रविवार, 3 अगस्त 2014

रामजी की महज़िद- ( तुलसीदास – एक इतिहास कथा)- कुमार मुकुल

 एक सार्थक गप्प 


बात तब की है जब संत तुलसीदास कहारन के घर पलकर युवा हो चुके थे । उनका व्याह हो चुका था । उनकी विदुशी ब्राह्मणी पत्नी रत्ना की संगत ने उनके भीतर भी ज्ञान-पिपासा जगा दी थी और जीवन-जगत को लेकर उपजी जिज्ञासाएं उन्हे ंबेचैन करने लगी थीं । अयोध्या की गलियों की खाक छानते वे ऐसे सदगुरू की तलाश कर रहे थे जो उन्हें सत-चिद-आनंद के रहस्यों से अवगत करा सके । पर सालों मारे-मारे फिरने के बाद उन्हें पता चला कि `जाति न पूछो साधो की´ और `वसुध्ौव कुटुंबकम´ आदि पेट भरने की निरा तोता-रटंती बातें हैं । वहंा तो हर ज्ञनी-महात्मा तुलसीदास का गोत्र पूछने से षुरू करता और मां-बाप का भक्षक व कुभाखर और अछूत की संज्ञाओं से उन्हें नवाज देता । भला अयोध्या की विद्वतसभा में भीख मांगकर पेट पालने वाले इस दलित ब्राह्मण को कौन टिकने देता !
 ``जाति के, सुजाति के, कुजाति के, पेटागि बस
खाए टूक सब के, बिदित वात दूनी (दुनिया) सो (तुलसीदास-कवितावली)´




