शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

स्मृतियों की नदी - यादवेन्‍द्र

 किताब के बहाने



दिल्ली की 'ओखला हेड' जैसी छोटी नहर से शुरू हुई यह रोमांचक यात्रा यमुना में  मथुरा, आगरा, इलाहबाद तक और उसके आगे बनारस, कानपुर, पटना ,बक्सर होती हुई कोलकाता की हुगली में जाकर बासठ दिनों में संपन्न होती है। लेखक के साथ डोंगी भी अपना इतिहास लिखती हुई चलती है। इसमें बीच बीच में आकर जीते-जागते किरदारों की तरह नदियाँ मिलती रहती हैं। यह  रोमांच, बेचैनी, उकताहट, संघर्ष, जिजीविषा, दोस्ती और ढेरों किस्सों में बंधी किताब है जो आखिरी पन्नों तक पाठकों को बांधे रहती है।
 नदियों के साथ मेरा गहरा रिश्ता रहा है और उत्तर पश्चिमी और पूर्वी भारत की बीस बाईस नदियों को छूने और निहारने का मौका मिला है।

इस सिलसिले में हाल में पढ़े राकेश तिवारी का यात्रा वृत्तांत "सफ़र एक डोंगी में डगमग" मुझे बेहद पसंद आया जो बड़े खिलंदड़ अंदाज़ में दिल्ली से कोलकाता तक की डोंगी कथा कहती है।
दिल्ली की 'ओखला हेड' जैसी छोटी नहर से शुरू हुई यह रोमांचक यात्रा यमुना में  मथुरा, आगरा, इलाहबाद तक और उसके आगे बनारस, कानपुर, पटना ,बक्सर होती हुई कोलकाता की हुगली में जाकर बासठ दिनों में संपन्न होती है। लेखक के साथ डोंगी भी अपना इतिहास लिखती हुई चलती है। इसमें बीच बीच में आकर जीते-जागते किरदारों की तरह नदियाँ मिलती रहती हैं। यह  रोमांच, बेचैनी, उकताहट, संघर्ष, जिजीविषा, दोस्ती और ढेरों किस्सों में बंधी किताब है जो आखिरी पन्नों तक पाठकों को बांधे रहती है।

