गुरुवार, 19 सितंबर 2013

वीरेन डंगवाल


तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे है
लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी
'
अकेला तू तभी कविता की ये पंक्तियाँ ठेठ देसी मिजाज के कवि वीरेन डंगवाल के मूल स्वर का परिचय देती हैं। विष्णु खरे के बाद जिस तरह हिंदी कविता में मानी-बेमानी डिटेल्स बढ़ते जा रहे थे और कविता के कलेवर में मार तमाम तरह की गदहपच्चीसियाँ जारी हैं, वीरेन की छोटे कलेवर की कविता कटु-तिक्त बीज की तरह हैं। हिंदी कविता के लिए वीरेन नये प्रस्थान बिंदु की तरहे हैं। मेधा की दुर्जयता के टंटों के इस दौर में ऐसी हरकतों से खुद को दूर रखते हैं वे। बड़ी और महान कविता रचने से ज्यादा वह बड़ी जमात की बात कहने में विश्वास रखते हैं। बड़प्पन का घड़ा वह हर जगह पटक कर फोड़ते दिखाई देते हैं। रात-गाड़ीकविता में वह लिखते हैं -
'
इस कदर तेज वक्त की रफ्तार
और ये सुस्त जिंदगी का चलन
अब तो डब्बे भी पाँच एसी के
पाँच में ठुंसा हुआ, बाकी वतन...
'
इसबाकी वतन की चिंता वीरेन के यहाँ हर जगह देखी जा सकती है। पहले संग्रह की पहली कविता कैसी ज़िंदगी जिएँ जो इस संकलन की भी पहली कविता है में ही उन्होंने लिखा था -
'
हवा तो खैर भरी ही है कुलीन केशों की गंध से
इस उत्तम बसंत में
मगर कहाँ जागता है एक भी शुभ विचार
खरखराते पत्तों में कोपलों की ओट में
पूछते हैं पिछले दंगों में कत्ल कर डाले गए लोग
अब तक जारी इस पशुता का अर्थ...
'
और यह पशुता जारी है आज भी, परंपरा और राष्ट्रवाद के नाम पर और बाद की कविताओं में भी कवि का संघर्ष जारी है, इस पशुता के खिलाफ, उसके छद्म रूपों के खिलाफ।
इस व्यवस्था से गहरी चिढ़ है वीरेन को, क्योंकि वह किसी के मन का कुछ होने नहीं देती और कवि दुखी हो जाता है कि -
'...
झंडा जाने कब फुनगी से निकलकर
लोहे की अलमारी में पहुँच जाता...
इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक
कभी असल झंडा...
'
असली झंडा ना छू पाने की यह जो कचोट है कवि के मन में, यह आम जन की टकटकी का रहस्य खोलती है। यह टकटकी, जो मुग्धता और तमाम विशिष्टताओं को पा लेने की, उन्हें मिसमार कर देने की हिंसक चाह के बीच झूलती रहती है। यह जो टकटकी है, निगाह है कवि की, झंडे से प्रधानमंत्री के पद तक की बंदरबांट कर लेने की, वह बहुतों को नागवार गुजरती है। खासकर हिंदी के चिर किशोर व नवल आलोचकों को, जिन्हें बेरोजगारी से ज्यादा, बेरोजगारों द्वारा समीक्षा का स्तर गिराए जाने की बात परेशान करती है। यहाँ हम उन तथाकथित आलोचकों को भी याद कर सकते हैं, जो इससे पहले नागार्जुन में इस लुंपेन मनोवृत्ति को चिन्हित करते रहे हैं, दरअसल ऐसी फिकराकशियाँ उस अभिजात, अकादमिक विशिष्टता बोध से पैदा होती हैं, जो खुद को अलग और खास बतलाने-दिखलाने की कोशिश करते हैं।
धूमिल ने कभी तीसरे आदमी के सवाल पर संसद के मौन को लेकर आवाज बुलंद की थी।सभाशीर्षक छोटी-सी कविता में वीरेन भी एक संजीदा सवाल उठाते हैं -
'
भीतरवालों ने भितरघात किया
बाहरवालों ने बर्हिगमन
अध्यक्ष रूठे कुछ देर को
संविधान के अनुच्छेदों के निर्देशानुसार
सदन स्थगित हुआ
भत्ता मगर मिला सबको...
'
आखिर जब सदन अकारण स्थगित कर दिया जाता है, तो फिर भत्ता क्यों नहीं स्थगित होता है।
वीरेन डंगवाल की कविताओं में रामसिंहचर्चित रही है। इस संकलन में भी उसके वजन की दूसरी कविता नहीं है। फौजियों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करने वाली यह कविता मनुष्यता के पक्ष में बड़ी मुहिम की तरह है। ब्रेख्त ने एक चर्चित कविता में लिखा था, चेतावनी के स्वर में -
'
जनरल, बहुत मजबूत है तुम्हारा टैंक
लेकिन इसमें एक दोष है
इसे एक आदमी की जरूरत है
जनरल, आदमी बहुत उपयोगी जीव है
लेकिन उसमें भी एक दोष है
वह सोच भी सकता है।
'