´
तुलसी सफाई देते रहे कि वे भी `आन बाट´ से नहीं, ब्राह्मणी के गर्भ से ही बाहर आए हैं । इसके जवाब में पंडितों का अलग ही तर्क होता था । वे `जन्मना जायतो शूद्रों´ की रट लगाते हुए संस्कार सीखकर द्विज बनने की बात करने लगते । अलबता कोई भी उन्हें संस्कारित करने को तैयार न था । अंत में उन्होंने मंदिरों में रहकर एकलव्य की तरह स्वयंशिक्षा प्राप्त करने की ठानी पर धुरंधर पंडितों ने मलेच्छ कहकर उन्हें वहां से भी दुर-दुरा दिया । तब उन्हें अपनी कहारनटोली के पास वीरान पड़ी महज़िद की याद आई । अब वहीं टिककर उन्होंने चिंतन-मनन की सोची । तब उदास मन से उन्होंने अयोध्या के स्वर्णखचित मंदिरों का मोह त्याग उस महजिद का रूख किया । जब वे वहां पहुंचे तो यह देखकर दंग रह गए कि उस वीराने में उन्हीं की तरह मुल्लाओं के सताए मुस्लिम फकीरों ने भी धूनी रमा रखी है । उन्हें देख तुलसी की खुषी का ठिकाना न रहा । वे भी फकीरों के साथ मांग-चांग खाने और सत्संग करने में समय बिताने लगे ।
इसी क्रम में वे खुद भी तुकें भिड़ाने लगे, उनका लिखना `स्वांत: सुखाय´ था पर आस-पास की वनवासी जमात को उसी में परमानंद मिलने लगा । वहां भीड़ जूटने लगी । जब यह खबर पंडितों को मिली तो उन्हें आगत खतरे का आभास हुआ । उन्हे ंलगा कि कल को कहीं तुलसी का भजन-कीर्तन उनकी पंडिताई पर भारी पड़ने लगा तो———। तब उन्होंने तुलसी को बुलावा भेजा कि वह वीराने को त्याग अयोध्या में ही कोई ठिकाना बना ले । पर अब-तक तुलसी की `स्वांत: सुखाय´ की अपनी दुनिया छोड़ पंडितों की धमगिज्जर में जाने की ईच्छा मर चुकी थी । सो उन्होंने पंडितों को अपनी राय बता दी । तब पंडितों ने दंड-भेद की नीति अपनाई । पर तुलसी ने उन्हें चुनौती देते हुए पाती लिख भेजा- 
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ ।
काह की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहकी जाति बिगार न सोऊ ।
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको , जाको रूचै सो कहै कछु कोऊ ।
मंागि के खैबो, मसीतको सोइबो, लैबोको एकु न दैबे को दोऊ । (कवितावली से) 
उन्होंने साफ-साफ उन्हें बता दिया कि वे अगर नीच जाति से हैं तो हैं, किसी की बेटी से उन्हें बेटा नहीं ब्याहना————वे भिक्षा मांग कर और मसिजद में सोकर, गुज़ारा कर लेंगे पर ढोंगी पंडितों से दूर ही रहेंगे । अयोध्या के पोंगा पंडितों को चिढ़ाने के लिए यह काफी था । उन्होंने यह विचारकर संतोश किया कि देखें देव भाषा संस्कृत के सामने यह महपातर (श्राद्य कराने वाला महापात्र ब्राह्मण) तुलसी अपनी बोली-ठोेली (अवधी) को कैसे खड़ी करता है । उधर अपनी बिदुषी पत्नी और अयोध्या के स्वयंभू विद्वत समाज द्वारा ठुकराए गए एक वीरान महज़िद में वनवास भोगते तुलसीदास ने नाना पुराणों को खंगाल कर वनवास भोगते अपने प्रिय देवताओं राम-लक्ष्मण-सीता को खोज ही डाला । पंडितों को चिढ़ाने के लिए उन्होंने खुद को जहां श्रीराम के चरणों में बिछा दिया, वहीं पंडितों के प्रिय देवताओं का जमकर मजाक भी उड़ाया । 
