शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

स्मृतियों की नदी - यादवेन्‍द्र

 किताब के बहाने



दिल्ली की 'ओखला हेड' जैसी छोटी नहर से शुरू हुई यह रोमांचक यात्रा यमुना में  मथुरा, आगरा, इलाहबाद तक और उसके आगे बनारस, कानपुर, पटना ,बक्सर होती हुई कोलकाता की हुगली में जाकर बासठ दिनों में संपन्न होती है। लेखक के साथ डोंगी भी अपना इतिहास लिखती हुई चलती है। इसमें बीच बीच में आकर जीते-जागते किरदारों की तरह नदियाँ मिलती रहती हैं। यह  रोमांच, बेचैनी, उकताहट, संघर्ष, जिजीविषा, दोस्ती और ढेरों किस्सों में बंधी किताब है जो आखिरी पन्नों तक पाठकों को बांधे रहती है।
 नदियों के साथ मेरा गहरा रिश्ता रहा है और उत्तर पश्चिमी और पूर्वी भारत की बीस बाईस नदियों को छूने और निहारने का मौका मिला है।

इस सिलसिले में हाल में पढ़े राकेश तिवारी का यात्रा वृत्तांत "सफ़र एक डोंगी में डगमग" मुझे बेहद पसंद आया जो बड़े खिलंदड़ अंदाज़ में दिल्ली से कोलकाता तक की डोंगी कथा कहती है।
दिल्ली की 'ओखला हेड' जैसी छोटी नहर से शुरू हुई यह रोमांचक यात्रा यमुना में  मथुरा, आगरा, इलाहबाद तक और उसके आगे बनारस, कानपुर, पटना ,बक्सर होती हुई कोलकाता की हुगली में जाकर बासठ दिनों में संपन्न होती है। लेखक के साथ डोंगी भी अपना इतिहास लिखती हुई चलती है। इसमें बीच बीच में आकर जीते-जागते किरदारों की तरह नदियाँ मिलती रहती हैं। यह  रोमांच, बेचैनी, उकताहट, संघर्ष, जिजीविषा, दोस्ती और ढेरों किस्सों में बंधी किताब है जो आखिरी पन्नों तक पाठकों को बांधे रहती है।