पर लेखक ने बिहार में हाजीपुर के पास स्थित पहलेजा घाट से पटना के महेंद्रू घाट के बीच की यात्रा इतने आनन फ़ानन में निबटा दी कि मेरा मन अभीगा छूट गया। बचपन के पाँच छह साल हाजीपुर के घोसवर गाँव में बिताते हुए पहलेजा से महेंद्रू तक की स्टीमर यात्रा की मेरे बालमन पर अमिट छाप है , भले ही  घाटों के बीच स्टीमर चलना अब बाबा आदम के ज़माने की बात हो चुकी हो।दरअसल साल में दो बार होली और दशहरे की बनारस की हमारी यात्रा अनिवार्य थी ,इसके अलावा भी घेलुआ में एकाध यात्रा हो ही जाती थी। और हमारी यात्रा सिर्फ़ गंगा के इन दो घाटों के बीच संपन्न स्टीमर की इकहरी यात्रा नहीं होती थी बल्कि इसमें बैलगाड़ी (लकड़ी के बड़े आकार के खड़ खड़ करने वाले पहियों के आम रिवाज़ से हट कर रबर के टायर लगे होने के कारण बैलों द्वारा खींचे जाने के बावज़ूद लोगबाग इसको टायर गाड़ी कहते थे),रेलगाड़ी और रिक्शे के भिन्न भिन्न खण्ड शामिल होने के साथ साथ भावनात्मक उद्वेगों के अच्छे खासे टुकड़े सहज शामिल होते थे।राक्षसी दमे ने बचपन में न सिर्फ़ मेरा जीना दूभर कर रखा था बल्कि गाँव के वैद्य जी के हवाले भी किया हुआ था -- साल भर जैसे तैसे मेरी गाड़ी खिंच भी जाये बनारस जाने से पहले साँसों के अब तब का सूख जाने का माहौल बनता ही था और वैद्य जी को अपनी हर मर्ज़ की एक ही दवा साबुन जैसी लाल रंग की सिरप से ज्यादा उपवास की शक्ति पर  भरोसा था। एकबार बीमारी के कँटीले बाड़े से निकल जाएँ तो गाँव से हाजीपुर रेलवे स्टेशन तक टायर गाड़ी से जाने का उत्सव जैसा इंतज़ाम होता था -- हाजीपुर से पहलेजा घाट तक ट्रेन से जाना होता था। घड़ी और समय के अनुशासन से पूरी तरह बेख़बर मेरा मन बस एक के बाद एक काम जल्दी जल्दी संपन्न हो जाने पर आकर ठहर जाता था …… असली पेंच समय पर टायर गाड़ी के समय पर दरवाज़े आ लगने को को लेकर था, उसमें पाँच मिनट की देर भी मुझे गाड़ी छूट जाने की आशंका से रोने की कगार तक ले जाती--- इस बीच यदि घर के पिछवाड़े की रेल लाइन से कोई गाड़ी निकल जाये तो फिर फ़रक्का बाँध टूट जाने से होने वाला जल प्रलय भी मेरे विलाप से निकले आँसुओं के सामने बौना पड़ जाये। हमें घाट तक ले जाने वाली गाड़ी उस रास्ते नहीं गुज़रती यह पिताजी बीसियों बार मुझे समझा चुके थे पर समझे तो वो जो समझना चाहे। खैर सारी बाधायें पार कर हम स्टेशन पहुँचते ,वह संक्षिप्त यात्रा आम रेल यात्राओं जैसी अ रोमांटिक अंदाज़ में पूरी हो जाती। पहलेजा घाट में स्टीमर तक पहुँचने में जितना पैदल चलना पड़ता उसके सौंवे हिस्से से भी कम लप लप लचकती लकड़ी या कभी कभी बाँस की तिरछी पटरी से खुद को संतुलित करते हुए स्टीमर पर चढ़ने में चलना पड़ता था -- पर यह आह्लाद और उपलब्धि भी सौ गुना से ज्यादा थी , और कभी कभी किसी का घबरा कर गिर जाना महीने भर की हँसी का ख़ुराक बन जाता था। स्टीमर पर सबसे ज्यादा मज़ा छत पर आता पर बच्चा बच्चा कहकर हमें छत पर जाने से सबसे ज्यादा रोका भी जाता। छत पर पहुँच कर लगता हम स्टीमर की नहीं दुनिया की छत पर आसीन हो गये हों ,हाँलाकि ऊँचे किनारों के पीछे की दुनिया हमारी नज़रों से ओझल हो जाती।बीच रास्ते यदि आंधी तूफ़ान आ जाये तो एक ही बात मन में आती कि पानी में रहते जीव जंतु अपने नुकीले दाँत पहले पैरों में लगायेंगे कि माथे को। सफ़र के दौरान कहीं एक स्टीमर डूबा पड़ा था ,हर बार नहीं पर जब कभी नदी में पानी कम होता तो उसका माथा (शायद मस्तूल कहते हैं) थोड़ा दिखायी देता -- तब हमें उस डूबे स्टीमर को दिखा कर यह ज़रूर समझाया जाता कि ज्यादा उछल कूद की तो तुम्हारी इस स्टीमर का भी यही हस्र होगा। एक बार बीच रास्ते ऐसी ही प्रलयंकारी आंधी आयी और स्टीमर बुरी तरह हिचकोले खाने लगा -- उस समय डूबे हुए जहाज की कहानी दुहराने की सुध किसी को नहीं आयी पर सामने न दिखाई देते हुए भी डूबा हुआ स्टीमर बार बार मेरे स्मृतिपटल पर आता रहा। बारिश के कारण अचानक बढ़ गयी ठण्ड ने छत को वीरान कर दिया और सारी जनता नीचे आकर भाप वाली चिमनी को घेर कर खड़ी हो गयी -- मुझे अच्छी तरह याद है कि स्टीमर के कारिंदों ने  लाठी डंडों से लोगों को वहाँ से खदेड़ा था जिस से भार संतुलित ढंग से वितरित हो जाये,एक जगह केंद्रित न हो। हम उस बेमौसम ठण्ड से इतने घबरा गये कि बनारस न जा बीच रास्ते पड़ने वाले ननिहाल आरा रुक गये और रात भर जग कर अम्मा और दो मौसियों  ने हम तीन भाई बहनों के लिये स्वेटर बना डाले।  बाद में जब स्व रघुवीर सहाय के कहने पर दिनमान के लिये बंद पड़ी स्टीमर सर्विस के आन्दोलनरत कर्मियों पर एक स्टोरी करने निकला तो पुराना पहलेजा घाट  पहचानना दूभर हो गया क्योंकि स्टीमर घाट तक जाने वाली सड़क उखड़ गयी थी और गुलज़ार रहने वाली फूस की झोपड़ियाँ जमींदोज़ हो गयी थीं।महेंद्रू घाट शहर का हिस्सा था सो उसका अस्तित्व मिटा नहीं ,वैकल्पिक व्यावसायिक इस्तेमाल होने लगा।यह रिपोर्ट "माँझी पर भरोसा कम" शीर्षक से दिनमान में छपी थी। पहलेजा से लौट कर मैंने एक कविता लिखी थी ,कभी मिली तो मित्रों से वह भी साझा करूँगा।         