इंद्रेषु न, गनेसु न, दिनेसु न, धनेसु न,
सुरेसु, सुर, गौरि, गिरापति नहि जपने ।
 तुलसी है बावरो सो रावरोई, रावरी सौ,
रावरेऊ जानि जिय¡ कीजिए जु अपने । (कवितावली से) 
उन्होंने कहा कि उन्हें ब्रह्मा, शिव, गणेश आदि का नाम नहीं जपना है उन्हें बस राम नाम का भरोसा है । फकीरों ने टोका भी, कि किस अनाम देवता को भजने लगे तुम भी । इन्हें तो अयोध्या में भजता नहीं कोई । पर तुलसी का मन जो शबरी के जूठे बेर खाने वाले राम में रमा, तो रम गया । भावविभोर होकर जब वे जनगण को अवधी में सुनाना शुरू करते – 
`भए प्रगट कृपाला दीन दयाला, कौषल्या हितकारी,
हरसित महतारी मुनिमन हारी————´
 तो वनवासियों की भीड़ जमा हो जाती । लोगों को लगता जैसे सचमुच रामजी प्रकट होने वाले हों । वहीं रहकर धीरे-धीरे तुलसी दास ने `रामचरित मानस´ को रच डाला और इस तरह वीरान पड़ी एक महज़िद भारतीय जनमानस में राम को पैदा करने वाली पवित्र जगह में परिणत होती चली गई । अयोध्या की पंडित विरादरी अब तुलसी के नाम से खौफ़ खाने लगी थी । एक दिन उन्होंने कुछ चोरों को `मानस´ की प्रति चुरा लाने को महज़िद में भेजा पर राम भक्त जनता के जागरण को देख चोर सिर पर पैर रख भाग चले । धीरे-धीरे रामकथा की ख्याति उस समय के महान सम्राट अकबर के कानों तक पहुंची । उन्होंने अपने सरदार और कवि अब्दुल रहीम खानखाना को तलब किया और तुलसी की बावत पूछ-ताछ की । रहीम ने भी तुलसी का गुणगान किया ।
रहीम तुलसी के मित्र थे । आखिर उनकी `निजमन की व्यथा´ अकबर के राजदरबार में कौन सुनने वाला था । वह तुलसी-रैदास जैसे संत कवि ही सुनते थे । लिहाजा वे उनकी मित्र-मंडली में शामिल थे । इसीलिए जब अकबर ने रहीम से आग्रह किया कि आप तुलसीदास को सादर दरबार में बलाएं और नवरत्नों में शामिल करें तो रहीम की खुशी का ठिकाना न रहा, कि चलो उनका एक हमदम उनके आस-पास रहेगा । अकबर का फरमान ले रहीम भागे-भागे तुलसी के पास आए और उनसे राजदरबार चलने का आग्रह किया । रहीम की बातें सुनकर तुलसी की आंखें भर आईं । एकबार हुआ कि चलें इस पुरानी महज़िद को त्यागकर थोड़ा जीवन रस का पान करें । यह राम जी की कृपा नहीं तो और क्या है, कि भिखमंगे के पास षाही दरबार में टिकने का फरमान आया है । पर अगले ही पल तुलसी दास को अपनी लालसाओं पर बड़ी ग्लानि हुई । क्या वे श्रीराम की इस प्यारी जन्मस्थली को छोड़कर राजदरबार में रह पाएंगे । वहां वे अपना सुख-दुख किसे निवेदन करेंगे । रामभक्तों से जुदा होकर वहां वे कैसे जीवित रह पाएंगे ? उन्हें उस महज़िद के कण-कण से राम नाम की ध्वनि पुकारती जाना पड़ी ।