रामसिंहकविता में वीरेन ने इसी एक आदमी की संभावनाओं को अभिव्यक्त किया है। वीरेन जानते हैं कि अगर यह आदमी विचार करने लगता है, सोचने लगता है तो बुश जैसे दिवालिया महानायकों की मंशा फुस हो सकती है, जो अफगानिस्तान, इराक के बाद अब ईरान के लोगों का इलाज करने की फिराक में लगा है। रामसिंहकी पंक्तियाँ हैं -
'
तुम किसकी चाकरी करते हो रामसिंह?
तुम बंदूक के घोड़े पर रखी किसकी उंगली हो?...
...
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढ़ते रहते हैं
...
वे तुम्हें गौरव देते हैं और इस सबके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हुई
लड़कियों से बचपन में सीखे गए गीत ले लेते हैं...
'
ऐसा नहीं है कि वीरेनरामसिंहको लड़ाई के मोर्चे से भाग जाने को कहते हैं, बल्कि वे उसे सही मोर्चों पर जाने को कहते हैं, जहाँ लोग बर्फ के खिलाफ इकट्ठे होते हैं, जहाँ आदमी हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ता है। वह रामसिंहको याद दिलाते हैं -
'
याद करो कि वह किसका खून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलाने से पहले हर बार?
कहाँ की होती है वह मिट्टी
जो हर रोज साफ करने के बावजूद
तुम्हारे भारी बूटों से चिपक जाती है
?'
ऐसा नहीं है कि वह अपनी माटी से, धरती से प्यार नहीं करते, वे उसे माटी का ढेर नहीं, कल्याणी पुकारते हैं। पर छद्म राष्ट्रवाद या आतंकवाद के नाम पर अंध उन्माद में खून बहाने को वह सहन नहीं कर पाते। वह मरने-मारने को बहादुरी नहीं मानते। उनके लिए बहादुर वह है, जो जीवन के पथ की बाधाओं को हटाने में अपने प्राण लगा देता है।
वीरेन की कविताओं का एक पहलू उनका मनमौजीपन भी है, जैसे कि कुछ विषयों पर वह झख मारकर कुछ लिख देते हैं, तो फिर लिख देते हैं, उस पर विचार नहीं करते। जैसे  ‘कवि-2’ में वह लिखते हैं -
'
मैं पपीते को
अपने भीतर छिपाए
नाजुक खयाल की तरह...'
फिर पपीताकविता में वह लिखते हैं -
'
असली होते हुए भी नकली लगता है उसका रंग
पेड़ पर रहता है तो भी मुँह लटकाए...'