सोमवार, 15 जुलाई 2024

साइकिल मेरे पिता की सवारी थी, इसलिए मेरा आइडियल...

 साइकिल—  कुछ यादें ...

डॉ.विनय कुमार 



साइकिल के साथ बहुत सारी यादें जुड़ी हैं। साइकिल मेरे पिताजी का प्रिय वाहन है। मुझे वे दिन भी याद आ रहे जब हमारे घर में साइकिल नहीं थी और माँगने पर कई लोग देना नहीं चाहते थे। दरअसल सब इस बात से डरते थे कि उनकी साइकिल में कुछ ख़राबी आ जाएगी क्योंकि पिताजी  साइकिल बहुत तेज चलाते थे। उनकी यह तेज़ी पचासी की उम्र में भी बनी हुई है। फ़र्क़ बस यह पड़ा है कि पिछले दिनों दो बार गिरने के कारण फ़ैमिली पार्लियामेंट  ने उनके  साइकिल चालन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित कर दिया है और वह प्रस्ताव क़ानून बनकर लागू भी हो गया है। यह लिखते हुए बचपन का एक प्रसंग याद आ रहा। मेरे दाहिने कान में कई दिनों से दर्द था और (तब भी) मैं स्कूल गया हुआ था। कोई चार बजे के आसपास पिताजी आए और मुझे साइकिल पर बिठाकर ले चले। रास्ते में बताया - डॉक्टर के यहाँ चलना है, खिजरसराय। घंटा भर इंतज़ार के बाद डॉक्टर साहब ने देखा और कह दिया कि नाक-कान-गला विशेषज्ञ से मिलो। पिताजी ने फिर मुझे साइकिल पे बिठाया और गया चल पड़े। मेरे गाँव से गया की  दूरी कोई बत्तीस मील है, मगर बाबूजी की तेज़ी ! विशेषज्ञ डॉक्टर से दिखाकर रात के खाने के समय चाचाजी के घर पर, और सुबह साढ़े सात बजे अपने गाँव वापस। 