तब अपने मन की बातें छुपाकर रहीम को उन्होंने अपने मित्र कवि कुंभनदास की तरह समझा दिया कि संतों को राजदरबार (सीकरी) से क्या काम, आते-जाते जूता (पनहिया) टूट जायेगा और हरि का नाम भी विसर जायेगा । पर रहीम तुलसी की मनौक्ल में लगे रहे । अंत में हाथ जोड़ तुलसी ने कहा-मित्र, राजा को तुम ही मेरा कश्ट समझा देना और कहना कि अगर वे मेरा कुछ भला करना ही चाहते हैं, तो यहीं महज़िद के अहाते में एक चबूतरा बनवा दें, राम भजन के लिए । अकबर ने खुशी-खुशी वहां एक सुंदर चबूतरा बनावा दिया । धीरे-धीरे उस जगह की ख्याति अयोध्या के मंदिरों के मुकाबले बढ़ती चली गई ।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

महिला संत लल द्यद या लल्‍लेश्‍वरी

ईश्‍वर के भय सा कोई सुख नहीं - ( भयस ह्यू नो सोख कांह) -  लल्‍लदद्य

कश्‍मीर सतीसर था पहले, सती पार्वती का सर यानी झील। कथा के अनुसार दैत्‍य जलोद्भव का उस पर कब्‍जा था जिससे मुक्‍त कराकर वहां की धरती को निकाला गया।
(दरअसल पहले वह क्षेत्र समुद्र के अंदर था फिर बाहर आ गया उसी को कथा बना दिया गया कालांतर में।)
ऋषिपुत्र नीलनाग इस क्षेत्र के संरक्षक थे। इससे मिलती कथा जरथुस्‍त्र की एर्यानेम वेज या ईरान वेज की है।
लल्‍लदादी या ललदद्य कश्‍मीर की महान योगिनी व आदि कवयित्री थीं। उनकी कोई प्रामाणिक जीवनी उपलब्‍ध नही है। उनकी चर्चा फारसी की प्राचीन किताबों ऋषिनामा और नूरनामा में हैं। कश्‍मीर में लल्‍ला के वाखों की वैसी ही लोकप्रियता है जैसी हिंदी पट्टी में कभी तुलसी के मानस की रही। राजाओं का इतिहास लिखने वालों ने इस लोककवि‍ की उपेक्षा की पर कश्‍मीरियों की जबान पर श्रुत परंपरा में वे सदा रही हैं।
सूफी फकीर कवि शम्‍स 1843 की कवि‍ता पंक्तियों के अनुसार लल्‍ला शाह सैयद अली हमदान (जो ईरान से नक्‍शबंद सूफी संस्‍कृति के प्रचार को 1380 में 700 शिष्‍यों के साथ भागकर कश्‍मीर आए थे) और सूफी संत नुरूद्दीन नूरानी (जिन्‍हें हिंदू नुन्‍द ऋषि ओर सहजानंद पुकारते थ) की समकालीन और मित्र थीं। नुन्‍द ऋषि कश्‍मीर में लल्‍ल की तरह लोकप्रिय हैं।
हमदान के समय कश्‍मीर बौद्ध धर्म व अद्वैत शैव धर्म का केंद्र था। शम्‍स के अनुसार लल्‍ला हमदान के साथ आंख-मिचौली खेलती थीं, मतलब यहां उनकी दोस्‍ती से है।
यह वह समय था जब संस्‍कृत कमजोर पड रही थी और फारसी विकसित हो रही थी, इसी समय कश्‍मीरी का विकास हो रहा था। उस समय की कश्‍मीरी में संस्‍कृत का असर काफी था। आगे आधुनिक कश्‍मीरी के वि‍कास में लल्‍ल का अच्‍छा योगदान माना जाता है।
कश्‍मीर के तीसरे मुस्लिम शासक सुल्‍तान अल्‍लाउद्दीन के काल में लल्‍ल का जन्‍म श्रीनगर से 4 मील दूर पांद्रेंठन में हुआ था। पांद्रेंठन पहले कश्‍मीर की राजधानी रह चुका है।