इस तरह की चीज़ें दुनिया को ठेंगे पर रखने की मनोवृत्ति से भी पैदा होती हैं। फिर ठेंगे पर रखने की झख ऐसी, कि वीरेन खुद को भी ठेंगे पर रखने से बाज नहीं आते। इस मनोवृत्ति के पीछे हम एक चिर जिज्ञासु मानस को भी देख सकते हैं। जो किसी भी तरह की यथास्थिति को बर्दाश्त नहीं कर पाता।
आज की हिंदी कविता संदर्भहीनता का आख्यान बनती जा रही है। सारे युवा कवि कविता के नाम पर विचार बुक कर रहे हैं, वह भी केवल सामने वाले के बारे में। उनको पढ़कर कवि के परिवेश का, उसकी पसंद-नापसंद का, उसके खान-पान, रहन-सहन का कुछ पता नहीं चलता। नतीजा पाठकों के जेहन में उनकी कोई तस्वीर नहीं बनती। कविताएँ क्षणिक भावोत्तेजना का बायस बनकर फुस्स हो जाती हैं। वीरेन की कविताएँ इस मामले में अपवाद-सी हैं। गाय’, ‘जलेबी’, ‘चूना’, ऐसी ही कविताएँ हैं, जो बताती हैं कि जीवन बस एक महान विचार मात्र नहीं है, वह इन छोटी-बड़ी-ज़रूरी-गैर ज़रूरी चीज़ों का समुच्चय भी है।
कुछ कविताएँ वैदिक देवताओं को लेकर लिखी हैं, वीरेन ने। ये हिंदी में वैदिक ऋचाओं-सी हैं। वैदिक काल की ऋचाओं की सहजता को समझने में ये सहायक हो सकती हैं।
मेरी नींद में अपना गरम थूथन डाले/पानी पीती थी एक भैंस। बुखार के पाले कौन नहीं पड़ता, पर उसे इस तरह भाषा में कितने कवि ला पाते हैं। ये कुछ खूबियाँ हैं वीरेन की, जो उन्हें अलहदा साबित करती हैं।

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

अरुण कमल - जमीनी विस्तार का सौरभी स्पर्श


'हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास' नामक अपनी पुस्तक में आलोचक बच्चन सिंह ने अरुण कमल के दूसरे संग्रह की बाबत लिखा था कि 'सबूत' उनकी काव्ययात्रा के विकास का सबूत नहीं दे पाता। इधर हंस में टिप्पणीकार भारत भारद्वाज ने अरुण कमल के चौथे संग्रह 'पुतली में संसार' को लेकर बच्चन सिंह की बातें करीब-करीब दुहरा दी हैं, जबकि ऐसा है नहीं। अरुण कमल का चौथा संग्रह उनके पिछले तीनों संग्रहों से काफी अलग है। इसमें सिंगारपटार बढ़ा है, लालसाएँ बढ़ी हैं और आस्था भी बढ़ी है। पहले संग्रह में गंगा नदी के लिए कवि का संबोधन सीधा-सपाट था। चौथे संग्रह में आस्था की बिंदी लग चुकी है। गंगा भरी हों... (इच्छा)। इसी तरह 'घर-बाहर' कविता का यह अंश देखें-

प्रोफेसर वर्मा ने बताया यह एक पुराना चर्च है यहाँ का
जो अब वृद्धों को दे दिया गया है जो कल पर था ईश्वर का
यह आज आदम का घर है
प्रभु का उतारन मनुष्य का सिंगार....

यहाँ जो अंतिम पंक्ति है, अलग से चस्‍पां की गई टिप्पणी की तरह, वह कविता की उतारन (केंचुल) सी लगती है, जिसकी कोई जरूरत नहीं है। पर यह और ऐसी जड़ाऊ पंक्तियाँ ही तो कवि के विकास की पोल खोलती हैं, उनकी आस्था के आधारों 'चौरासी कोठरियों' के दर्शन कराती हैं। ऐसी कविताओं को रामविलास शर्मा जड़ाऊ कविता कहते थे। वैसे भी अरुण कमल की काव्य-भाषा में भोजपुरी लोकभाषा की जो छौंक मिलती है, उसमें जड़ाऊ शब्द की महिमा बढ़ी है, जड़ाऊ धोती से लेकर जड़ाऊ गहनों तक।

बच्चन ने कभी लिखा था- 'जो छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता...' अरुण जी ने भी अपनी लालसाओं को छुपाया नहीं है अबकी बार, चाहे वो चालू कुत्ते के पीछे भागती कानी कुतिया हो या 'संभोग के क्षणों के अंतिम प्रहार' या स्तनों का उठना गिरना लगातार' या छाती के बटन खोले हहाता समुद्र या फिर हो इक साँवरी भार देती स्तनों पर....