तो साइकिल मेरे लिए पिता की सवारी थी इसलिए मेरा आइडियल। जब भी किसी को पैडल मारते -घंटी बजाते सर्र से निकलते देखता मेरा मन मचल उठता।यह एक संयोग था कि मैं ग्रामीण राष्ट्रीय मेधाविता परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अपने सब डिविज़न के चयनित आवासीय स्कूल दाख़िल हुआ और घर से दूर रहकर एक नयी आज़ादी का मज़ा लेने लगा। दाख़िले के सात-आठ महीने बाद  मुझे  एक लावारिस साइकिल मिल गयी। इसके पीछे एक मज़ेदार क़िस्सा है। हुआ यह कि एक दिन हमारे हॉस्टल में एक सज्जन दिखे और फिर रोज़ दिखने लगे। दरअसल वे एक कमरे में जम चुके थे। उम्र लगभग पचास साल,  मझोला क़द, रंग गोरा और कुछ-कुछ पकी मूँछें नुकीली। उजली क़मीज़-धोती में एकदम सज्जन लगते थे। उन्हें प्रवचन का बड़ा शौक़ था।  यूँ तो जो भी  पकड में आए उसे थोड़ा सा  ज्ञान  पिला देते थे, मगर महफ़िल शाम को जमती थी हॉस्टल के गार्डेन में। शाम को वे सिर्फ़ धर्म और इतिहास पर बात करते थे, और वह भी राजस्थान के इतिहास पर। राणा सांगा और प्रताप उनके प्रिय नायक थे। उनके व्यक्तित्व के इस राजपूती रंग ने हमारे स्कूल के प्रिन्सिपल साहब और हॉस्टल के सूपरिंटेंडेंट साहब का दिल जीत लिया था। समझदार लोगों को कारण समझाने की क्या ज़रूरत ? बहरहाल, यह सिलसिला कोई दस दिनों तक चला, और एक दिन सज्जन काफ़ूर। कमरे में एक फटी हुई लुंगी और दीवार से चिपकी राणा प्रताप की एक तस्वीर। जब वे रात तक नहीं लौटे तब हमारे क्षात्र-धर्मावलम्बी गुरुओं का स्यापा चालू हुआ। सज्जन उनलोगों से कोई दो हज़ार ऐंठकर निकल चुके थे। इसी हो -हल्ले के बीच हमलोगों को एक पुरानी ख़स्ताहाल साइकिल दिखी। पता चला, उन्हीं की है। उस वक़्त तो प्रिन्सिपल साहब ने साइकिल में ताला लगवा दिया मगर अगले दिन उसे उसे यह कहते हुए मुक्त कर दिया गया कि कोई चाहे तो कैम्पस के भीतर सीख सकता है। 

साइकिल दस्तरस होते ही मुझे पिताजी की याद आई और मैं पिल पड़ा, और जल्द ही सीख भी गया। गर्मी की छुट्टी में जब हॉस्टल से गाँव गया और एक भाई साहब की साइकिल माँग , उस पर दस किलो गेहूँ लाद,  बाज़ार से पिसवा कर लौटा तो लगा मैं भी बड़ा हो गया हूँ। मुझे अच्छी तरह याद है कि लौटते वक़्त पिताजी मिले थे। मैंने उन्हें देखकर रफ़्तार बढ़ा दी थी। ठीक ही कहता है मनोविश्लेषण का सिद्धांत कि हर बच्चा अपने बाप जैसा होना चाहता है। मगर कहाँ हो पाता। आज भी पिता मेरे आदर्श ही हैं। मैं उनके  शारीरिक सामर्थ्य और आर्थिक-नैतिक  संयम को चाहकर भी नहीं साध पाया। मगर उनका एक वाक्य हर रफ़्तार में मेरे साथ रहा है। जिस रोज़ पहली बार साइकिल चलाते देखा था पिताजी ने, उसी शाम रात के खाने के वक़्त कहा था - आराम से चलाना, बहुत तेज नहीं।  तेज़ी के क़ायल पिता के इस वाक्य का अर्थ तब समझ में आया जब मैंने अपने पुत्र को साइकिल चलाते देखा और वह भी तेज! 