कश्मीर की इस प्रख्यात महिला संत को ललद्यद भी पुकारा जाता है। 12 साल की लल्‍ल का विवाह पाम्‍पोर या पद्मपुर के द्रंगबल में हुआ था। उसकी सौतेली सास उसे बहुत प्रताडित करती थी। उसके प्रभाव में उसका पति भी उस पर अत्‍याचार करता था। पर वे शिव भक्ति में रमी रहती थीं। उनकी ईश भक्ति से परेशान घर वालों ने उन्हें बाहर निकाल दिया था। इससे तंग आकर उसने उन्‍माद में नग्‍न हो घर छोड दिया और घूमते हुए उपदेश करने लगी। इसी समय से लोग उसे दुलार से लल्‍ल यानी लाड़ली पुकारने लगे। नंगे रहने के कारण कुछ लोग उसे डांटते कुछ उसे पागल समझते पर उसने किसी पर ध्‍यान नहीं दिया - वह कहतीं -
हां, एक बात मुझसे मेरे गुरू बोले
तू बाह्य छोड़ अंतर पथ गामिनि हो ले
आदेश बने ये शब्‍द - प्रेरणा मेरी
तब से मैं नाची नग्‍न, मग्‍न, पट खोले।
भक्ति में डूबा उनका जीवन कुछ के लिए श्रद्धा का विषय था तो कुछ के लिए मजाक का। लल्लेश्वरी उपहास का बुरा नहीं मानती थीं। 
एक सुबह वे मंदिर जा रही थीं तो कुछ बच्चे पीछे लग गए। एक व्यापारी से ये सब देखा नहीं देखा गया तो उसने बच्चों को फटकारा और  भगा दिया। लल्लेश्वरी ये सब देख रही थी। बच्चों के जाने पर उसने व्यापारी से कपड़ा माँगा औरउसे दो टुकड़े कर कंधों पर डाल लिया व्यापारी के साथ मंदिर को चल पडीं। राह में कोई उन्हें श्रद्धापूर्वक अभिवादन करता तो वह बाएँ कंधे पर रखे कपड़े मे एक गाँठ बाँध देतीं, कोई उनका मजाक उड़ाता तो दाएँ कपड़े में गाँठ लगा देतीं। ऐसा करते मंदिर आ गया। तब उसने व्यापारी को कहा कि देख लो कितनी गांठें हैं। व्यापारी ने हैरान रह गया, दोनों  में समान गांठें थीं।
लल्‍ला ने शैव धर्म की शिक्षा सिद्ध श्रीकंठ से ली थी। वह उन्‍हीं के साथ एक गुफा में रहकर साधना करती थीं। आगे उसे सुनने के लिए भीड़ उमड़ने लगी। वह योगेश्‍वरी कहलाने लगी। उस समय के प्रसिद्ध सूफी संत भी लल्‍ला की संगत पाने में सम्‍मान समझते थे। यह सूफी व शैव मत के सकारात्‍मक संगत का काल था।
भड़की हुई आग को पल में शांत कर देना
या आकाश में दो पांवों पर चलना
या लकड़ी की गाय को दोह कर दूध निकालना
यह सब कितना ही अद्भुत क्‍यों न लगे, यह तो मदारी का खेल ही है - लल्‍ला।
सत्‍य,शिव व विराट से साक्षात्‍कार ही जीवन का चरम लक्ष्‍य है। आत्‍मा ही शिव है।
गगन चय भूतल चय 
चय द्यन पवन त राथ
अर्धचंदुन पोष-पोयं चय
चय अय सकल त ल,गजि क्‍याह - लल्‍ल
तू ही पवन तू ही गगन भूतल तू तू ही दिन रात। अर्ध्‍य-पुष्‍प-जल-चंदन सब कुछ तू ही तात। व्‍यर्थ ये पूजा के सब साज - लल्‍ल
लल्लेश्वरी ने समझाया कि सच्चाई और भक्ति के मार्ग पर चलो तो प्रशंसा और निंदा को बराबर समझना। वे दिखाई तो देती हैं लेकिन उनका कोई अस्तित्व नहीं होता। इस सत्य को समझ तो मन पर इनका कोई प्रभाव नहीं होता। ललद्यद का एक लोकप्रिय पद इस प्रकार है –
गगन तू, भूतल भी
तू ही पवन और रात,
अर्घ्‍य, पुष्‍प , चंदन, पान
सब-कुछ तू, फिर चढाउं क्‍या तात ।

