं थे।

पर सफर सिर्फ इस एक हादसे के साथ संपन्न नहीं हुआ --- ऊपर से सब कुछ सामान्य होने के करीब एक घंटे बाद अचानक उठी तेज आवाज़ ने नींद से फिर जगा दिया। अँधेरे में साफ़ साफ़ दिखाई तो नहीं पड़ रहा था पर इतना जरूर समझ आ गया कि पास में कोई स्त्री रो रही है। बत्ती जलाने पर अपने लो बी पी के इलाज को दिल्ली जाती दुखियारी स्त्री फर्श पर बैठी फूट फूट कर रो रही थी ... बच्चे की रुलाई सुनकर उस से रहा नहीं गया और वह उसको चुप कराने और चोट को सहला कर स्नेह देने के लिए नीचे उतर गयी थी और अब उस से पहले की तरह ऊपर की बर्थ पर चढ़ा नहीं जा रहा था। पति को झगझोड़ कर उसने ऊपर चढ़ा देने की बिनती की पर सहारा तो कहां मिलना था उसकी जगह उलाहना और धक्का ही मिला। नीचे सब के फैल कर सोए रहने के कारण कोई जगह बैठने को भी नहीं थी .... और उस दुखियारी बीमार से अपने आप ऊपर की बर्थ पर चढ़ा भी नहीं जा रहा था।

1 टिप्पणी:

कुमार अरुण ने कहा…

उस वाचाल आदमी के प्रति हमारी जो वितृष्णा थी, उसकी सजा उसके बीमार बच्चे को भुगतनी पड़ी - प्रकृति की इस व्यवस्था को, कार्य-कारण की अजीब शृंखला को हम कैसे समझें .. हालांकि पीड़ा में वह वाचाल आदमी भी है, किंतु उस स्त्री की पीड़ा तो दुस्सह है जिससे बच्चे का रोना नहीं सुना जाता है .. किंतु वह बार बार लाचारी, बेचारगी और असहायता में पड़ जाती है - और उसका पति- कथा में सबसे ज्यादा गुस्सा उसी पर आता है, जो कामचोर, आलसी, आरामतलब, असंवेदनशील है, और मिट्टी के लोंदे की तरह पड़ा रहता है. वह इतना जड़ है कि अपनी छवि की भी उसे जरा चिंता नहीं है .. इच्छा होती है, उसे थप्पड़ मारकर उसकी सीट पर से उठाकर खड़ा कर दूं, और पत्नी को ऊपर चढ़ने में सहायता केलिए उसे मजबूर कर दूं ..