मेरी साइकल तो जल्द ही छूट गयी थी मगर अपने दादाजी पर गए पुत्र अभिज्ञान के साथ यह विरासत बनी है।आईआईटी खड्गपुर  से लेकर यूमास ऐमहर्स्ट में पीएचडी करने तक और अब हेल्थ इंस्ट्रुमेंट के रूप में। उसी की वजह से जान पाया कि आईआईटी खड्गपुर में डीन भी साइकल पर ही चलते हैं। ऐमर्हर्स्ट में भी साइकल की महिमा दिखी और स्टैन्फ़र्ड यूनिवर्सिटी में भी। केम्ब्रिज और आक्स्फ़र्ड (यूके) तो ख़ैर हैं ही प्रसिद्ध इस बात के लिए कि कैम्पस में शोर और धुआँ कम से कम हो। 

एक बड़ा ही रोचक अनुभव शांति निकेतन का भी है। कई साल पहले की बात है। शांति निकेतन में इंडियन साइकाएट्रिक सोसाइटी के ईस्टर्न ज़ोनल ब्रांच का ऐन्यूअल  कॉन्फ्रेन्स था। कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए मुख्य अतिथि का इंतज़ार था। हम जैसे उत्साही लोग बाहर खड़े थे। उम्मीद थी कि कोई सफ़ेद ऐम्बैसडर आकर और उससे सूट-बूट में सजे वाइस चांसलर साहेब परगट होंगे। ऑर्गनाइज़िंग कमिटी के लोग बार-बार घड़ी देख रहे थे और कह रहे थे - He will come on time। मैंने घड़ी देखी - ठीक पाँच, मगर वहाँ कोई गाड़ी आकर नहीं रुकी। एक साइकल ज़रूर रुकी। चालक ने साइकिल स्टैंड पर चढ़ायी, ऑटमैटिक ताला खटाक किया, जेब से रूमाल निकाल पसीना पोंछा और चढ़ गया सीढ़ियाँ। तब जाकर एक आयोजक ने पहचाना और हाथ जोड़े - वीसी साहब , नमस्कार!

बुधवार, 10 जुलाई 2024

एक मतदाता की डायरी

चुनाव, संविधान और जाति व्‍यवस्‍था - अरुणजी 



एक जून 2024 को लोकसभा चुनाव के सातवें चरण का अन्तिम दिन था। हमारे शहर पटना में मतदान का दिन। आशियाना नगर के घर में हम बस तीन लोग हैं। पिता जी, बन्दना और मैं। इनमें 93 वर्ष के पिता जी सुपर सीनियर सिटीजन हैं। बाकी दोनों भी सीनियर सिटीजन बन चुके हैं। तीनों को वोट डालने जाना था। इसके लिए हमने एक दिन पहले कुछ तैयारियां की थीं। कि क्या पहनना है, कितने बजे मतदान केंद्र पर पहुंचना है वगैरह वगैरह। इसके अलावा मैंने एक दो विडियो भी देखा था। ईवीएम, वीवीपैट वगैरह के बारे में, जिससे कि मतदान केंद्र पर मशीन की प्रक्रिया को समझने में कोई दिक्कत नहीं हो। या उसके कारण अचानक कोई परेशानी न हो।


सुबह सात बजे मतदान शुरू होना था। हमने तय किया था कि ठीक पौने सात में निकलेंगे। सवेरे सवेरे वोट डालकर लौट आएंगे। वोट डालने के लिए पर्चियां हमें मिल चुकी थीं, एक सरकारी मुलाजिम ने हमें करीब पंद्रह दिन पहले ही घर आकर सुपुर्द कर दी थीं ।  


एक घर में एक साथ रहते हुए भी मैं और पिता जी दो अलग-अलग ध्रुवों के निवासी हैं। पिता जी बीजेपी के प्रबल समर्थक हैं। मोदी के भक्त। मैं ठहरा मोदी का विरोधी। वैसे भी हमारे देश में अब दो ध्रुव ही बचे हैं। मोदी के समर्थक या उसके विरोधी। दक्षिण, वाम, उदारवादी, सोशलिस्ट जैसे शब्द हमारे शब्दकोष से दूर हो गए हैं। 