पुतली में संसार की कविताओं में विविधता भी काफी है। ब्रेख्त से लेकर शमशेर, मुक्तिबोध और आलोक धन्वा तक के ध्वनि प्रभावों वाली कविताएँ वहाँ मिल जाएँगी। कुछ पंक्तियाँ देखें-

जब भी हमारा जिक्र हो कहा जाए
हम उस समय जिये जब
सबसे आसान था चंद्रमा पर घर
और सबसे मोहाल थी रोटी... (अपनी पीढ़ी के लिए))
(या)
क्या है इस छोटी सी बात में जो आज मुझे व्याकुल कर रहा है (दोस्त)
(या)
वह क्यों रुक गया था उस रात वहाँ उस मोड़ पर
सुफेद मकान के आगे जो बत्ती की रोशनी में
और भी सुफेद लग रहा था...(फरमाइश)

संग्रह की ‘अनुभव’ शीर्षक कविता तो शमशेर की कापी-सी लगती है।

'नए इलाके में (तीसरा संग्रह) का आत्मविगलित रुदन जो कविता के अकादमिक गुण ग्राहकों को पसंद आया था, यहाँ काफी कम है- 

मेरे पास कुछ भी तो जमा नहीं
कि ब्याज के भरोसे बैठा रहूँ (डोर) निर्व्याज

खाली हाथ होने का यह जो दुख है कवि का वह पुराना है। पहले संग्रह 'अपनी केवल धार' की कविता निस्पृह का भी वही भाव है। यूँ पहले और चौथे संग्रह के बीच में कवि ने काफी कुछ हासिल किया है। तमाम पुरस्कारों से लेकर विदेश यात्राओं तक, एक नौकरी भी ठोकी-ठेठायी है ही। फिर यह दुख कैसा है-

वे कांसा भी नहीं पायेंगे सोना तो दूर
मैं हीरे का तमगा छाती में खोभ
खून टपकाता फिरूंगा महंगे कालीनों पर....


कहीं किसी साँवरी की लालसा तो नहीं है वह-

सब कुछ पाने के बाद भी तुम इंतजार करोगे
रात के अँधेरे लंबे सुनसान गलियारे के पार
किवाड़ के पीछे उस साँवली स्त्री का....


क्या कवि को पता नहीं कि जब तक वह अपने सीने में हीरे का तमगा खोभे
फिरेगा, साँवली दुष्प्राप्य रहेगी। फिर रो-रोकर इस तरह हलकान होने के मायने-

...पता नहीं आज भी आयेगी या नहीं
और तड़केगा रोम-रोम बलतोड़ की पीड़ा से
तसर वस्त्र के भीतर।
मेरे दिल में इतनी मेखें हैं
कि तन सकते हैं प्यार के हजार शामियाने
पर हाय जिस किसी काग को कासिद बनाया
वही कंकाल पर ठहर गया। (मेख)


प्यार के शामियाने के लिए मेखें ही काफी नहीं हैं, कवि, थोड़ा खम भी पैदा करो।

फरमाइश, उस रात, आदि कई अच्छी कविताएँ हैं अरुण कमल की। इस संकलन में ‘दस बजे’ एक रोचक कविता है, जिसमें कवि पड़ोस के व्यस्त चौराहे का चित्र खींचता है। कविता में आये ब्यौरे मजेदार हैं। हाँ, आकलन में एकुरेशी का अभाव कहीं-कहीं खटकता है। जैसे, वे लिखते हैं- कोटि-कोटि गाड़ियों के नीचे....
दुनिया की किसी भी व्यस्त सड़क पर एक जगह कोटि-कोटि (करोड़ों-करोड़) गाड़ियाँ खड़ी नहीं हो सकतीं। यह कीर्त्तनियों की शब्दावली है, जिसका वे भाववाचक प्रयोग करते हैं, संख्यावाचक नहीं। ऐसे कई जोर-जबर से किये गए प्रयोग अच्छी बनती कविताओं का भी कबाड़ा कर देते हैं। जैसे सड़कें भरी रहतीं कंठ तक या सिगरेट की ठूंठ आदि। जब कथ्य अस्पष्ट हों, तो इस तरह के प्रयोग अच्छे लगते हैं, जैसे 'छाती खोले समुद्र' या 'हाथी-सी चीन की दीवार' आदि। यूँ भाषा की ये गड़बड़ियाँ भाव के अभाव के चलते नहीं, बल्कि जल्दबाजी के चलते होती हैं। अब केदारनाथ सिंह जैसे वरिष्ठ कवि जब लिखने लगें कि एक मुकुट की तरह उड़े जा रहे थे पक्षी तो औरों का क्या कहना? वे 'अतल जंगल', 'हर पानी' कुछ भी लिख सकते हैं। आप तलाशते रहें लक्षणा, अभिधा व व्यंजना में उनके अर्थ !