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

वीरेन डंगवाल


तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे है
लोग करोड़ों इसी देश में तुझ जैसे
धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी
'
अकेला तू तभी कविता की ये पंक्तियाँ ठेठ देसी मिजाज के कवि वीरेन डंगवाल के मूल स्वर का परिचय देती हैं। विष्णु खरे के बाद जिस तरह हिंदी कविता में मानी-बेमानी डिटेल्स बढ़ते जा रहे थे और कविता के कलेवर में मार तमाम तरह की गदहपच्चीसियाँ जारी हैं, वीरेन की छोटे कलेवर की कविता कटु-तिक्त बीज की तरह हैं। हिंदी कविता के लिए वीरेन नये प्रस्थान बिंदु की तरहे हैं। मेधा की दुर्जयता के टंटों के इस दौर में ऐसी हरकतों से खुद को दूर रखते हैं वे। बड़ी और महान कविता रचने से ज्यादा वह बड़ी जमात की बात कहने में विश्वास रखते हैं। बड़प्पन का घड़ा वह हर जगह पटक कर फोड़ते दिखाई देते हैं। रात-गाड़ीकविता में वह लिखते हैं -
'
इस कदर तेज वक्त की रफ्तार
और ये सुस्त जिंदगी का चलन
अब तो डब्बे भी पाँच एसी के
पाँच में ठुंसा हुआ, बाकी वतन...
'
इसबाकी वतन की चिंता वीरेन के यहाँ हर जगह देखी जा सकती है। पहले संग्रह की पहली कविता कैसी ज़िंदगी जिएँ जो इस संकलन की भी पहली कविता है में ही उन्होंने लिखा था -
'
हवा तो खैर भरी ही है कुलीन केशों की गंध से
इस उत्तम बसंत में
मगर कहाँ जागता है एक भी शुभ विचार
खरखराते पत्तों में कोपलों की ओट में
पूछते हैं पिछले दंगों में कत्ल कर डाले गए लोग
अब तक जारी इस पशुता का अर्थ...
'
और यह पशुता जारी है आज भी, परंपरा और राष्ट्रवाद के नाम पर और बाद की कविताओं में भी कवि का संघर्ष जारी है, इस पशुता के खिलाफ, उसके छद्म रूपों के खिलाफ।
इस व्यवस्था से गहरी चिढ़ है वीरेन को, क्योंकि वह किसी के मन का कुछ होने नहीं देती और कवि दुखी हो जाता है कि -
'...
झंडा जाने कब फुनगी से निकलकर
लोहे की अलमारी में पहुँच जाता...
इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक
कभी असल झंडा...
'
असली झंडा ना छू पाने की यह जो कचोट है कवि के मन में, यह आम जन की टकटकी का रहस्य खोलती है। यह टकटकी, जो मुग्धता और तमाम विशिष्टताओं को पा लेने की, उन्हें मिसमार कर देने की हिंसक चाह के बीच झूलती रहती है। यह जो टकटकी है, निगाह है कवि की, झंडे से प्रधानमंत्री के पद तक की बंदरबांट कर लेने की, वह बहुतों को नागवार गुजरती है। खासकर हिंदी के चिर किशोर व नवल आलोचकों को, जिन्हें बेरोजगारी से ज्यादा, बेरोजगारों द्वारा समीक्षा का स्तर गिराए जाने की बात परेशान करती है। यहाँ हम उन तथाकथित आलोचकों को भी याद कर सकते हैं, जो इससे पहले नागार्जुन में इस लुंपेन मनोवृत्ति को चिन्हित करते रहे हैं, दरअसल ऐसी फिकराकशियाँ उस अभिजात, अकादमिक विशिष्टता बोध से पैदा होती हैं, जो खुद को अलग और खास बतलाने-दिखलाने की कोशिश करते हैं।
धूमिल ने कभी तीसरे आदमी के सवाल पर संसद के मौन को लेकर आवाज बुलंद की थी।सभाशीर्षक छोटी-सी कविता में वीरेन भी एक संजीदा सवाल उठाते हैं -
'
भीतरवालों ने भितरघात किया
बाहरवालों ने बर्हिगमन
अध्यक्ष रूठे कुछ देर को
संविधान के अनुच्छेदों के निर्देशानुसार
सदन स्थगित हुआ
भत्ता मगर मिला सबको...
'
आखिर जब सदन अकारण स्थगित कर दिया जाता है, तो फिर भत्ता क्यों नहीं स्थगित होता है।
वीरेन डंगवाल की कविताओं में रामसिंहचर्चित रही है। इस संकलन में भी उसके वजन की दूसरी कविता नहीं है। फौजियों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करने वाली यह कविता मनुष्यता के पक्ष में बड़ी मुहिम की तरह है। ब्रेख्त ने एक चर्चित कविता में लिखा था, चेतावनी के स्वर में -
'
जनरल, बहुत मजबूत है तुम्हारा टैंक
लेकिन इसमें एक दोष है
इसे एक आदमी की जरूरत है
जनरल, आदमी बहुत उपयोगी जीव है
लेकिन उसमें भी एक दोष है
वह सोच भी सकता है।
'