बन्दना इस तरह की राजनीतिक बहसों से दूरी बनाए रहती है। अगर उसकी अपनी कोई राय है भी तो उसे वह सार्वजनिक नहीं करती। हां, वह हम दोनों के बीच सामंजस्य जरूर स्थापित करती है। पिछले तीन चार वर्षों में पिता जी और मेरे बीच दो-चार बार मोदी को लेकर तीखी नोंक-झोंक हो चुकी है जिसमें बन्दना ने बीच-बचाव किया है। वह पिता जी का पक्ष लेती है। शायद मुझे चुप कराना उसके लिए ज्यादा आसान है। 


इतने दिनों में मैंने एवं पिता जी ने अपनी सीमाओं में रहना सीख लिया था। अपनी बातचीत में हम राजनीतिक मुद्दों से दूरी बनाए रखते हैं। कोशिश करते हैं कि हम एक दूसरे के सामने अपने मत व्यक्त न करें। और अगर हममें से किसी एक ने छेड़ भी दिया तो दूसरा उसे नज़रंदाज़ कर दे। हम प्रयास करते हैं कि अपने विचारों की सीमाओं के अंदर रहें। हम दोनों के बीच शांति बरक़रार रखने में बन्दना की भूमिका महत्वपूर्ण है।


बन्दना के सौजन्य से सुबह कॉफी पीकर हम तीनों पैदल निकल पड़े। तय समय से पांच मिनट लेट। सात बजने में दस मिनट बाकी था। पर्ची एवं आधार कार्ड हमारे साथ था। मतदान केंद्र हमारी कॉलोनी के दूसरे छोर पर आशियाना क्लब में था। हमारे घर से पैदल चलने पर यह करीब पांच-छह मिनट का रास्ता है। पर ये केवल बन्दना और मेरे लिए। पिता जी के लिए यह दूरी ज्यादा थी। वह रोज शाम के वक्त जितनी दूरी कॉलोनी के पार्क जाने में तय करते हैं उससे लगभग डेढ़ गुणा ज्यादा। उनकी उम्र और उनके स्वास्थ्य की स्थिति को देखें तो उनके लिए पार्क जाना ही अपने आप में एक चुनौती है। पर 93 वर्ष के पिता जी रोज़ अपनी छड़ी और अपने आत्मबल के सहारे अपनी गति से पार्क जाते हैं और वहां से लौट आते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कोई 30 वर्ष का व्यक्ति रोज मैराथन में भाग ले रहा हो। 


एक रात पहले मैंने पिता जी से पूछा कि क्या कल के लिए पांच सौ रुपए में हम एक टैक्सी किराए पर ले लें? हम तीनों साथ चलेंगे और मतदान के बाद उसी में बैठकर आ जाएंगे। उन्होंने उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि यह फिजूलखर्ची होगी। तुम्हारे पास अगर पैसे ज्यादा हैं तो मुझे दे दो। कहकर उन्होंने जोर का ठहाका लगाया। उनके इस अन्दाज़ को देखकर मैंने भी जोर डालना उचित नहीं समझा। वैसे भी इस मुद्दे पर मैं अलग-थलग पड़ चुका था। बन्दना उनसे सहमत थी।


अब रास्ते में हमारे लिए एक और चुनौती थी। हम दोनों को पिता जी का ध्यान भी रखना था। लेकिन हमें उनके साथ चलने की इजाज़त नहीं थी। जब कभी भी हम कहीं पैदल जाते हैं तो उनकी सख़्त हिदायत होती है, “तुमलोग या तो मेरे आगे चलो या पीछे। मेरे साथ मत चलो। और मुझे सहारा देने की कोशिश तो बिल्कुल मत करो। छुओ भी नहीं”। वे कहते कि तुम्हारे साथ रहने पर मैं दबाव महसूस करता हूं। लगता है कि मैं भी थोड़ा तेज चलूं, जो मेरे लिए अच्छा नहीं है। 