पर लेखक ने बिहार में हाजीपुर के पास स्थित पहलेजा घाट से पटना के महेंद्रू घाट के बीच की यात्रा इतने आनन फ़ानन में निबटा दी कि मेरा मन अभीगा छूट गया। बचपन के पाँच छह साल हाजीपुर के घोसवर गाँव में बिताते हुए पहलेजा से महेंद्रू तक की स्टीमर यात्रा की मेरे बालमन पर अमिट छाप है , भले ही  घाटों के बीच स्टीमर चलना अब बाबा आदम के ज़माने की बात हो चुकी हो।दरअसल साल में दो बार होली और दशहरे की बनारस की हमारी यात्रा अनिवार्य थी ,इसके अलावा भी घेलुआ में एकाध यात्रा हो ही जाती थी। और हमारी यात्रा सिर्फ़ गंगा के इन दो घाटों के बीच संपन्न स्टीमर की इकहरी यात्रा नहीं होती थी बल्कि इसमें बैलगाड़ी (लकड़ी के बड़े आकार के खड़ खड़ करने वाले पहियों के आम रिवाज़ से हट कर रबर के टायर लगे होने के कारण बैलों द्वारा खींचे जाने के बावज़ूद लोगबाग इसको टायर गाड़ी कहते थे),रेलगाड़ी और रिक्शे के भिन्न भिन्न खण्ड शामिल होने के साथ साथ भावनात्मक उद्वेगों के अच्छे खासे टुकड़े सहज शामिल होते थे।राक्षसी दमे ने बचपन में न सिर्फ़ मेरा जीना दूभर कर रखा था बल्कि गाँव के वैद्य जी के हवाले भी किया हुआ था -- साल भर जैसे तैसे मेरी गाड़ी खिंच भी जाये बनारस जाने से पहले साँसों के अब तब का सूख जाने का माहौल बनता ही था और वैद्य जी को अपनी हर मर्ज़ की एक ही दवा साबुन जैसी लाल रंग की सिरप से ज्यादा उपवास की शक्ति पर  भरोसा था। एकबार बीमारी के कँटीले बाड़े से निकल जाएँ तो गाँव से हाजीपुर रेलवे स्टेशन तक टायर गाड़ी से जाने का उत्सव जैसा इंतज़ाम होता था -- हाजीपुर से पहलेजा घाट तक ट्रेन से जाना होता था। घड़ी और समय के अनुशासन से पूरी तरह बेख़बर मेरा मन बस एक के बाद एक काम जल्दी जल्दी संपन्न हो जाने पर आकर ठहर जाता था …… असली पेंच समय पर टायर गाड़ी के समय पर दरवाज़े आ लगने को को लेकर था, उसमें पाँच मिनट की देर भी मुझे गाड़ी छूट जाने की आशंका से रोने की कगार तक ले जाती--- इस बीच यदि घर के पिछवाड़े की रेल लाइन से कोई गाड़ी निकल जाये तो फिर फ़रक्का बाँध टूट जाने से होने वाला जल प्रलय भी मेरे विलाप से निकले आँसुओं के सामने बौना पड़ जाये। हमें घाट तक ले जाने वाली गाड़ी उस रास्ते नहीं गुज़रती यह पिताजी बीसियों बार मुझे समझा चुके थे पर समझे तो वो जो समझना चाहे। खैर सारी बाधायें पार कर हम स्टेशन पहुँचते ,वह संक्षिप्त यात्रा आम रेल यात्राओं जैसी अ रोमांटिक अंदाज़ में पूरी हो जाती। पहलेजा घाट में स्टीमर तक पहुँचने में जितना पैदल चलना पड़ता उसके सौंवे हिस्से से भी कम लप लप लचकती लकड़ी या कभी कभी बाँस की तिरछी पटरी से खुद को संतुलित करते हुए स्टीमर पर चढ़ने में चलना पड़ता था -- पर यह आह्लाद और उपलब्धि भी सौ गुना से ज्यादा थी , और कभी कभी किसी का घबरा कर गिर जाना महीने भर की हँसी का ख़ुराक बन जाता था। स्टीमर पर सबसे ज्यादा मज़ा छत पर आता पर बच्चा बच्चा कहकर हमें छत पर जाने से सबसे ज्यादा रोका भी जाता। छत पर पहुँच कर लगता हम स्टीमर की नहीं दुनिया की छत पर आसीन हो गये हों ,हाँलाकि ऊँचे किनारों के पीछे की दुनिया हमारी नज़रों से ओझल हो जाती।बीच रास्ते यदि आंधी तूफ़ान आ जाये तो एक ही बात मन में आती कि पानी में रहते जीव जंतु अपने नुकीले दाँत पहले पैरों में लगायेंगे कि माथे को। सफ़र के दौरान कहीं एक स्टीमर डूबा पड़ा था ,हर बार नहीं पर जब कभी नदी में पानी कम होता तो उसका माथा (शायद मस्तूल कहते हैं) थोड़ा दिखायी देता -- तब हमें उस डूबे स्टीमर को दिखा कर यह ज़रूर समझाया जाता कि ज्यादा उछल कूद की तो तुम्हारी इस स्टीमर का भी यही हस्र होगा। एक बार बीच रास्ते ऐसी ही प्रलयंकारी आंधी आयी और स्टीमर बुरी तरह हिचकोले खाने लगा -- उस समय डूबे हुए जहाज की कहानी दुहराने की सुध किसी को नहीं आयी पर सामने न दिखाई देते हुए भी डूबा हुआ स्टीमर बार बार मेरे स्मृतिपटल पर आता रहा। बारिश के कारण अचानक बढ़ गयी ठण्ड ने छत को वीरान कर दिया और सारी जनता नीचे आकर भाप वाली चिमनी को घेर कर खड़ी हो गयी -- मुझे अच्छी तरह याद है कि स्टीमर के कारिंदों ने  लाठी डंडों से लोगों को वहाँ से खदेड़ा था जिस से भार संतुलित ढंग से वितरित हो जाये,एक जगह केंद्रित न हो। हम उस बेमौसम ठण्ड से इतने घबरा गये कि बनारस न जा बीच रास्ते पड़ने वाले ननिहाल आरा रुक गये और रात भर जग कर अम्मा और दो मौसियों  ने हम तीन भाई बहनों के लिये स्वेटर बना डाले।  बाद में जब स्व रघुवीर सहाय के कहने पर दिनमान के लिये बंद पड़ी स्टीमर सर्विस के आन्दोलनरत कर्मियों पर एक स्टोरी करने निकला तो पुराना पहलेजा घाट  पहचानना दूभर हो गया क्योंकि स्टीमर घाट तक जाने वाली सड़क उखड़ गयी थी और गुलज़ार रहने वाली फूस की झोपड़ियाँ जमींदोज़ हो गयी थीं।महेंद्रू घाट शहर का हिस्सा था सो उसका अस्तित्व मिटा नहीं ,वैकल्पिक व्यावसायिक इस्तेमाल होने लगा।यह रिपोर्ट "माँझी पर भरोसा कम" शीर्षक से दिनमान में छपी थी। पहलेजा से लौट कर मैंने एक कविता लिखी थी ,कभी मिली तो मित्रों से वह भी साझा करूँगा।         

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