अरुण कमल के यहाँ मुक्ति का संघर्ष तो नहीं है, हाँ मुक्ति का स्वप्न जिलाये रखने का जतन है। वहाँ मुक्ति न भी मिले तो बना रहे, मुक्ति का स्वप्न। 'आत्मकथा' कविता में कवि लिखता है-

न लेखक गृह का एकांत
न अनुदान वृत्ति का अभ्यास
जितनी देर में सीझेगा भात
बस उतना ही अवकाश ।

इस दुखड़े के क्या मानी, जब 'लू शुन की कोठरी' कविता में कवि लिखता ही हैं इतनी छोटी कोठरी में कैसे अँटा इतना बड़ा देश।
'उस रात' कविता में कवि 'एक आवारा कुत्‍ते की आत्‍मकथा' के बहाने व्‍यवस्‍था के लिए खतरा बनते जाते भूखे-आवारा- पागल आदमी की त्रासदी लिखता है -

'मैंने किसका कया बिगाडा था
अगर भूख न होती और सडे मांस का लोंदा
तो कभी कोई पागल न होता'।


अरुण कमल का मूल स्‍वर करूणार्द्र और भय की भीतियों से भरा है।
इसे परंपरा में हम तुलसीदास के यहां देख सकते हैं। विनय पत्रिका में एक जगह तुलसी याचना के स्‍वर में कहते हैं कि - ' हे राम,तुमने बहुत से पापियों को तारा है, फिर मुझ कुत्‍ते के मुख से रोटी छीनकर खाने वाले इस अधम पर भी कृपा करो। 'यह एक तरह की आत्‍मप्रताडना है और राम की आलोचना भी कि तुम जाने कैसे कैसे पपियों को तो तार देते हो फिर मुझे गरीब को ही भूल जाते हो। अरुण कमल के यहां आत्‍मप्रताडना का रूप बारहा मिलता है -''मेरे सरोकार' में एक जगह वे लिखते हैं - क्‍या नाली का कीडा जीना बंद कर देता है...मेरा भी यही सरोकार है - जीना और इस धरती को जीने योग्‍य बनाना'
वस्तुतः अरुण कमल की कविताओं की धजा जमीनी विस्तार और प्रकृति से संबद्ध कविताओं में ही खुलती-खिलती है। 'आतप' और 'आश्विन' ऐसी ही कविताएँ हैं-

चाँदनी से गीले हैं खेत छायाएँ खुद से भारी
ऐसी स्तब्धता शाखों के भीतर
ऐंठती मंजरों से भारी देह
बहुत दूर भीतर उठती है हूक
यह किसकी कूक है, किसकी पुकार
कौन मुझे उठाता है, धूल सा, कैसा बवंडर... (आतप)

ऐसा क्या है इस हवा में
जो मेरी मिट्टी को भुरभुरा बना रहा है
धूप इतनी नम कि हवा उसे
सोखती जाती है पोर-पोर से
सिंघाड़ों में उतरता है धरती का दूध
और मखानों के फूटते लावे हैं हवा में
धान का एक-एक दाना भरता है
और हरसिंगार खोलता है, रात के भेद
चारों तरफ एक धूम है
एक प्यारा शोरगुल रोओं भरा। (आश्विन)

जमीनी विस्तार का यह सौरभी स्पर्श हिंदी कविता में आज कहाँ किसी के पास है। बेकार का रोना है फिर 'पहाड़ों', 'घाटियों', और 'सागरों' का बगीचे-बधारों के थोड़े से बोल ही काफी हैं। कवि के पहले संग्रह की भी यही ताकत रहे हैं।

आलेख का एक हिस्‍सा ‘पाखी’ में प्रकाशित