मैं तो प्रायः इस बात का ध्यान रखता हूं मगर पिछले महीने इसी बात पर मुरारी दा को डांट पड़ गई थी। असल में हम लोग (पिता जी, बन्दना, मेधा और मैं) एक समारोह में शामिल होने अपने गांव मोकामा गए थे। वहां पिता जी को लेकर मैं मुरारी दा के घर पहुंचा। घर के अंदर प्रवेश करने के लिए दो-तीन सीढ़ियां थीं। पिता जी अपने हिसाब से उसपर चढ़ने लगे। मैं उनके पीछे था और मुरारी दा उनके आगे। मुरारी दा को लगा कि पिता जी को सहारे की जरूरत है और उन्होंने उनके हाथ को सहारा देने के लिए पकड़ लिया। पर जैसे ही उन्होंने हाथ पकड़ा कि पिता जी ने जोर से झटककर उन्हें डांट दिया, “मुझे छुओ नहीं, हटो”। मुरारी दा मेरी ओर देखने लगे। मैंने इशारे से उनको मना किया।


यही थी हमारी चुनौती। उन पर नज़र भी रखना था और दूरी भी बनाए रखनी थी । मतदान केंद्र के रास्ते में बन्दना और मैं साथ-साथ चल रहे थे। पिता जी जब पीछे होते तो हम रुक जाते। जब वो आगे बढ़ जाते, तो हम उनके पीछे। इसी तरह कभी आगे तो कभी पीछे चलते हुए हम बढ़ रहे थे। रोड पर लोगों की चहल-पहल थी। हमारे कॉलोनी में चार मतदान केंद्र थे। कुछ लोग वोट डालने जा रहे थे। कुछ लौट कर आ रहे थे। कई परिचित सज्जनों से भेंट हो रही थी।


मैं सोचने लगा कि पिता जी आंख मूंद कर मोदी का समर्थन क्यों करते हैं? कोई स्पष्ट जवाब तो मेरे पास नहीं था। पर मुझे ऐसा लगता है कि 90 से अधिक उम्र वाले मेरे पिता जिस पीढ़ी से आते हैं, उसने भारत की आज़ादी को देखा है। उसने आज़ादी के पहले के समय को भी देखा है जब उनकी जाति, उनके समुदाय का समाज में वर्चस्व हुआ करता था। हम जाति से भूमिहार हैं। एक समय था जब जाति व्यवस्था के अनुक्रम में भूमिहार एवं कुछ अन्य जातियों का बोलबाला हुआ करता था। सत्ता एवं संसाधनों पर उनका वर्चस्व था। 


1947 में आज़ादी और ख़ासकर 1950 में संविधान के लागू होने के बाद इन जातियों को एक ज़ोर का झटका लगा। सबसे बड़ा झटका तो मानसिक था। बाकी असर तो इसका बाद के वर्षों में दिखाई पड़ा। धीरे-धीरे इन जातियों का वर्चस्व ढहने लगा। सत्ता एवं संसाधनों के इस हस्तांतरण को मैंने भी देखा है। कि कैसे समानता के सिद्धांतों पर आधारित हमारे संविधान ने बाकी जातियों को आगे बढ़ने में मदद की। हालांकि समानता अपने आप में एक मिथक है जिसकी पूर्णता किसी भी परिस्थिति में संभव नहीं है। 


पर शायद इन्हीं कारणों से पिता जी और हमारे समुदाय में उनकी पीढ़ी के बहुत सारे लोग कांग्रेस के शुरू से ही विरोधी रहे। क्योंकि उनके अनुसार कांग्रेस के कारण ही उनके समुदाय का वर्चस्व छिन गया। लालू यादव की पार्टी आरजेडी को तो ये बिल्कुल नहीं पसंद करते हैं। और कांग्रेस का इसी से एलायंस है। 


वैसे मोदी का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष धर्म है जिसके सहारे वो अपने वोटरों को एक जुट करते हैं। हिन्दू को खतरे में दिखाना, मुस्लिमों के प्रति घृणा पैदा करना। ध्रुवीकरण के मूल हथियार हैं। पिता जी को शायद यह आकर्षित करता है। उन्हें ऐसा लगता है कि मोदी एक ऐसा व्यक्ति है जो हमारी जाति, हमारे धर्म की खोयी हुई प्रतिष्ठा को लौटा देगा। 