रामसिंहकविता में वीरेन ने इसी एक आदमी की संभावनाओं को अभिव्यक्त किया है। वीरेन जानते हैं कि अगर यह आदमी विचार करने लगता है, सोचने लगता है तो बुश जैसे दिवालिया महानायकों की मंशा फुस हो सकती है, जो अफगानिस्तान, इराक के बाद अब ईरान के लोगों का इलाज करने की फिराक में लगा है। रामसिंहकी पंक्तियाँ हैं -
'
तुम किसकी चाकरी करते हो रामसिंह?
तुम बंदूक के घोड़े पर रखी किसकी उंगली हो?...
...
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढ़ते रहते हैं
...
वे तुम्हें गौरव देते हैं और इस सबके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हुई
लड़कियों से बचपन में सीखे गए गीत ले लेते हैं...
'
ऐसा नहीं है कि वीरेनरामसिंहको लड़ाई के मोर्चे से भाग जाने को कहते हैं, बल्कि वे उसे सही मोर्चों पर जाने को कहते हैं, जहाँ लोग बर्फ के खिलाफ इकट्ठे होते हैं, जहाँ आदमी हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ता है। वह रामसिंहको याद दिलाते हैं -
'
याद करो कि वह किसका खून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलाने से पहले हर बार?
कहाँ की होती है वह मिट्टी
जो हर रोज साफ करने के बावजूद
तुम्हारे भारी बूटों से चिपक जाती है
?'
ऐसा नहीं है कि वह अपनी माटी से, धरती से प्यार नहीं करते, वे उसे माटी का ढेर नहीं, कल्याणी पुकारते हैं। पर छद्म राष्ट्रवाद या आतंकवाद के नाम पर अंध उन्माद में खून बहाने को वह सहन नहीं कर पाते। वह मरने-मारने को बहादुरी नहीं मानते। उनके लिए बहादुर वह है, जो जीवन के पथ की बाधाओं को हटाने में अपने प्राण लगा देता है।
वीरेन की कविताओं का एक पहलू उनका मनमौजीपन भी है, जैसे कि कुछ विषयों पर वह झख मारकर कुछ लिख देते हैं, तो फिर लिख देते हैं, उस पर विचार नहीं करते। जैसे  ‘कवि-2’ में वह लिखते हैं -
'
मैं पपीते को
अपने भीतर छिपाए
नाजुक खयाल की तरह...'
फिर पपीताकविता में वह लिखते हैं -
'
असली होते हुए भी नकली लगता है उसका रंग
पेड़ पर रहता है तो भी मुँह लटकाए...'

इस तरह की चीज़ें दुनिया को ठेंगे पर रखने की मनोवृत्ति से भी पैदा होती हैं। फिर ठेंगे पर रखने की झख ऐसी, कि वीरेन खुद को भी ठेंगे पर रखने से बाज नहीं आते। इस मनोवृत्ति के पीछे हम एक चिर जिज्ञासु मानस को भी देख सकते हैं। जो किसी भी तरह की यथास्थिति को बर्दाश्त नहीं कर पाता।
आज की हिंदी कविता संदर्भहीनता का आख्यान बनती जा रही है। सारे युवा कवि कविता के नाम पर विचार बुक कर रहे हैं, वह भी केवल सामने वाले के बारे में। उनको पढ़कर कवि के परिवेश का, उसकी पसंद-नापसंद का, उसके खान-पान, रहन-सहन का कुछ पता नहीं चलता। नतीजा पाठकों के जेहन में उनकी कोई तस्वीर नहीं बनती। कविताएँ क्षणिक भावोत्तेजना का बायस बनकर फुस्स हो जाती हैं। वीरेन की कविताएँ इस मामले में अपवाद-सी हैं। गाय’, ‘जलेबी’, ‘चूना’, ऐसी ही कविताएँ हैं, जो बताती हैं कि जीवन बस एक महान विचार मात्र नहीं है, वह इन छोटी-बड़ी-ज़रूरी-गैर ज़रूरी चीज़ों का समुच्चय भी है।
कुछ कविताएँ वैदिक देवताओं को लेकर लिखी हैं, वीरेन ने। ये हिंदी में वैदिक ऋचाओं-सी हैं। वैदिक काल की ऋचाओं की सहजता को समझने में ये सहायक हो सकती हैं।
मेरी नींद में अपना गरम थूथन डाले/पानी पीती थी एक भैंस। बुखार के पाले कौन नहीं पड़ता, पर उसे इस तरह भाषा में कितने कवि ला पाते हैं। ये कुछ खूबियाँ हैं वीरेन की, जो उन्हें अलहदा साबित करती हैं।