मेरे लिए धर्म, जाति जैसी चीजें काल्पनिक सच्चाइयां हैं। इन पर आधारित राजनीति कलह और घृणा से भरी है। इनसे किसी का भला नहीं हो सकता। हमारा संविधान हमारे राष्ट्र की मुख्य पहचान है। और उसको ठीक तरह से लागू करने में ही हम सबका भला है। लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए मोदी जी ने संविधान को हमेशा तोड़-मरोड़ कर अपने फायदे के लिए उपयोग किया है। 


इसलिए मोदी जी का इस बार सत्ता में आना जनता के लिए ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है। क्योंकि इसके बाद भारत में बड़ी पूंजी का नंगा खेल शुरू हो जायेगा। और उस खेल में मोदी जी की भूमिका बस एक प्यादे की रह जाएगी। चंद पूंजिपतियों की संख्या जरूर बढ़ेगी। पर बाकी जनता की हालत बदतर हो जाएगी। और पिता जी जैसे समर्थकों का सपना भी पूरा नहीं होगा। क्योंकि धर्म और जाति इस खेल के केवल हथियार हैं, उद्देश्य नहीं।


रास्ते भर मैं विचारों के इसी उहापोह में रहा। इस बीच हम मतदान केंद्र पहुंच गए। पिता जी आगे थे और मैं उनके पीछे। गेट के सामने गार्ड ने उन्हें देखकर बड़े आदर भाव से केन्द्र के अंदर जाने की इजाजत दे दी। उनके अटेंडेंट होने के मुझे भी फायदे मिल रहे थे। हम दोनों को कतार में खड़े होने की जरूरत ही नहीं पड़ी। आगे आगे पिता जी और पीछे से मैं। बन्दना वोटरों के लिए बनी लाइन में शामिल हो गई। 


अंदर तीन टेबल थे। पहले वाले पर हमारे पहचान पत्र की जांच हुई। दूसरे पर हमसे दस्तख़त करवाया गया और तीसरे पर एक व्यक्ति ने हमारे बाएं हाथ की दूसरी उंगली पर स्याही लगा दी। स्याही लगने के बाद पिता जी को मैं उस टेबल के पास ले गया जहां उन्हें ईवीएम पर बटन दबा कर अपना वोट डालना था। गुप्त मतदान के कारण ईवीएम को एक घेरे में रखा गया था। 


अचानक वहां पहुंचने पर पिता जी को समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। ईवीएम के दाहिनी छोर पर पार्टी के चुनाव चिन्ह का कॉलम था जो मुझे तुरंत दिख गया। कांग्रेस का चुनाव चिन्ह ‘हाथ’ सबसे ऊपर था। इसके बाद दो और चिन्ह थे। बीजेपी का ‘कमल’ चौथे स्थान पर था। उसके नीचे कई और चिन्ह थे।


पिता जी मुझसे बार-बार पूछने लगे कि क्या करना है। उन्हें अपना मनपसंद चिन्ह नहीं दिख रहा था। मैंने उनको कहा कि आप आराम से एक बार दाहिनी ओर दिये गये कॉलम को देखिए। आप जिस पर लगाना चाहते हैं वो मिल जाएगा। जब वे खोजने लगे तो मेरे मन में ये बात आ रही थी कि शायद उनका मन बदल जाए और वे मेरी पसंद के बटन को दबा दें। मैं चाहता तो उन्हें ऐसा करने के लिए एक बार कह सकता था। पर मैंने उसमें दखल देना उचित नहीं समझा।


खैर दो-तीन बार ऊपर नीचे देखने के बाद उन्हें कुछ दिखा। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं यहां दबा दूं? मैनें हां कर दी और उन्होंने उस बटन को दबा दिया। उसके बाद मैंने भी अपना मतदान किया और हमलोग बाहर की ओर चल पड़े। बाहर मैंने उनका फोटो वगैरह खींचा। फिर हम घर की ओर चल पड़े।